जो दूसरों के कल्याण की गतिविधि में रत होते हैं वे भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा बहुत शीघ्र पहचान लिए जाते हैं. भगवद्-गीता (18.68-69) में भगवान कहते हैं, य इदं परमं गुह्यं मद्भ‍क्तेष्वभिधास्यति. .. न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: : “जो मेरे भक्तों को भगवद्-गीता के संदेश का प्रवचन करता है, वह मुझे सबसे प्रिय है. कोई भी उपासना द्वारा मुझे संतुष्ट करने में उससे श्रेष्ठ नहीं हो सकता.” इस भौतिक संसार में विभिन्न प्रकार की कल्याणकारी गतिविधियाँ हैं, किंतु कृष्ण चेतना का प्रसार करना परम कल्याणकारी गतिविधि है. अन्य कल्याणकारी गतिविधियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं, क्योंकि प्रकृति के नियमों और कर्म के परिणामों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता. ऐसा नियति, या कर्म के नियम द्वारा है, कि व्यक्ति को कष्ट या आनंद भोगना होता है. उदाहरण के लिए, यदि व्यक्ति को न्यायालय का आदेश मिलता है, तो उसे स्वीकार करना ही पड़ता है, भले ही उससे कष्ट हो या लाभ हो. उसी प्रकार, सभी लोग कर्म और उसकी प्रतिक्रियाओं के अधीन होते हैं. कोई भी इसे परिवर्तित नहीं कर सकता. इसलिए शास्त्र कहता है:

तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यध: (भाग. 1.5.18)

व्यक्ति को उसके लिए प्रयास करना चाहिए जो कर्म की प्रतिक्रियाओं के परिणाम के रूप में ब्रम्हांड में आगे-पीछे भटकने से कभी नहीं मिलता. वह क्या है? व्यक्ति को कृष्ण चैतन्य बनने का प्रयास करना चाहिए. यदि व्यक्ति समस्त संसार में कृष्ण चेतना का प्रसार करने का प्रयास करता है, तो उसे सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि संपन्न करता हुआ समझा जाना चाहिए. भगवान उससे स्वतः ही बड़े प्रसन्न हो जाते हैं. यदि भगवान उससे प्रसन्न हैं, तो उसे और क्या अर्जित करना है? यदि व्यक्ति को भगवान द्वारा पहचान लिया जाता है, भले ही उसने भगवान से कुछ न माँगा हो, भगवान, जो प्रत्येक के भीतर हैं, उसे वह सब प्रदान करते हैं जो भी वह चाहता है. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता में भी की गई है (तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्). फिर से, जैसा कि यहाँ व्यक्त किया गया है, तप्यन्ते लोकतापेन साधव: प्रायशो जना: . सबसे श्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि लोगों को कृष्ण चेतना के स्तर पर ले आना है, क्योंकि बद्ध आत्माएँ केवल कृष्ण चेतना की चाह में कष्ट भोग रही हैं. इसलिए, सभी शास्त्रों का निष्कर्ष है कि कृष्ण चेतना के प्रसार का आंदोलन संसार की सबसे श्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि है. चूँकि सामान्य लोगों को इससे परम लाभ मिलता है, भगवान किसी भक्त के द्वारा की गई ऐसी सेवा को शीघ्रता से पहचान लेते हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 7 – पाठ 44

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