न ही मृत्यु और न ही जीवन की प्रशंसा करनी चाहिए.

“भौतिक संसार में जीव, न केवल वर्तमान में बल्कि भूतकाल में भी, जन्म और मृत्यु की गुत्थी सुलझाने में शामिल रहे हैं. कुछ मृत्यु पर बल देते हैं और समस्त भौतिक मायावी अस्तित्व पर अंगुली उठाते हैं, जबकि अन्य जीवन पर बल देते हैं, उसे अनंतकाल के लिए बनाए रखना चाहते हैं और उनकी योग्यता की सीमा तक उसका भोग करना चाहते हैं. वे दोनों ही मूर्ख और बौड़म हैं. चूँकि भौतिक शरीर का नाश होना निश्चित है और व्यक्ति के जीवन की अवधि तय नहीं है, तो न मृत्यु की और न ही जीवन की प्रशंसा करना चाहिए. ऐसा सुझाव दिया गया है कि व्यक्ति को शाश्वत समय का अवलोकन करना चाहिए, जो भौतिक शरीर के प्रकट होने और खो जाने का कारण होता है, और व्यक्ति को इस समय में जीव के उलझाव का अवलोकन करना चाहिए. इसलिए श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपनी गीतावली में गाते हैं:

अनादि करम-फले, पड़ी भवर्णव-जले,
तरिबरे न देखी उपाय

व्यक्ति को शाश्वत समय की गतिविधियों का अवलोकन करना चाहिए, जो कि जन्म और मृत्यु का कारण है. वर्तमान सहस्त्राब्दि की रचना से पहले, जीव समय चक्र के प्रभाव के अधीन थे, और समय चक्र के भीतर ही भौतिक संसार अस्तित्व में आता है और फिर से नष्ट हो जाता है. भूत्वा भूत्वा प्रलियते. समय चक्र के नियंत्रण में रहते हुए, जीव जन्मों-जन्मों तक उत्पन्न होते और मरते हैं. यह समय चक्र भगवान के परम व्यक्तित्व का अवैयक्तिक प्रतिनिधित्व है, जो भौतिक प्रकृति से बद्ध जीवों को उनकी शरण में आकर इस प्रकृति से उभरने का अवसर देते हैं. ”

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 06