Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 8

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इस भौतिक संसार में प्रत्येक चरण पर जोखिम होता है.

इस भौतिक संसार का वर्णन पदम् पदम् यद् विपदाम् के रुप में किया जाता है, जिसका अर्थ है कि प्रत्येक चरण पर कोई विपदा है. एक मूर्ख त्रुटिपूर्वक ये सोचता है कि वह इस भौतिक संसार में प्रसन्न है, किंतु वास्तव में वह नहीं होता, क्योंकि जो ऐसा सोचता है वह केवल भ्रमित है. प्रत्येक चरण पर, प्रत्येक क्षण पर विपदा है. आधुनिक सभ्यता में व्यक्ति सोचता है कि यदि उसके पास एक अच्छा घर और एक बढ़िया कार है तो उसका जीवन पूर्ण है. यदि हम सचमुच सोचते हैं कि यह भौतिक संसार एक प्रसन्नता भरा स्थान है, तो यह हमारा अज्ञान है. वास्तविक ज्ञान यह है कि यह भौतिक संसार विपदा से भरा हुआ है. जहाँ तक हमारी बुद्धि साथ देती है हम अस्तित्व के लिए संघर्ष कर सकते हैं और स्वयं की देखभाल करने का प्रयास कर सकते हैं, किंतु जब तक भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण हमें विपदा से नहीं बचाते, हमारे प्रयास अऩुपोयोगी होंगे. इसलिए प्रह्लाद महाराज कहते हैं :

बालस्य नेह शरणम् पितरौ नृसिंह नर्तस्य चगदाम् उदन्वति मज्जतो नौह
तप्तस्य तत्-प्रतिविधर् य इहन्जशेस्तष तवद् विभो तनु-भ्रतम् तवद्-उपेक्षितानाम
(भाग. 7.9.19)

हम प्रसन्न होने की अथवा इस भौतिक संसार की विपदाओं का प्रतिकार करने की कई विधियाँ खोज सकते हैं, किंतु जब तक हमारे प्रयास भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा अनुमोदित नहीं होते, वे हमें प्रसन्न नहीं बना सकते. वे जो भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लिए बिना प्रसन्न होना चाहते हैं, वे मूढ़ होते हैं. न मम दुष्कृतिनो मूढ़ाः प्रपद्यंते नराधमः. वे जो मनुष्यों में सबसे नीच होते हैं, कृष्ण चेतना स्वीकार करने से मना करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे कृष्ण की देखभाल के बिना ही स्वयं की रक्षा कर सकते हैं. यह उनकी भूल है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 32

मृत्यु का भय सभी को लगता है.

भगवद्-गीता में भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं, मृत्यु सर्व-हारस चहम : “मैं सब कुछ को निगल जाने वाला मृत्यु हूँ. ” इसलिए मृत्यु वह प्रतिनिधि है जो उस जीव से सबकुछ ले जाता है जिसने एक भौतिक शरीर ले रखा है. कोई भी नहीं कह सकता, “मुझे मृत्यु का भय नहीं है.” यह एक मिथ्या प्रस्ताव है. सभी को मृत्यु से डर लगता है. तथापि, वह जो भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लेता है, उसे मृत्यु से बचाया जा सकता है. कोई यह तर्क कर सकता है, “क्या भक्त नहीं मरते?” उत्तर है कि भक्त को निश्चित ही शरीर छोड़ना होता है, क्योंकि शरीर भौतिक है. यद्यपि, अंतर यह है कि, उसके लिए जो संपूर्ण रूप से कृष्ण को समर्पित है और जिसकी सुरक्षा कृष्ण करते हैं, उसके लिए वर्तमान शरीर अंतिम होता है; उसे दोबारा भौतिक शरीर नहीं मिलेगा जो कि मृत्यु के अधीन होता है. यह भगवद्-गीता (4.9) में सुनिश्चित किया गया है. त्यक्त्व देहं पुनर्जन्म नैति मम इति सो’र्जुनः : अपना शरीर त्यागने के बाद भक्त, कोई भौतिक शरीर नहीं स्वीकारता, बल्कि घर, वापस परम भगवान की ओर लौट जाता है. हम हमेशा खतरे में हैं क्योंकि किसी भी क्षण मृत्यु आ सकती है. ऐसा नहीं है कि केवल गजेंद्र, गजों के राजा को ही मृत्यु का भय था.

सभी को मृत्यु का भय होना चाहिए क्योंकि सभी को शाश्वत समय का मगरमच्छ पकड़ लेता है और वह किसी भी क्षण मृत्यु को प्राप्त हो सकते हैं. इसलिए कृष्ण, भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लेना, और इस भौतिक संसार में अस्तित्व के संघर्ष से बचना ही सबसे श्रेष्ठ है, जिसमें व्यक्ति बार-बार जन्म लेता और मरता है. इस ज्ञान तक पहुँचना ही जीवन का परम लक्ष्य है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 33

कभी-कभी जब कोई विकल्प नहीं होता, तो एक शुद्ध भक्त आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करता है.

अन्यभिलसिता-शून्यं ज्ञान-कर्मादि-अनवर्तम
अनुकुल्येन कृष्णनुसिलनम भक्तिर उत्तम

(भक्ति-रसामृत-सिंधु 1.1.11)

“व्यक्ति को अनुकूलता पूर्वक और फलकारी गतिविधियों या दार्शनिक अटकलों के माध्यम से भौतिक लाभ की इच्छा के बिना परम भगवान कृष्ण के प्रति पारलौकिक प्रेममयी सेवा निष्पादित करनी चाहिए. यह शुद्ध भक्ति सेवा कहलाती है.” विशुद्ध श्रद्धालु भगवान के परम व्यक्तित्व से कुछ भी नहीं माँगते. कभी-कभी, जब कोई विकल्प नहीं होता, तो एक शुद्ध भक्त, परम भगवान की दया पर निर्भर रहते हुए, किंचित आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करता है. किंतु ऐसी प्रार्थना में पछतावा भी होता है. जो व्यक्ति हमेशा भगवान की पारलौकिक लीलाओं का श्रवण और जाप करता है, वह हमेशा ऐसे स्तर पर स्थित होता है जहाँ उसे भौतिक लाभों के लिए कुछ भी माँगने की आवश्यकता नहीं होती.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 20 व 21

एक भक्त खतरे को एक सुअवसर के रूप में देखता है.

