व्यक्ति को जन्म के अनुसार ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद्र के रूप में नहीं स्वीकारा जाना चाहिए.

यहाँ नारद मुनि द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति को जन्म के अनुसार ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद्र के रूप में नहीं स्वीकारा जाना चाहिए, क्योंकि यद्यपि ऐसा हो रहा है, इसे शास्त्रों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता. जैसा कि भगवद्- गीता (4.13) में कहा गया है, चतुर्-वर्ण्यम माया सृष्टम गुण-कर्म-विभागसः. इसलिए समाज के चार विभागों–ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र–का निर्धारण गुणों और गतिविधियों के अनुसार किया जाना चाहिए. यदि किसी का जन्म ब्राम्हण परिवार में हुआ था और उसने ब्राम्हण के गुण ग्रहण किए हैं, तो उसे ब्राम्हण के रूप में स्वीकारा जाए; अन्यथा, उसे ब्रम्ह-बंधु समझा जाना चाहिए. उसी प्रकार, यदि एक शूद्र ब्राम्हण के गुण अर्जित करता है, भले ही उसने शूद्र परिवार में जन्म लिया था, वह शूद्र नहीं है; क्योंकि उसने एक ब्राम्हण के गुण विकसित कर लिए हैं, उसे एक ब्राम्हण के रूप में स्वीकार करना चाहिए. कृष्ण चेतना आंदोलन का उद्देश्य इन ब्राम्हणीय गुणों का विकास करना है. चाहे व्यक्ति किसी भी समुदाय में जन्मा हो, यदि व्यक्ति ब्राम्हण के गुण विकसित कर लेता है तो उसे उसे एक ब्राम्हण के रूप में स्वीकार करना चाहिए, और फिर उसे सन्यास अवस्था का प्रस्ताव दिया जा सकता है. जब तक कि व्यक्ति ब्राम्हणीय लक्षणों के संबंध में योग्य न हो, वह सन्यास नहीं ले सकता. किसी व्यक्ति को ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नियत करने में जन्म आवश्यक लक्षण नहीं होता. यह ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है. यहाँ नारद मुनि विशिष्ट रूप से कहते हैं कि व्यक्ति को जाति के अनुसार स्वीकार किया जा सकता है यदि उसमें संबंधित गुण हों, किंतु अन्यथा नहीं. वह जिसने एक ब्राम्हण के गुण अर्जित कर लिए हैं, चाहे वह कहीं भी जन्मा हो, उसे ब्राम्हण के रूप में स्वीकारना चाहिए. उसी प्रकार, यदि व्यक्ति ने किसी शूद्र या किसी चांडाल के गुण विकसित किए हों, चाहे वह कहीं भी जन्मा हो, उसे उन लक्षणों के संदर्भ में ही स्वीकारा जाना चाहिए.

स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11- पाठ 35