ब्राम्हण और वैष्णव किसी अन्य के व्यय पर नहीं रहते.

चूँकि ब्राम्हण और वैष्णव भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष सेवक होते हैं, वे अन्य लोगों पर आश्रित नहीं रहते. वास्तविकता में, संसार में उपलब्ध सब-कुछ ब्राम्हणों का ही है, और अपनी विनम्रता के कारण ब्राम्हण क्षत्रियों, या राजाओं, और वैश्यों, या व्यापारियों से दान स्वीकार करते हैं. सब कुछ ब्राह्मणों का है, लेकिन क्षत्रिय शासक और व्यापारी लोग सब कुछ संभाल कर रखते हैं, किसी बैंकर के समान, और जब भी ब्राम्हणों को धन की आवश्यकता होती है, क्षत्रिय और वैश्यों को वह प्रदान करना चाहिए. यह धन के साथ बचत खाते के समान है जिसे जमा करने वाला अपनी इच्छा से निकाल सकता है. भगवान की सेवा में रत रहते हुए ब्राम्हणों को संसार के धन को संभालने का समय बहुत कम होता है, और इसीलिए धन को क्षत्रियों, या राजाओं द्वारा रखा जाता है, जिन्हें ब्राम्हणों की माँग पर धन उपलब्ध करना होता है. वास्तव में ब्राम्हण या वैष्णव किसी अन्य के व्यय पर नहीं रहते; वे स्वयं अपना धन व्यय करके जीवन जीते हैं, यद्यपि ऐसा लगता है कि वे यह धन अन्य लोगों से संग्रह कर रहे हैं. क्षत्रिय और वैश्यों को दान करने का कोई अधिकार नहीं होता है, क्योंकि जो कुछ भी उनके अधिकार में है वह ब्राम्हणों का ही है. इसलिए क्षत्रियों और वैश्यों द्वारा ब्राम्हणों के निर्देशन में दान दिया जाना चाहिए. दुर्भाग्य से वर्तमान समय में ब्राम्हणों की कमी है, और चूँकि तथा-कथित क्षत्रिय और वैश्य ब्राम्हणों के आदेशों का पालन नहीं करते, संसार एक अराजक अवस्था में है.

स्रोत: अभय भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 22- पाठ 46