एक भक्त किसी घातक स्थिति को भी खतरनाक नहीं समझता, क्योंकि ऐसी घातक स्थिति में वह उत्साहपूर्वक, परम आनंद में भगवान की प्रार्थना कर सकता है. अतः एक भक्त खतरे को भी एक सुअवसर मानता है. तत् तेनुकंपम सुसमीक्षामनः. जब कोई भक्त बहुत खतरे में होता है, तो वह उस खतरे को भगवान की महान कृपा के रूप में देखता है क्योंकि वह भगवान का बड़ी गंभीरता और अविचलित ध्यान के साथ चिंतन करने का अवसर होता है. तत् तेनुकंपम सुसमीक्षामनो भुंजन एवात्म–कृतम विकपम (भगी. 10.14.8). उनके भक्त को ऐसी खतरनाक स्थिति में डालने के लिए वह भगवान के परम व्यक्तित्व को दोष नहीं देता. बल्कि, वह उस खतरनाक स्थिति को उसके ही पिछले कुकृत्यों का ही परिणाम मानता है और उसे भगवान की प्रार्थना करने का अवसर मानता है और ऐसे अवसर दिए जाने के लिए धन्यवाद देता है. जब कोई भक्त इस प्रकार से जीवनयापन करता है, तो उसकी मुक्ति–उसके वापस घर, परम भगवान तक जाने– की सुनिश्चितता होती है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 32

दीक्षा के बाद, शिष्य को बहुत सावधान होना चाहिए कि वह कोई पापमय कर्म न करे.

कभी-कभी किसी शिष्य को स्वीकार लेने के बाद, आध्यात्मिक गुरु को उस शिष्य के पिछले पापमय कर्मों का उत्तरदायित्व लेना पड़ता है और, अधिक भार के कारण, शिष्य के पापमय कृत्यों के लिए कभी-कभी कष्ट उठाना पड़ता है– यदि पूरा नहीं, तो फिर आंशिक. शिष्य की ओर से स्वीकारे गए पापमय प्रतिक्रियाओं का सामना करने के लिए उसे एक बुरा स्वप्न देखना पड़ता है. इस पर भी, आध्यात्मिक गुरु इतने दयालु होते हैं कि शिष्य के पापमय कृत्यों के परिणाम से बुरे स्वप्न के स्थान पर , वे कलि-युग के पीड़ियों की मुक्ति के लिए इस कष्टमय कार्य को स्वीकार कर लेते हैं. इसलिए दीक्षा के बाद, एक शिष्य को दोबारा किसी भी पापमय कार्य को करने के प्रति बहुत ही सावधान रहना चाहिए जिससे स्वयं उसके लिए और आध्यात्मिक गुरु के लिए कोई कठिनाई खड़ी हो जाए. देवता के सामने, अग्नि के सामने, आध्यात्मिक गुरु के सामने और वैष्णव के सामने, सद्चरित्र शिष्य पापमय गतिविधियों से दूर रहने का वचन देता है. इसलिए उसे फिर से पापमय कर्म करना और इस प्रकार कष्टमय परिस्थिति पैदा नहीं करनी चाहिए. भला आध्यात्मिक गुरु पर्याप्त कृपालु और दयालु होता है जो शिष्य को स्वीकारता है और शिष्य के पाप कर्मों का आंशिक फल भोगता है, किंतु अपने सेवक के प्रति दयालु होने के नाते कृष्ण उन सेवकों के लिए पापमय कृत्यों के परिणामों को निष्प्रभावी कर देते हैं जो उनकी महिमा के प्रचार में रत होते हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 15
अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , नवाँ सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 5

हरे कृष्णा संकीर्तन आंदोलन कब तक जारी रहेगा?

कलि-युग प्रदूषण से भरा हुआ है. इसका वर्णन श्रीमद्-भागवतम् (12.3.51) में किया गया है :

कालेर् दोष-निधे राजन अस्तिह्य एको महान गुणः
कीर्तनाद् एव कृष्णेस्य मुक्त-संगः परम व्रजेत

यह कलि का युग असीमित दोषों से भरा हुआ है. वस्तुतः यह बिलकुल किसी दोषों के समुद्र (दोष निधि) के समान है. किंतु एक अवसर है. कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्त-संगः परम व्रजेत : केवल हरे कृष्ण मंत्र का जाप करने से, व्यक्ति कलि युग के दोषों से छुटकारा पा सकता है और, अपने मूल आध्यात्मिक शरीर में, वापस घर परम भगवान के पास लौट सकता है. यही कलियुग का अवसर है. जब कृष्ण प्रकट हुए, उन्होंने अपने आदेश दिए, और जब कृष्ण स्वयं एक भक्त, श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए, उन्होंने हमें वह मार्ग दिखलाया जिसके माध्यम से कलि-युग के समुद्र को पार करना है. यही हरे कृष्ण आंदोलन का पथ है. जब श्री चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए, तो वे संकीर्तन आंदोलन के लिए युग प्रवर्तक हुए. ऐसा भी कहा जाता है कि दस सहस्त्र वर्षों तक यह युग जारी रहेगा. इसका अर्थ है कि केवल संकीर्तन आंदोलन को स्वीकार करने और हरे कृष्ण महा-मंत्र का जाप करने से, कलि-युग की ये पतित आत्माएँ तर जाएँगी. करुक्षेत्र के युद्ध के बाद, जिसमें भगवद्-गीता को कहा गया था, कलि-युग 432,000 वर्षों से चल रहा है, जिसमें से केवल 5000 वर्ष व्यतीत हुए हैं. अतः अब भी 427,000 वर्षों की अवधि आना बाकी है. इन 427,000 वर्षों में से संकीर्तन आंदोलन के 10,000 वर्षों का उद्घाटन श्री चैतन्य महाप्रभु ने 500 वर्ष पहले लिए किया था ताकि कलि-युग की पतित आत्माओं को कृष्ण चेतना आंदोलन अंगीकार करने, हरे-कृष्ण मंत्र का जाप करने और इस प्रकार भौतिक अस्तित्व के पंजों से तर जाने और परम भगवान के पास वापस घर लौटने की सुविधा दे सकें.

हरे कृष्ण महा-मंत्र का जाप करना हमेशा शक्तिशाली होता है, किंतु यह इस कलि के युग में विशेष रूप से बलशाली है. इसलिए महाराज परीक्षित को उपदेश करते समय, शुकदेव गोस्वामी ने हरे कृष्ण मंत्र के जाप पर विशेष बल दिया था.

