भगवान चैतन्य व्यक्ति सदैव प्रसन्न और विजयी होता है.

राजनीति, राजनय, छल करने की प्रवृत्ति, और जो कुछ भी हम इस संसार में व्यक्तियों और दो पक्षों के बीच सामाजिक व्यवहार में पाते हैं, वे उच्चतर ग्रह मंडलों में भी उपस्थित होता है. देवता बाली महाराज के पास अमृत निर्मित करने का प्रस्ताव लेकर गए, और दैत्यों ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया, यह सोचकर कि चूँकि देवता पहले से ही अशक्त हैं, तो जब अमृत निर्मित होगा तो वे उनसे छीन लेंगे और स्वयं अपने लाभ के लिए उसका उपयोग करेंगे. निस्संदेह, देवताओं की मंशा भी समान थी. एकमात्र अंतर यही है कि परम भगवान के व्यक्तित्व, भगवान विष्णु, देवताओं की ओर थे क्योंकि देवता उनके भक्त थे, जबकि दैत्य भगवान विष्णु की चिंता नहीं करते थे. पूरे ब्रम्हांड में दो पक्ष होते हैं–विष्णु पक्ष, या भगवान-चैतन्य पक्ष, और भगवान विहीन पक्ष. भगवान विहीन पक्ष कभी भी प्रसन्न या विजयी नहीं होते, किंतु भगवान चैतन्य पक्ष हमेशा प्रसन्न और विजयी होता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 31