जो लोग शुद्ध कृष्ण चेतना में स्थित नहीं होते हैं, उनका रुझान हमेशा अवैध यौन संबंध, मांसाहार और मद्यपान के रूप में भौतिक इन्द्रियतृप्ति की ओर होता है। वे बस खाने-पीने और मौज-मस्ती का पार्टी वाला जीवन चाहते हैं। ऐसे भौतिकवादी व्यक्ति इस प्रकार की अस्थायी तुष्टि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते हैं क्योंकि वे जीवन की शारीरिक अवधारणा में मजबूती से बंधे हुए होते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए कर्मकांडों हेतु अनेक वैदिक निर्देश हैं जो एक विनियमित विधि से भौतिक इन्द्रिय सुख प्रदान करते हैं। इस प्रकार बद्धजीव वैदिक जीवन पद्धति का पालन करते हुए नियंत्रित इन्द्रियतृप्ति की तपस्या को स्वीकार करके परोक्ष रूप से परम भगवान की उपासना करने का अभ्यस्त हो जाता है। शुद्धिकरण के माध्यम से जीव धीरे-धीरे एक उच्चतर रुचि विकसित कर लेता है और भगवान की आध्यात्मिक प्रकृति से सीधे आकर्षित होता है।

स्रोत: अभय चरणारविंद. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद्भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 11.

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