कालेर दोष-निधे राजन अस्तिह्य एखो महान गुणः
कीर्तनाद एव कृष्णस्य मुक्त-संगः परम व्रजेत

“मेरे प्रिय राजा, भले ही कलि-युग दोषों से भरा है, फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है. वह यह कि केवल हरे कृष्ण महा-मंत्र का जाप करने से, व्यक्ति भौतिक बंधनों से मुक्त हो सकता है और पारलौकिक राज्य में पदोन्नति पा सकता है.” (भागवतम् 12.3.51) जिन्होंने हरे कृष्ण महा-मंत्र का प्रचार करने की चुनौती पूर्ण कृष्ण चेतना में स्वीकार की है, उन्हें लोगों को बड़ी सरलता से भौतिक अस्तित्व से पार कराने का यह अवसर लेना चाहिए. इसलिए, हमारा कर्तव्य श्रीचैतन्य महाप्रभु के निर्देशों का गंभीरता से पालन और कृष्ण चेतना आंदोलन का प्रचार संसार भर में करना है. यही मानव समाज की शांति और समृद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 23

व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भगवान को स्वीकार कर सकने के पहले उन्हें देखे.

ऐसा कहा जाता है कि जब ब्रम्हा और अन्य देवता श्वेतद्वीप में भगवान के परम व्यक्तित्व से भेंट करने जाते हैं, तो वे प्रत्यक्ष उन्हें नहीं देख पाते, किंतु उनकी प्रार्थना भगवान सुन लेते हैं, और आवश्यक कार्य कर दिया जाता है. ऐसा हम कई उदाहरणों में देख चुके हैं. श्रुत-पूर्वाय शब्द महत्वपूर्ण है. हम प्रत्यक्ष देखने या सुनने पर अनुभव ले पाते हैं. यदि किसी को प्रत्यक्ष देखना संभव न हो तो, हम उनके बारे में प्रामाणिक स्रोतों से सुन सकते हैं. कई बार लोग पूछते हैं कि क्या हम उन्हें भगवान दिखा सकते हैं. यह हास्यास्पद है. व्यक्ति के लिए भगवान को स्वीकार करने से पहले उन्हें देखना आवश्यक नहीं है. हमारा इंद्रिय बोध हमेशा अपूर्ण होता है. इसलिए, यदि हम भगवान को देख भी लें, तो भी हो सकता है हम उन्हें समझने में सक्षम न हों. जब कृष्ण पृथ्वी पर थे, तो कई लोगों ने उन्हें देखा पर समझ नहीं सके कि वे भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. अवजानाति मम मूढ़ मनुषिम तनुमाश्रितम्. भले ही पापियों और मूर्खों ने व्यक्तिगत रूप से कृष्ण को देखा, वे नहीं समझ पाए कि वे भगवान के परम व्यक्तित्व हैं. भगवान को व्यक्तिगत रूप से देखने पर भी, जो दुर्भाग्यशाली होता है उन्हें समझ नहीं सकता. इसलिए हमें भगवान, कृष्ण के बारे में प्रमाणिक साहित्य और उन लोगों द्वारा सुनना आवश्यक है जो वैदिक संस्करण को ठीक से समझते हैं. भले ही ब्रम्हा ने भगवान को पूर्व में नहीं देखा था, उन्हें विश्वास था कि भगवान श्वेतद्वीप में उपस्थित हैं. इसलिए उन्होंने वहाँ जाने और भगवान की अर्चना करने का अवसर स्वीकार किया. भगवान को देखना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उनके गुणों के बारे में प्रामाणिक साहित्य या प्रामाणिक व्यक्तियों के वास्तविक व्यक्तव्यों द्वारा जानना है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 25

वे गीत जो स्वीकृत नहीं हैं या जो प्रामाणिक भक्तों द्वारा नहीं गाए जाते अनुमत नहीं होते.

कृष्ण चेतना आंदोलन में कोई भी गीत जो स्वीकृत नहीं हैं या जो प्रामाणिक भक्तों द्वारा नहीं गाए जाते अनुमत नहीं होते. मंदिर में कोई भी सिनेमा गीत गाने की अनुमित नहीं होती. भक्तजन सामान्यतः दो गीत गाते हैं. एक जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्त वृंद. यह प्रामाणिक है. इसका उल्लेख चैतन्य चरितामृत में हमेशा होता है, और यह आचार्यों द्वारा स्वीकृत है. और दूसरा, निस्संदेह, महामंत्र — हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे है. नरोत्तम दास ठाकुर, भक्तिविनोद ठाकुर और लोचन दास ठाकुर के गीत भी अनुमत हैं, किंतु ये दो गीत– “श्रीकृष्ण चैतन्य” और हरे कृष्ण महामंत्र, भगवान के परम व्यक्तित्व को प्रसन्न करने के लिए पर्याप्त हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 25

जल प्रत्येक के लिए जीवन का स्रोत है.

तथाकथित वैज्ञानिकों की परिकल्पनाओं के बावजूद, इस ग्रह पर और अन्य ग्रहों पर जल की विशाल मात्रा हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिश्रण से नहीं रची गई है. बल्कि, जल को कभी-कभी भगवान के परम व्यक्तित्व का स्वेद होना और कभी उनका वीर्य होना बताया जाता है. जल ही है जिससे सभी जीव उत्पन्न होते हैं, और जल के ही कारण वे जीवन जीते और विकसित होते हैं. यदि जल न हो, तो समस्त जीवन समाप्त हो जाएगा. जल सभी के लिए जीवन का स्रोत होता है. इसलिए, भगवान के परम व्यक्तित्व की कृपा से हमारे पास सारे संसार में इतना जल है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 33

चंद्रमा अन्न का स्रोत होता है.

सोम, चंद्रमा के प्रमुख देवता, अन्न का स्रोत हैं और इसलिए आकाशीय जीवों, देवताओं के लिए भी शक्ति का स्रोत हैं. वही समस्त वनस्पतियों की जीवनदायी शक्ति हैं. दुर्भाग्य से, आधुनिक तथाकथित वैज्ञानिक, जो चंद्रमा को ठीक से नहीं समझते, उसे मरुस्थलों से भरा हुआ बताते हैं. चूँकि चंद्रमा हमारी वनस्पतियों का स्रोत है, वह एक मरुस्थल कैसे हो सकता है? चंद्रमा का प्रकाश सभी वनस्पतियों की जीवनदायी शक्ति है, और इसलिए हम यह संभावना नहीं स्वीकार सकते कि चंद्रमा एक मरुस्थल है. जैसा कि प्रबुद्ध विद्वानों द्वारा कहा गया है, चंद्रमा भगवान के परम व्यक्तित्व का मन है. भगवान के परम व्यक्तित्व, सभी एश्वर्यों के स्रोत, हमसे प्रसन्न हों.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 34

सूर्य परम भगवान के नेत्र के समान है.

