साधना-सिद्ध और कृपा-सिद्ध भक्तों में क्या अंतर होता है?

दो प्रकार के उच्च स्तर के भक्त होते हैं, जिन्हें साधना-सिद्ध और कृपा-सिद्ध कहा जाता है. साधना-सिद्ध वह है जो शास्त्रों में उल्लिखित नियमों का नियमित पालन करते हुए भक्त बना है, जैसा आध्यात्मिक गुरु द्वारा आदेश और निर्देश दिया गया है. यदि व्यक्ति नियमित रूप से ऐसी भक्ति सेवा का पालन करता है, तो वह उचित समयावधि में निश्चित ही पूर्णता प्राप्त करेगा. किंतु अन्य भक्त होते हैं, जिन्होंने भक्ति सेवा के सभी आवश्यक विवरणों को नहीं देखा हो सकता है, लेकिन जिन्होंने गुरु और कृष्ण– आध्यात्मिक गुरु और भगवान के परम व्यक्तित्व की विशेष दया से तत्काल विशुद्ध भक्ति सेवा की पूर्णता प्राप्त की है. ऐसे भक्तों के उदाहरण यज्ञ-पत्नी, महाराज बाली और शुकदेव गोस्वामी हैं. यज्ञ- पत्नियाँ आनंददायी गतिविधियों में लगे ब्राम्हणों की सामान्य पत्नियाँ थीं. भले ही ब्राम्हण वैदिक ज्ञान में बहुत समझदार और उन्नत थे, उन्हें कृष्ण-बलराम की दया प्राप्त नहीं हो सकी, जबकि उनकी पत्नियों ने, स्त्रियाँ होने पर भी, भक्ति सेवा में संपूर्ण दक्षता अर्जित की. उसी प्रकार, वैरोचनी, बाली महाराज, को प्रह्लाद महाराज की कृपा प्राप्त हुई और प्रह्लाद महाराज की कृपा से उन्हें भगवान विष्णु की कृपा भी प्राप्त हुई, जो उनके समक्ष ब्रम्हचारी भिक्षु के रूप में प्रकट हुए थे. इस प्रकार बाली महाराज गुरु और कृष्ण दोनों की विशेष कृपा से एक कृपा-सिद्ध बने. चैतन्य महाप्रभु इस कृपा की पुष्टि करते हैं : गुरु-कृष्ण प्रसादे पाया भक्ति-लता-बीज (cc.मध्य 19.151). प्रह्लाद महाराज की कृपा से बाली महाराज को भक्ति सेवा का बीज मिला, और जब वो बीज विकसित हुआ, उन्होंने उस सेवा का परम फल प्राप्त किया, भगवान वामन देव के प्रकट होने पर तत्काल परम भगवान का प्रेम (प्रेम पुम-अर्थो महान) प्राप्त किया. बाली महाराज नियमित रूप से भगवान के प्रति समर्पण बनाए रखते थे, और चूँकि वे शुद्ध हो गए थे, भगवान उनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान के लिए शुद्ध प्रेम के कारण, उन्होंने तुरंत तय किया, “मैं इस नन्हे बौने ब्राम्हण को वह सब दूँगा जो भी वह मुझसे माँगे.” यह प्रेम का एक चिन्ह है. इसलिए बाली महाराज को वह माना जाता है जिन्हें विशेष कृपा से भक्ति सेवा की उच्चतम दक्षता प्राप्त हुई थी.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 20 – पाठ 3