समुद्र मंथन द्वारा सबसे पहले बहुत बड़ी मात्रा में विष निर्मित होता है.

इस समझ के साथ कि जब समुद्र मंथन द्वारा अमृत निकाला जाएगा वे इसे आपस में समानता से साझा करेंगे, देवता और दैत्य वासुकी को मथनी की रस्सी के रूप में उपयोग करने के लिए ले आए. भगवान के परम व्यक्तित्व की दक्ष व्यवस्था द्वारा, दैत्यों ने नाग को मुख के पास से पकड़ा, जबकि देवताओं ने उस महाकाय सर्प की पूँछ पकड़ी. फिर, बहुत प्रयास के साथ, उन्होंने सर्प को दोनों दिशाओं में खींचना आरंभ किया. चूँकि मथनी, मंदार पर्वत बहुत भारी था और पानी में किसी भी सहारे के बिना रखा गया था, वह सागर में डूब गया, और इस प्रकार दैत्यों और देवताओं दोनों की शक्ति समाप्त हो गई. फिर भगवान के परम व्यक्तित्व एक कछुए के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने मंदार पर्वत को अपनी पीठ का सहारा दिया. उसके बाद मंथन पूरी गति से दोबारा प्रारंभ हुआ. मंथन के परिणाम बहुत बड़ी मात्रा में विष उत्पन्न हुआ. यह देख कर कि उन्हें और कोई नहीं बचाएगा, प्रजापति भगवान शिव के पास पहुँचे और उनसे सच्ची प्रार्थना की. भगवान शिव को आशुतोष कहा जाता है क्योंकि यदि कोई उनका भक्त हो तो वे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं. इसलिए वे मंथन द्वारा निकले सारे विष को पीने के लिए सरलता से सहमत हो गए. जब भगवान शिव विष पीने के लिए सहमत हुए तो भगवान शिव की पत्नी, देवी दुर्गा भवानी बिलकुल भी विचलित नहीं हुईं, क्योंकि वे भगवान शिव की शक्ति को जानती थीं. निस्संदेह, उन्होंने इस सहमति पर प्रसन्नता व्यक्त की. तब भगवान शिव ने विनाशकारी विष को इकट्ठा किया, जो हर स्थान पर फैला था. उन्होंने अपने हाथ में लेकर उसे पी लिया. विष पीने के बाद, उनकी ग्रीवा नीली पड़ गई. उनके हाथ से थोड़ी सी मात्रा में विष धरा पर गिर पड़ा, और इसी विष के कारण ही विषैले सर्प, बिच्छू, विषैले पौधे और अन्य विषैली चीज़ें इस संसार में हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 7 – परिचय