सूर्य-देवता को देवताओं के प्रमुख माना जाता है. उन्हें ब्रम्हांड के उत्तरी भाग का रक्षक भी माना जाता है. वे वेदों को समझने में सहायता करते हैं. जैसा कि ब्रम्ह-संहिता (5.52) में पुष्टि की गई है:

यच्-चक्षुर् ऐषा सविता सकल-ग्रहणम रज समस्त-सुर-मूर्तिर अशेष-तेजः
यसज्ञाय ब्रम्हति संभ्रत-कला-चक्रो गोविंदम आदि-पुरुषम् तम अहम भजामि

“अनंत आभा से भरा हुआ सूर्य, सभी ग्रहों का राजा और शुभ आत्मा का छवि होता है. सूर्य परम भगवान के नेत्र के समान है. मैं आदि भगवान गोविंद का भजन करता हूँ, जिनकी आज्ञा का अनुसरण करते हुए ही सूर्य समय के पहिये पर सवार होकर अपनी यात्रा करता है.” सूर्य वास्तव में भगवान का नेत्र है. वैदिक मंत्रों में यह कहा गया है कि जब तक भगवान के परम व्यक्तित्व नहीं देखते, कोई नहीं देख सकता. जब तक कि सूर्य का प्रकाश न हो, किसी भी ग्रह पर कोई भी जीव देख नहीं सकता. इसलिए सूर्य को भगवान का नेत्र माना जाता है. इसकी पुष्टि यहाँ यच-चक्षुर् असित और ब्रम्ह संहिता में यच-चक्षुर् ऐषा सविता शब्दों से की गई है. सविता का अर्थ सूर्य देवता होता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 36

सभी प्रकार की उपासनाओं में, भगवान विष्णु की उपासना सर्वश्रेष्ठ होती है.

जैसा कि पद्म पुराण में कहा गया है :

अराधनानं सर्वेषं विष्णोर् आराधनम् परम
तस्मत् परतरम् देवी तदीयनाम् समार्चनम्

“सभी प्रकार की उपासनाओं में, भगवान विष्णु की उपासना सर्वश्रेष्ठ होती है, और भगवान विष्णु की उपासना से भी श्रेष्ठ उनके भक्त, वैष्णव की उपासना है.” ऐसे कई देवता हैं जिनकी उपासना वे लोग करते हैं जो भौतिक इच्छाओं से आसक्त होते हैं (कामैस तैस तैर हृत ज्ञानः प्रपद्यंतेन्य-देवताः). चूँकि लोग बहुत सी भौतिक इच्छाओं से व्याकुल रहते हैं, तो वे भगवान शिव, भगवान ब्रम्हा, देवी काली, दुर्गा, गणेश और सूर्य की उपासना विभिन्न फल अर्जित करने के लिए करते हैं. यद्यपि, व्यक्ति ये सारे फल एक ही साथ भगवान विष्णु की उपासना करके पा सकता है. जैसा कि भागवतम् (4.31.14) में अन्यत्र बताया गया है:

यथा तरोर् मूल-निषेचनेन तृप्यंति तत्-स्कंध-भुजोपासकः
प्राणोपहर्च च यथेन्द्रियनम् तथैव सर्वहरण अच्युतेज्यM/span>

“किसी पेड़ की केवल जड़ पर जल डालने से, व्यक्ति उसके तने और उसकी सभी शाखाओं, फलों और फूलों को पुष्ट करता है, और केवल पेट तक भोजन पहुँचाकर, व्यक्ति शरीर के सभी अंगों को संतुष्ट करता है. उसी प्रकार, भगवान विष्णु की उपासना करके व्यक्ति सभी को संतुष्ट कर सकता है.” कृष्ण चेतना एक संप्रदायवादी धार्मिक आंदोलन नहीं है. बल्कि, वह संसार के लिए सब को साथ लेने वाली कल्याणकारी गतिविधियों के लिए है. व्यक्ति इस आंदोलन में जाति, नस्ल, संप्रदाय या नागरिकता के संदर्भ में बिना किसी भेद-भाव के प्रवेश कर सकता है. यदि व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण की उपासना करने के लिए प्रशिक्षित है, जो विष्णु-तत्व के मूल हैं, तो व्यक्ति सभी प्रकार से पूर्ण सुखी और श्रेष्ठ बन सकता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 49

भगवान चैतन्य व्यक्ति सदैव प्रसन्न और विजयी होता है.

राजनीति, राजनय, छल करने की प्रवृत्ति, और जो कुछ भी हम इस संसार में व्यक्तियों और दो पक्षों के बीच सामाजिक व्यवहार में पाते हैं, वे उच्चतर ग्रह मंडलों में भी उपस्थित होता है. देवता बाली महाराज के पास अमृत निर्मित करने का प्रस्ताव लेकर गए, और दैत्यों ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया, यह सोचकर कि चूँकि देवता पहले से ही अशक्त हैं, तो जब अमृत निर्मित होगा तो वे उनसे छीन लेंगे और स्वयं अपने लाभ के लिए उसका उपयोग करेंगे. निस्संदेह, देवताओं की मंशा भी समान थी. एकमात्र अंतर यही है कि परम भगवान के व्यक्तित्व, भगवान विष्णु, देवताओं की ओर थे क्योंकि देवता उनके भक्त थे, जबकि दैत्य भगवान विष्णु की चिंता नहीं करते थे. पूरे ब्रम्हांड में दो पक्ष होते हैं–विष्णु पक्ष, या भगवान-चैतन्य पक्ष, और भगवान विहीन पक्ष. भगवान विहीन पक्ष कभी भी प्रसन्न या विजयी नहीं होते, किंतु भगवान चैतन्य पक्ष हमेशा प्रसन्न और विजयी होता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 31

देवताओं और दैत्यों के बीच अंतर.

जीवों के दो वर्ग होते हैं–दैत्य और देवता–और भगवान का परम व्यक्तित्व दोनों के ऊपर होता है. दैत्य उत्पत्ति की “संयोग” वाली धारणा में विश्वास करते हैं, जबकि देवता भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा जगत उत्पत्ति में विश्वास करते हैं. परम भगवान के सर्वशक्तिमान होने को यहाँ सिद्ध किया गया है, क्योंकि केवल एक हाथ से उन्होंने मंदार पर्वत, देवता और दैत्यों को उठा लिया था, और उन्हें गरुड़ की पीठ पर रख दिया था और उन्हें क्षीर सागर ले आए थे. अब, देवताओं, भक्त तो इस घटना को स्वीकार कर लेंगे, यह जानते हुए कि भगवान कुछ भी उठा सकते हैं भले ही वह कितना भी भारी हो. किंतु भले ही दैत्यों को भी देवताओं के साथ ही लाया गया था, इस घटना के बारे में सुनकर वे यही कहेंगे कि यह मिथकीय है. लेकिन यदि भगवान सर्वशक्तिमान हैं, तो किसी पर्वत को उठा लेना उनके लिए क्यों कठिन होगा? चूँकि वे सैकड़ों और सहस्त्रों मंदार पर्वतों के साथ असंख्य ग्रहों को चला रहे हैं, तो वे उनमें से एक को अपने हाथ से क्यों नहीं उठा सकते? यह मिथक नहीं है, बल्कि आस्थावानों और आस्थाहीन लोगों के बीच अंतर यह है कि भक्तजन वैदिक साहित्य में वर्णित घटनाओं को सत्य मानते हैं, जबकि दैत्य बस कुतर्क करते हैं और इन ऐतिहासिक घटनाओं को मिथक बताते हैं. दैत्य यही समझाना चाहेंगे कि जगत उत्पत्ति में होने वाला सब कुछ संयोगवश होता है, किंतु देवता, या भक्त, किसी भी घटना को संयोग नहीं मानते. बल्कि, वे जानते हैं कि सब कुछ भगवान के परम व्यक्तित्व की व्यवस्था है. यही देवताओं और दैत्यों के बीच का अंतर है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 38

