स्मृति और विस्मृति कृष्ण से ही आती है.

माया व्यक्ति द्वारा अपने शरीर की पहचान आत्म से करने और शरीर से संबंधित वस्तुओं के स्वामित्व का निश्चय का मिथ्या अहंकार है. भगवद् गीता, अध्याय पंद्रह में, भगवान कहते हैं, “मैं सबके हृदय में स्थित हूँ, और मुझसे ही सभी की स्मृति और विस्मृति आती है. देवाहुति ने कहा है कि शरीर की आत्म के साथ झूठी पहचान और शारीरिक आधिपत्य के प्रति आसक्ति भी भगवान के निर्देश के अंतर्गत ही होती हैं. क्या इसका अर्थ है कि भगवान किसी एक को अपनी भक्ति सेवा में लगा कर और अन्य को इंद्रिय तुष्टि में लगाकर भेद-भाव करते हैं? यदि ऐसा सच होता, तो वह भगवान की अयोग्यता नहीं है, बल्कि ऐसा वास्तविक सच नहीं है. जैसे ही प्राणी भगवान के प्रति अपनी शाश्वत सेवा की वास्तविक वैधानिक स्थिति को भूल जाता है और उसके स्थान पर स्वयं इंद्रिय तुष्टि का आनंद लेना चाहता है, तो वह माया के पाश में फंस गया है. यह पाश शरीर के साथ झूठी पहचान और शरीर के आधिपत्य की आसक्ति की चेतना की ओर ले जाता है. ये माया की गतिविधियाँ हैं, और चूँकि माया भगवान की दूत भी है, तो वह अप्रत्यक्ष रूप से भगवान का ही कार्य है. भगवान दयालु हैं; यदि कोई उन्हें भूलना चाहता है और इस भौतिक संसार का आनंद लेना चाहता है, तो वे उसे पूरी सुविधा देते हैं, सीधे नहीं बल्कि उनके भौतिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से. इसलिए, चूँकि भौतिक पौरुष भगवान की ऊर्जा है, अप्रत्यक्ष रूप से वे भगवान ही हैं जो उन्हें भूलने की सुविधा देते हैं. इसीलिए देवाहुति कहति हैं, “इंद्रिय तुष्टि में मेरी संलग्नता भी आपके ही कारण है. अब कृपा करके मुझे इस उलझाव से मुक्त करें.” भगवान की कृपा से व्यक्ति को इस भौतिक संसार को भोगने की अनुमति होती है, लेकिन जब व्यक्ति भौतिक भोग से विरुचित हो जाता है और निराश हो जाता है, और जब व्यक्ति गंभीरता से भगवान के चरण कमलों में समर्पित हो जाता है, तब भगवान इतने दयालु होते हैं कि तब वे उसे उलझनों से मुक्त कर देते हैं. इसलिए कृष्ण भगवद्-गीता में कहते हैं, “सबसे पहले समर्पण करो, और फिर मैं तुम्हारा उत्तरदायित्व लूंगा और तुम्हें पापमय कर्मों की प्रतिक्रिया से मुक्त कर दूंगा.” पापमय कर्म वे होते हैं जो भगवान से हमारे संबंध की विस्मृति में किए जाते हैं. इस भौतिक संसार में, पवित्र मानी जाने वाली भौतिक सुख की गतिविधियाँ भी पापमय होती हैं. उदाहरण के लिए, व्यक्ति कभी-कभी किसी अभावग्रस्त व्यक्ति को दान में धन देता है इस आशा के साथ कि उसे चार गुना बढ़ कर धन मिलेगा. किसी वस्तु के लाभ के उद्देश्य से दान करना वासना की अवस्था में दान कहलाता है. ऐसे में जो भी किया गया वह भौतिक प्रकृति की अवस्था में किया गया है, और इसलिए भगवान की सेवा के अतिरिक्त सारे कर्म पापमय होते हैं. पापमय गतिविधियों के कारण हम भौतिक बंधनों के भ्रम की ओर आकृष्ट हो जाते हैं, और हम सोचते हैं, “मैं यह शरीर हूँ.” मैं शरीर को आत्म मानकर और शारीरिक सुविधाओं को “मेरा” के रूप में सोचता हूँ. देवाहुति ने भगवान कपिल से उसे झूठी पहचान और झूठे स्वामित्व के बंधन से मुक्त करने का अनुरोध किया था.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 64 व 65