इंद्रिय तुष्टि की वैदिक प्रक्रिया की योजना इस प्रकार बनाई गई है कि व्यक्ति अंततः मुक्ति पा सके.

जीवन के चार सिद्धांत व्यक्ति को धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीने की अनुमति देते हैं, समाज में अपने पद के अनुसार धन कमाना, विनियमों के अनुसार इंद्रियों को भाव वस्तुओं का आनंद लेने देना, और इस भौतिक बंधन से मुक्ति के पथ पर प्रगति करना. जब तक शरीर है, तब तक इन सभी भौतिक हितों से पूर्णतः स्वतंत्र होना संभव नहीं है. यद्यपि ऐसा नहीं है कि व्यक्ति केवल इंद्रिय तुष्टि के लिए ही कर्म करता है और सारे धार्मिक सिद्धांतों को त्याग कर, धन केवल उसी उद्देश्य से कमाता है. वर्तमान समय में, मानव सभ्यता धार्मिक सिद्धांतों की चिंता नहीं करती. यद्यपि, वह बिना धार्मिक सिद्धांतों के आर्थिक विकास में बहुत रुचि रखती है. उदाहरण के लिए, किसी वधशाला में कसाई को निश्चित ही सरलता से धन मिल जाता है, लेकिन ऐसा व्यवसाय धार्मिक सिद्धांतों पर आधारित नहीं है. उसी प्रकार, इंद्रिय तुष्टि के लिए बहुत सारे नाइट क्लब और मैथुन के लिए वेश्यालय हैं. वैवाहिक जीवन में मैथुन निश्चित ही अनुमत है, लेकिन वेश्यावृत्ति प्रतिबंधित है क्योंकि हमारी सभी गतिविधियाँ अंततः मुक्ति के लिए लक्षित हैं, भौतिक अस्तित्व के पंजों से स्वतंत्रता पर लक्षित हैं. उसी समान, यद्यपि सरकार मदिरा की दुकान को लायसेंस देती होगी, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि मदिरा की दुकानें बिना रोक-टोक खुलनी चाहिए और अवैध मदिरा की तस्करी होनी चाहिए. लायसेंस का उद्देश्य नियंत्रण रखना होता है. किसी को भी शक्कर, गेहूँ या दूध के लिए लायसेंस की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि इन वस्तुओं पर प्रतिबंध की आवश्यकता नहीं है. दूसरे शब्दों में, इसकी अनुशंसा की जाती है कि व्यक्ति को ऐसा कर्म नहीं करना चाहिए जो आध्यात्मिक जीवन में प्रगति और मुक्ति की नियमित प्रक्रिया को बाधित करे. इसलिए इंद्रिय तुष्टि की वैदिक प्रक्रिया को ऐसी विधि से योजित किया गया है कि व्यक्ति आर्थिक विकास कर सके और इंद्रिय तुष्टि का आनंद ले सके और तब भी अंततः मुक्ति प्राप्त करे. वैदिक सभ्यता हमें शास्त्रों का समस्त ज्ञान प्रदान करती है, और यदि हम शास्त्रों और गुरुओं के निर्देशन में एक नियमित जीवन जिएँ, तो हमारी सभी भौतिक कामनाएँ पूर्ण होंगी; साथ ही हम मुक्ति की ओर आगे भी बढ़ सकेंगे.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 22- पाठ 34