भगवान शिव के माध्यम से भगवान विष्णु भौतिक गतिविधियाँ निष्पादित करते हैं.

भगवान विष्णु सारे सौभाग्य का पालन करते और उसे अर्जित करते हैं. भगवान विष्णु भौतिक संसार की रचना में भगवान शिव के माध्यम से भूमिका निभाते हैं. भगवान शिव ही भगवान विष्णु की ओर से व्यवहार करते हैं. जब भगवान भगवद्-गीता (14.4) में कहते हैं कि वे ही सभी जीवों के पिता हैं (अहम् बीज-प्रदः पिता), तो इसका आशय वे कर्म हैं जो भगवान विष्णु भगवान शिव के माध्यम से करते हैं. भगवान विष्णु भौतिक गतिविधियों से हमेशा विलग रहते हैं, और जब भौतिक गतिविधियाँ करने की आवश्यकता होती है, तो वे उन्हें भगवान शिव के माध्यम से निष्पादित करते हैं. इसलिए भगवान शिव की उपासना भगवान विष्णु के स्तर पर की जाती है. जब भगवान विष्णु बाहीय ऊर्जा के संपर्क में नहीं रहते हैं तो वे भगवान विष्णु होते हैं, किंतु जब वे बाहीय ऊर्जा के संपर्क में होते हैं, तो वे भगवान शिव के रूप में दिखते हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 7 – पाठ 22

कृष्ण चेतना का प्रसार करना परम कल्याणकारी गतिविधि है.

जो दूसरों के कल्याण की गतिविधि में रत होते हैं वे भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा बहुत शीघ्र पहचान लिए जाते हैं. भगवद्-गीता (18.68-69) में भगवान कहते हैं, य इदं परमं गुह्यं मद्भ‍क्तेष्वभिधास्यति. .. न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: : “जो मेरे भक्तों को भगवद्-गीता के संदेश का प्रवचन करता है, वह मुझे सबसे प्रिय है. कोई भी उपासना द्वारा मुझे संतुष्ट करने में उससे श्रेष्ठ नहीं हो सकता.” इस भौतिक संसार में विभिन्न प्रकार की कल्याणकारी गतिविधियाँ हैं, किंतु कृष्ण चेतना का प्रसार करना परम कल्याणकारी गतिविधि है. अन्य कल्याणकारी गतिविधियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं, क्योंकि प्रकृति के नियमों और कर्म के परिणामों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता. ऐसा नियति, या कर्म के नियम द्वारा है, कि व्यक्ति को कष्ट या आनंद भोगना होता है. उदाहरण के लिए, यदि व्यक्ति को न्यायालय का आदेश मिलता है, तो उसे स्वीकार करना ही पड़ता है, भले ही उससे कष्ट हो या लाभ हो. उसी प्रकार, सभी लोग कर्म और उसकी प्रतिक्रियाओं के अधीन होते हैं. कोई भी इसे परिवर्तित नहीं कर सकता. इसलिए शास्त्र कहता है:

तस्यैव हेतो: प्रयतेत कोविदो न लभ्यते यद्भ्रमतामुपर्यध: (भाग. 1.5.18)

व्यक्ति को उसके लिए प्रयास करना चाहिए जो कर्म की प्रतिक्रियाओं के परिणाम के रूप में ब्रम्हांड में आगे-पीछे भटकने से कभी नहीं मिलता. वह क्या है? व्यक्ति को कृष्ण चैतन्य बनने का प्रयास करना चाहिए. यदि व्यक्ति समस्त संसार में कृष्ण चेतना का प्रसार करने का प्रयास करता है, तो उसे सर्वश्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि संपन्न करता हुआ समझा जाना चाहिए. भगवान उससे स्वतः ही बड़े प्रसन्न हो जाते हैं. यदि भगवान उससे प्रसन्न हैं, तो उसे और क्या अर्जित करना है? यदि व्यक्ति को भगवान द्वारा पहचान लिया जाता है, भले ही उसने भगवान से कुछ न माँगा हो, भगवान, जो प्रत्येक के भीतर हैं, उसे वह सब प्रदान करते हैं जो भी वह चाहता है. इसकी पुष्टि भगवद्-गीता में भी की गई है (तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्). फिर से, जैसा कि यहाँ व्यक्त किया गया है, तप्यन्ते लोकतापेन साधव: प्रायशो जना: . सबसे श्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि लोगों को कृष्ण चेतना के स्तर पर ले आना है, क्योंकि बद्ध आत्माएँ केवल कृष्ण चेतना की चाह में कष्ट भोग रही हैं. इसलिए, सभी शास्त्रों का निष्कर्ष है कि कृष्ण चेतना के प्रसार का आंदोलन संसार की सबसे श्रेष्ठ कल्याणकारी गतिविधि है. चूँकि सामान्य लोगों को इससे परम लाभ मिलता है, भगवान किसी भक्त के द्वारा की गई ऐसी सेवा को शीघ्रता से पहचान लेते हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 7 – पाठ 44

समुद्र मंथन द्वारा सबसे पहले बहुत बड़ी मात्रा में विष निर्मित होता है.

