दीक्षा के बाद, शिष्य को बहुत सावधान होना चाहिए कि वह कोई पापमय कर्म न करे.
कभी-कभी किसी शिष्य को स्वीकार लेने के बाद, आध्यात्मिक गुरु को उस शिष्य के पिछले पापमय कर्मों का उत्तरदायित्व लेना पड़ता है और, अधिक भार के कारण, शिष्य के पापमय कृत्यों के लिए कभी-कभी कष्ट उठाना पड़ता है– यदि पूरा नहीं, तो फिर आंशिक. शिष्य की ओर से स्वीकारे गए पापमय प्रतिक्रियाओं का सामना करने के लिए उसे एक बुरा स्वप्न देखना पड़ता है. इस पर भी, आध्यात्मिक गुरु इतने दयालु होते हैं कि शिष्य के पापमय कृत्यों के परिणाम से बुरे स्वप्न के स्थान पर , वे कलि-युग के पीड़ियों की मुक्ति के लिए इस कष्टमय कार्य को स्वीकार कर लेते हैं. इसलिए दीक्षा के बाद, एक शिष्य को दोबारा किसी भी पापमय कार्य को करने के प्रति बहुत ही सावधान रहना चाहिए जिससे स्वयं उसके लिए और आध्यात्मिक गुरु के लिए कोई कठिनाई खड़ी हो जाए. देवता के सामने, अग्नि के सामने, आध्यात्मिक गुरु के सामने और वैष्णव के सामने, सद्चरित्र शिष्य पापमय गतिविधियों से दूर रहने का वचन देता है. इसलिए उसे फिर से पापमय कर्म करना और इस प्रकार कष्टमय परिस्थिति पैदा नहीं करनी चाहिए. भला आध्यात्मिक गुरु पर्याप्त कृपालु और दयालु होता है जो शिष्य को स्वीकारता है और शिष्य के पाप कर्मों का आंशिक फल भोगता है, किंतु अपने सेवक के प्रति दयालु होने के नाते कृष्ण उन सेवकों के लिए पापमय कृत्यों के परिणामों को निष्प्रभावी कर देते हैं जो उनकी महिमा के प्रचार में रत होते हैं.
स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 15
अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 5