वास्तव में भक्ति स्वतः और सहज होनी चाहिए. कृष्ण की सेवा में कोई हेतु नहीं होना चाहिए, लेकिन यदि कोई हेतु हो भी, तो कृष्ण के प्रति की गई सेवा अच्छी है. भले ही कोई कृष्ण के पास किसी परोक्ष अभिप्राय से जाता है, तो भी व्यक्ति को पवित्र माना जाता है. उदाहरण के लिए, पहले ध्रुव महाराज कृष्ण की पूजा किसी प्रयोजन के लिए करते थे, लेकिन भक्ति सेवा में पूर्णता प्राप्त करने के बाद, उनके अप्रत्यक्ष प्रयोजन विलुप्त हो गए. जब उन्होंने वास्तव में कृष्ण के दर्शन किए, तो कहा, “मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहता. मैं आपकी भक्ति के इतर कोई वरदान नहीं चाहता.” कृष्ण की अनेक पारलौकिक विशेषताओं के बारे में सुनने के बाद, यदि हम किसी प्रकार से कृष्ण चेतना से आकृष्ट हो जाते हैं, तो हमारे जीवन सफल हो जाते हैं. तस्मत् केनपि उपायेन मनः कृष्णेनिवेसयेत. “हमें किसी प्रकार से अपने चित्त को कृष्ण चेतना से जोड़ना होगा.” (भगवद गीता 7.1.32) फिर कृष्ण हमारी सहायता करेंगे और हमें भीतर से बुद्धि प्रदान करेंगे.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ.181

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