इस समझ के साथ कि जब समुद्र मंथन द्वारा अमृत निकाला जाएगा वे इसे आपस में समानता से साझा करेंगे, देवता और दैत्य वासुकी को मथनी की रस्सी के रूप में उपयोग करने के लिए ले आए. भगवान के परम व्यक्तित्व की दक्ष व्यवस्था द्वारा, दैत्यों ने नाग को मुख के पास से पकड़ा, जबकि देवताओं ने उस महाकाय सर्प की पूँछ पकड़ी. फिर, बहुत प्रयास के साथ, उन्होंने सर्प को दोनों दिशाओं में खींचना आरंभ किया. चूँकि मथनी, मंदार पर्वत बहुत भारी था और पानी में किसी भी सहारे के बिना रखा गया था, वह सागर में डूब गया, और इस प्रकार दैत्यों और देवताओं दोनों की शक्ति समाप्त हो गई. फिर भगवान के परम व्यक्तित्व एक कछुए के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने मंदार पर्वत को अपनी पीठ का सहारा दिया. उसके बाद मंथन पूरी गति से दोबारा प्रारंभ हुआ. मंथन के परिणाम बहुत बड़ी मात्रा में विष उत्पन्न हुआ. यह देख कर कि उन्हें और कोई नहीं बचाएगा, प्रजापति भगवान शिव के पास पहुँचे और उनसे सच्ची प्रार्थना की. भगवान शिव को आशुतोष कहा जाता है क्योंकि यदि कोई उनका भक्त हो तो वे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं. इसलिए वे मंथन द्वारा निकले सारे विष को पीने के लिए सरलता से सहमत हो गए. जब भगवान शिव विष पीने के लिए सहमत हुए तो भगवान शिव की पत्नी, देवी दुर्गा भवानी बिलकुल भी विचलित नहीं हुईं, क्योंकि वे भगवान शिव की शक्ति को जानती थीं. निस्संदेह, उन्होंने इस सहमति पर प्रसन्नता व्यक्त की. तब भगवान शिव ने विनाशकारी विष को इकट्ठा किया, जो हर स्थान पर फैला था. उन्होंने अपने हाथ में लेकर उसे पी लिया. विष पीने के बाद, उनकी ग्रीवा नीली पड़ गई. उनके हाथ से थोड़ी सी मात्रा में विष धरा पर गिर पड़ा, और इसी विष के कारण ही विषैले सर्प, बिच्छू, विषैले पौधे और अन्य विषैली चीज़ें इस संसार में हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 7 – परिचय

भगवान का परम व्यक्तित्व राहु का पता क्यों नहीं लगा सका.

भगवान का परम व्यक्तित्व, मोहिनी-मूर्ति, समस्त दानवों को भ्रमित करने में सक्षम था, किंतु राहु इतना चतुर ता कि वह भ्रमित नहीं हुआ. राहु समझ सकता था कि मोहिनी-मूर्ति दानवों से छल कर रही थी, और इसलिए उसने अपनी पोषाक बदली, और देवता का वेष धारण कर लिया, और देवताओं की सभा में बैठ गया. यहाँ व्यक्ति पूछ सकता है कि भगवान का परम व्यक्तित्व राहु का पता क्यों नहीं लगा सका. कारण यह है कि भगवान अमृत पीने के प्रभावों को दर्शाना चाहते थे. चंद्रमा और सूर्य, यद्यपि, राहु के संबंध में सावधान थे. इसलिए जब राहु देवताओं की सभा में प्रविष्ट हुआ, तो चंद्रमा और सूर्य ने उसे तुरंत पहचान लिया, और फिर भगवान के परम व्यक्तित्व को भी उसका आभास हो गया. जब भगवान के परम व्यक्तित्व, मोहिनी-मूर्ति ने राहु का सर उसके शरीर से अलग कर दिया, तो शरीर के मृत हो जाने पर भी सिर जीवत रहा. राहु अपने मुँह से अमृत का पान कर रहा था, और अमृत के उसके शरीर में पहुँचने से पहले उसका सिर काट दिया गया. इसलिए राहु का सिर जीवित रहा जबकि उसका शरीर मृत हो गया. भगवान द्वारा की गई यह अद्भुत लीला का उद्देश्य यह दिखाना था कि अमृत चमत्कारी है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 24 व 25

भक्त किस प्रकार कर्मियों से हमेशा भिन्न होता है.

भगवद्-गीता (4.11) में ऐसा कहा गया है, ये यथा प्रपद्य़ंते तम तथैव भजाम्य अहम् : भगवान के परम व्यक्तित्व ही परम न्यायकर्ता हैं जो विभिन्न व्यक्तियों को अपने चरण कमलों में उसके समर्पण के अनुसार पुरस्कृत या दंडित करते हैं. इसलिए वास्तव में ऐसा देखा जा सकता है कि भले ही कर्मी और भक्त समान स्थान पर, एक ही समय में, समान ऊर्जा, और समान महात्वाकांक्षा के साथ कार्य कर सकते हैं, किंतु उन्हें भिन्न परिणाम मिलते हैं. कर्मी जन्म और मृत्यु के चक्र में विभिन्न शरीरों में स्थानांतरित होते रहते हैं, कभी-कभी ऊपर की ओर और कभी नीचे की ओर, इस प्रकार कर्म-चक्र, जन्म और मृत्यु के चक्र में उनके कर्मों का परिणाम भुगतते हैं. जबकि भक्त, भगवान के चरण कमलों में पूर्ण समर्पित होकर, अपने प्रयासों में कभी व्याकुल नहीं होते, भले ही वे लगभग कर्मियों के समान ही कार्य करते हैं, भक्त वापस घर, परम भगवान के पास लौटते हैं, और प्रत्येक प्रयास में सफलता प्राप्त करते हैं. दैत्यों या नास्तिकों को स्वयं अपने प्रयासों में विश्वास होता है, किंतु भले ही वे दिन रात कड़ा परिश्रम करें, उन्हें अपने भाग्य से अधिक कुछ नहीं मिलता. यद्यपि भक्त कर्म की प्रतिक्रियाओं से पार जा सकते हैं और आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं, बिना प्रयास के भी. ऐसा भी कहा जाता है, फलेन परिचियते : किसी भी गतिविधि में व्यक्ति की सफलता या पराजय को उसके परणाम से समझा जाता है. भक्तों की पोषाक में कई कर्मी होते हैं, किंतु भगवान का परम व्यक्तित्व उनके उद्देश्य को भाँप सकता है. कर्मी उनकी स्वार्थी इंद्रिय संतुष्टि के लिए भगवान की संपत्ति का उपयोग करना चाहते हैं. इसलिए एक भक्त कर्मियों से हमेशा अलग होता है, भले ही कर्मी भक्त के समान वेष धर सकते हैं. जैसा कि भगवद्-गीता (3.9) में पुष्टि की गई है, यज्ञार्थात कर्मणोन्यत्र लोको यम कर्म-बंधनः. वह जो भगवान विष्णु के लिए कार्य करता है वह इस भौतिक संसार से मुक्त होता है, और अपने शरीर को त्यागने के बाद वह वापस घर, परम भगवान तक वापस जाता है. यद्यपि, एक कर्मी ऊपरी रूप से किसी भक्त के समान कार्य करता हो, अपनी अभक्तिमय गतिविधियों में फंसा रहता है, औऱ इस प्रकार वह भौतिक अस्तित्व का झांझावात भोगता है. इसलिए कर्मियों और भक्तों द्वारा अर्जित किए गए परिणामों से, व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व की उपस्थिति को समझ सकता है, जो कर्मियों और ज्ञानियों के लिए भक्तों की अपेक्षा भिन्न व्यवहार करते हैं. इसलिए श्री चैतन्यचरितामृत के लेखक कहते हैं:

