एक भक्त को बहुत सादा जीवन जीना चाहिए और विपरीत तत्वों के द्वैत से बाधित नहीं होना चाहिए.

भक्त की एक और विशेषता होती है निरीहय, सादा जीवन. निरीह का अर्थ “कोमल,” “नम्र” या “सरल” होता है. एक भक्त को बहुत भव्यता के साथ नहीं रहना चाहिए और किसी भौतिकवादी व्यक्ति की नकल नहीं करना चाहिए. भक्त के लिए सादा जीवन और विचार अनुशंसित होता है. उसे बस उतना ही स्वीकार करना चाहिए जितना उसे भक्ति सेवा करने के लिए भौतिक शरीर को चुस्त रखने के लिए आवश्यक हो. उसे आवश्यकता से अधिक खाना या सोना नहीं चाहिए. केवल जीवन जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना, और केवल छः या सात घंटों के लिए सोना वह सिद्धांत हैं जिनका पालन भक्तों को करना होता है. जब तक शरीर रहता है वह भौतिक अस्तित्व के त्रिविध कष्ट, ऋतु परिवर्तन के प्रभावों, रोगों और प्राकृतिक व्यवधानों, के अधीन होता है. हम उन्हें टाल नहीं सकते. यह द्वैत का संसार है. किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वह रोगी हो गया है तो वह कृष्ण चेतना से पतित हो गया है. कृष्ण चेतना किसी भी भौतिक विरोध की बाधा के बिना जारी रह सकती है. इसलिए भगवान श्रीकृष्ण भगवद गीता (2.14) में सुझाव देते हैं, तम तितीक्ष्व भारत: “मेरे प्रिय अर्जुन, इन सभी व्यवधानों को सहन करने का प्रयास करो. अपनी कृष्ण चेतना की गतिविधियों पर स्थिर रहो.”

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 22- पाठ 24