कृष्ण चेतना में कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है, लेकिन हर चीज़ को युक्त, नियमित बनाया गया है.

व्यक्ति को निर्धारित नियमों और विनियमों का पालन करना होता है, जैसा कि भगवद्-गीता में पुष्टि की गई है, युक्तहार-विहारस्य. जब कोई कृष्ण चेतना में भक्ति सेवा रत हो जाता है, तो तब भी उसे खाना, सोना, सुरक्षा और मैथुन करना पड़ता है क्योंकि ये शरीर की आवश्यकताएँ हैं. लेकिन वह ये गतिविधियाँ विनियमित विधि से करता है. उसे कृष्ण प्रसाद खाना होता है. उसे विनियमित सिद्धांतों के अनुसार सोना होता है. सिद्धांत नींद की अवधि को कम करने और खाना कम करने के लिए है, केवल शरीर को चुस्त रखने के लिए जो आवश्यक है वह लेना. संक्षिप्त में, लक्ष्य आध्यात्मिक प्रगति है, ना कि इंद्रिय तुष्टि. समान रूप से, यौन जीवन भी कम किया जाना चाहिए. यौन जीवन का उद्धेश्य केवल कृष्ण चैतन्य संताने प्राप्त करना होता है. अन्यथा यौन जीवन की कोई आवश्यकता नहीं होती. कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है, लेकिन उच्चतर उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, सभी को युक्त, विनियमित बनाया गया है. जीवन जीने के इन सभी नियमों और विनियमों का पालन करके, व्यक्ति शुद्ध हो जाता है, और अज्ञानता के वशीभूत सारी भ्रांतियाँ शून्य हो जाती हैं. यहाँ विशिष्ट रूप से बताया गया है कि भौतिक उलझन के कारणों को पूर्ण रूप से वश में कर लिया जाता है. संस्कृत कथन अनर्थ-निवृत्ति सूचित करता है कि यह शरीर अवांछित है. हम आत्मा हैं, और इस शरीर की कोई भी आवश्यकता कभी नहीं थी. लेकिन चूँकि हम भौतिक शरीर का आनंद लेना चाहते थे, हमें यह शरीर, भगवान के परम व्यक्तित्व के निर्देश के अधीन भौतिक ऊर्जा के माध्यम से मिला. जैसे ही हम परम भगवान के सेवक के रूप में हमारी मूल स्थिति में पुनर्स्थापित हो जाते हैं, हम शरीर की आवश्यकताओं को भूलने लगते हैं, और अंततः हम शरीर को भूल जाते हैं. कभी-कभी किसी स्वप्न में हमें किसी विशेष प्रकार का शरीर मिल जाता है जिसके माध्यम से स्वप्न में कार्य करना होता है. मैं स्वप्न देख सकता हूँ कि मैं आकाश में उड़ रहा हूँ या यह कि मैं वन में या किसी अज्ञात स्थान पर चला गया हूँ. लेकिन जैसे ही मैं जागता हूँ मैं इन शरीरों को भूल जाता हूँ. उसी प्रकार, जब कोई कृष्ण चैतन्य, पूर्ण समर्पित हो जाता है, वह अपने सभी शारीरिक परिवर्तनों को भूल जाता है. हम, जन्म के समय अपनी माता की कोख से प्रारंभ करके हमेशा शरीर बदलते रहते हैं. लेकिन जब हम कृष्ण चैतन्य में जागृत होते हैं, हम इन सभी शरीरों को भूल जाते हैं. शारीरिक आवश्यकताएँ गौण हो जाती हैं, क्योंकि प्राथमिक आवश्यकता आत्मा का वास्तविक, आध्यात्मिक जीवन में रत होना होता है. संपूर्ण कृष्ण चेतना में भक्ति सेवा की गतिविधियाँ परलोक में हमारे होने का कारण होती हैं. भगवते आत्मा-संस्राय परमात्मा, या सभी की आत्मा के रूप में भगवान के परम व्यक्तित्व की सूचना देता है. भगवद्-गीता में कृष्ण कहते हैं, बीजं मम सर्व-भूतानाम: “मैं सभी जीवों का बीज हूँ.” भक्ति सेवा की प्रक्रिया द्वारा परम आत्मा की शरण लेकर, व्यक्ति पूर्ण रूप से भगवान के व्यक्तित्व की अवधारणा में स्थापित हो जाता है. जैसा कि कपिल द्वारा वर्णन किया गया है,मद-गुण-श्रुति-मात्रेना: वह जो पूर्ण रूप से कृष्ण चैतन्य है, भगवान के व्यक्तित्व में स्थित है, वह जैसे ही भगवान के पारलौकिक गुणों के बारे में सुनता है, तुरंत भगवान के प्रेम से संतृप्त हो जाता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 33- पाठ 26