कृष्ण भक्त—-निष्काम, अतएव ‘संत’
भुक्ति-मुक्ति-सिद्धि-कामी—-सकली ‘असंत’

कर्मी जो इंद्रिय तुष्टि की इच्छा रखते हैं, ज्ञानी जो परम के अस्तित्व में विलीन होने की मुक्ति की कामना करते हैं, और योगी जो रहस्यमयी शक्ति में भौतिक सफलता खोजते हैं, सभी अधीर होते हैं और अंततः वे विस्मित हो जाते हैं. किंतु भक्त, जो कोई भी व्यक्तिगत लाभ नहीं चाहते और जिनकी एकमात्र महत्वाकांक्षा भगवान के परम व्यक्तित्व की महिमा को प्रसार करना होता है, वे कठिन परिश्रम के बिना ही, भक्ति-योग के मंगल परिणामों का वरदान पाते हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 9 – पाठ 28

भगवान शिव भगवान विष्णु के मोहिनी मूर्ति अवतार से किस प्रकार आकर्षित थे?

भगवान शिव माया से पीड़ित नहीं हो सकते. इसलिए यह समझना चाहिए कि भगवान शिव को भगवान विष्णु के आंतरिक बल द्वारा सताया जा रहा था. भगवान विष्णु अपनी विभिन्न शक्तियों द्वारा अनेक अद्भुत गतिविधियाँ कर सकते हैं. परस्य शक्तिर विविधैव श्रुयते स्वभाविकि ज्ञानः-बाल-क्रिया च (श्वेताश्वतार उपनिषद 6.8). परम भगवान की विभिन्न शक्तियाँ होती हैं, जिनके द्वारा वे बहुत कुशलतापूर्वक कर्म कर सकते हैं. किसी भी कार्य को दक्षता से करने के लिए, उन्हें विचार मात्र करने की भी आवश्यकता नहीं होती. चूँकि भगवान शिव को स्त्री द्वारा सताया जा रहा था, यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा किसी स्त्री के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं भगवान विष्णु द्वारा किया जा रहा था.

जब कोई स्त्री को देखने पर कामुक इच्छाओं से उत्तेजित हो जाता है, तो वे कामनाएँ अधिकाधिक बढ़ती जाती हैं, किंतु जब यौन प्रक्रिया में वीर्य पतन होता है, तो कामुक इच्छा समाप्त हो जाती है. इसी सिद्धांत ने भगवान शिव पर भी कार्य किया. वे सुंदर स्त्री मोहिनी मूर्ति से आकर्षित हो गए थे, किंतु जब उनका वीर्य संपूर्ण रूप से स्खलित हो गया, तो वे अपनी चेतना में लौटे और उन्हें भान हुआ कि जैसे ही उन्होंने वन में स्त्री को देखा था उन्हें पीड़ित किया जा रहा था. इस प्रकार भगवान शिव अपने और परम भगवान के व्यक्तित्व के पद को समझ सके, जिनके पास असीमित शक्तियाँ हैं. समझ में आ जाने पर, भगवान शिव को भगवान विष्णु द्वारा उन पर किए गए कृत्य पर थोड़ा भी आश्चर्य नहीं हुआ.

यदि व्यक्ति ब्रम्हचर्य द्वारा अपने वीर्य की रक्षा करने में प्रशिक्षित हो, तो स्वाभाविक रूप से वह किसी स्त्री के सौंदर्य से आकर्षित नहीं होता. यदि व्यक्ति ब्रम्हचारी बना रहे, तो वह भौतिक अस्तित्व में बहुत से कष्टों से स्वयं को बचा लेता है. भौतिक अस्तित्व का अर्थ है यौन संबंध का सुख भोगना (यन् मैथुनादिग्रहमेदि – सुखम). यदि व्यक्ति अपना वीर्य सुरक्षित रखने हेतु यौन जीवन के बारे में शिक्षित हो, तो वह भौतिक अस्तित्व के खतरों से बच जाता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 12 – पाठ 31, 35 व 36

जो सोना और चांदी खोजते हैं उन्हें भगवान शिव की उपासना करना चाहिए.

भगवान शिव ने भगवान विष्णु के पथ का पीछा इस प्रकार किया जैसे उन्हें कामुक इच्छाओं के वेष में कोई शत्रु सता रहा हो, जो बहुत कुशलता से व्यवहार कर रहा हो और जिसने मोहिनी का रूप ले लिया था. ठीक एक उन्मत्त बैल के समान हाथी एक हथिनी का पीछा करता है जो गर्भधारण करने योग्य होती है, भगवान शिव ने सुंदर स्त्रियों का पीछा किया और वीर्य का पात किया, पृथ्वी पर जहाँ भी भगवान शिव के महान व्यक्तित्व का वीर्य गिरा, वहाँ बाद में सोने और चांदी की खदानें प्रकट हो गईं. श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर टिप्पणी करते हैं कि जो लोग सोना और चांदी खोजते हैं उन्हें भौतिक वैभव के लिए भगवान शिव की उपासना करना चाहिए. भगवान शिव एक बेल वृक्ष के नीचे रहते हैं और रहने के लिए एक घर भी नहीं बनाते, किंतु भले ही वे स्पष्ट रूप से निर्धन हों, उनके भक्त कभी-कभी बड़ी मात्रा में चांदी और सोने से संपन्न होते हैं.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 12 – पाठ 31, 32 व 33

वर्तमान में कौनसे मनु का शासन है?

वर्तमान शासन वैवस्वत मनु का है. ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार, हम अभी वैवस्वत मनु के अट्ठाइसवें युग में हैं. प्रत्येक मनु इकहत्तर युगों तक जीवित रहते हैं, और ऐसे चौदह मनु भगवान ब्रम्हा के एक दिन में शासन करते हैं. हम अभी वैवस्वत मनु के समय में हैं, सातवें मनु, और आठवें मनु कई लाख वर्षों के बाद अस्तित्व में आएँगे. किंतु शुकदेव गोस्वामी, जो विद्वानों का श्रवण कर चुके हैं, भविष्यवाणी करते हैं कि आठवें मनु सर्वणी होंगे और निर्मोक और व्रजस्क उनके पुत्रों में होंगे. शास्त्र पूर्वघोषित कर सकते हैं कि भविष्य के लाखों-लाख वर्षों में क्या होगा. इन मनुओं द्वारा शासित कुल अवधि की गणना एक सहस्त्र चतुर्युग, या 4,300,000 बार 1000 वर्षों की की गई है. इसे एक कल्प कहा जाता है, या भगवान ब्रम्हा का एक दिन.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 13, पाठ 11 और परिचय

यदि आप आध्यात्मिक गुरु के आदेश की अवहेलना करते हैं तो आप सब कुछ खो देते हैं.

बाली महाराज और इंद्र शत्रु थे. इसलिए, जब देवताओं के गुरु, बृहस्पति ने भविष्यवाणी की कि बाली महाराज का नाश होगा क्योंकि उन्होंने उन ब्राम्हणों का अपमान किया जिनकी कृपा से वे इतने शक्तिशाली बने थे, तो बाली महाराज के शत्रु स्वाभाविक रूप से यह जानने के लिए चिंतित थे कि वह अवसर कब आएगा. राजा इंद्र को शांत करने के लिए, बृहस्पति ने उन्हें आश्वस्त किया कि वह समय निश्चित ही आएगा, क्योंकि बृहस्पति देख सकते थे कि भविष्य में बाली महाराज भगवान विष्णु, वामनदेव को संतुष्ट करने के लिए शुक्राचार्य के आदेशों की अवहेलना करेंगे. निस्संदेह, कृष्ण चेतना में प्रगति करने के लिए व्यक्ति सारे जोखिम उठा सकता है. वामनदेव को प्रसन्न करने के लिए, बाली महाराज ने अपने आध्यात्मिक गुरु, शुक्राचार्य के आदेशों की अवहेलना करने का जोखिम लिया. इस कारण वे अपनी समस्त संपत्ति खो देंगे, तब भी भगवान की भक्तिमय सेवा के कारण, उन्हें आशा से अधिक प्राप्त होगा, और भविष्य में, आठवें मन्वंतर में, वे फिर से इंद्र का आसन ग्रहण करेंगे.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 15, पाठ 31

गृहस्थ जीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना भी होता है.

सामान्यतः, जो गृहस्थ जीवन में होते हैं वे भौतिक परिणामों के लिए की गई गतिविधियों के क्षेत्र में इंद्रिय तुष्टि का अनुसरण करते हैं. ऐसे गृहमेधियों का जीवन में एकमेव लक्ष्य होता है–इंद्रिय तुष्टि. इसलिए कहा जाता है, यन् मैथुनादि-गृहमेधि-सुखम् हि तुच्छम् : गृहस्थ का जीवन इंद्रिय तुष्टि पर आधारित होता है, और इसलिए उससे अर्जित की गई प्रसन्नता बहुत तुच्छ होती है. तब भी, वैदिक प्रक्रिया इतनी व्यापक है कि गृहस्थ जीवन में भी व्यक्ति अपनी गतिविधियों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के नियामक सिद्धांतों के अनुसार समायोजित कर सकता है. व्यक्ति का लक्ष्य मुक्ति पाना होना चाहिए, किंतु व्यक्ति चूँकि इंद्रिय तुष्टि का त्याग नहीं कर पाता, शास्त्रों में धर्म, आर्थिक विकास, और इंद्रिय तुष्टि के सिद्धांतों का पालन करने की विधि का निर्देश दिया गया है. जैसा कि श्रीमद्-भागवतम् (1.2.9) में बताया गया है, धर्मस्य हि अपवर्गस्य न अर्थो अर्थयोपकल्पते: “सभी व्यावसायिक कार्यों का उद्देश्य परम मुक्ति होता है. उन्हें भौतिक लाभ के लिए नहीं करना चाहिए.” जो लोग गृहस्थ जीवन में हैं उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि धर्म गृहस्थ की इंद्रिय तुष्टि को बेहतर करने की प्रक्रिया है. गृहस्थ जीवन का उद्देश्य आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना भी होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति अंततः भौतिक बंधन से मुक्ति पा सकता है. व्यक्ति को जीवन के परम लक्ष्य (तत्व जिज्ञासा) को समझने के उद्देश्य से ही गृहस्थ जीवन में रहना चाहिए. तब गृहस्थ जीवन किसी योगी के जीवन के समान होगी. जैसे ही व्यक्ति शास्त्रों की शिक्षाओं से विचलित होता है, वैसे ही गृहस्थ जीवन का उद्देश्य तुरंत भ्रम में खो जाता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 16 – पाठ 5

अतिथि का सत्कार करना एक गृहस्थ का कर्तव्य होता है, भले ही अतिथि कोई शत्रु हो.

अतिथि का सत्कार करना एक गृहस्थ का कर्तव्य होता है, भले ही अतिथि कोई शत्रु हो. अतिथि शब्द बिना आमंत्रण ही आ जाने वाले व्यक्ति के संदर्भ में है. जब कोई अतिथि किसी के घर आता है, तो व्यक्ति को उसकी आगवानी उचित रूप से खड़े होकर और उसे आसन देकर करना चाहिए. ऐसा निर्देश है, गृहे शत्रुम् अपि प्राप्तम् विश्वस्तुम् अकूतोभयम्: यदि कोई शत्रु भी किसी के घर आए, तो व्यक्ति को उसकी आगवानी इस प्रकार करना चाहिए कि वह भूल जाए कि उसका यजमान एक शत्रु है. अपनी क्षमता के अनुसार, व्यक्ति को उन सभी की आगवानी करना चाहिए जो उसके घर पर आता है. कम से कम एक आसन और एक गिलास पानी तो प्रस्तुत करना ही चाहिए, ताकि अतिथि अप्रसन्न न हो.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 16 – पाठ 6

कोई भी अपना वास्तविक आत्म-हित नहीं समझता.

आत्मा (आत्मा या जीव) निश्चित ही शरीर से भिन्न होती है, जो कि पाँच भौतिक तत्वों का संयोजन होता है. यह एक सरल तथ्य है, किंतु यह समझ नहीं आता जब तक कि व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से शिक्षित न हो. जीवों के विभिन्न श्रेणियाँ होती हैं, किंतु वे सभी न्यूनाधिक जीवन के शारीरिक अवधारणा के प्रभाव के अधीन होती हैं. दूसरे शब्दों में, इस भौतिक संसार में सभी जीव न्यूनाधिक आध्यात्मिक शिक्षा से वंचित रहते हैं. यद्यपि, वैदिक सभ्यता आध्यात्मिक शिक्षा पर आधारित है, और आध्यात्मिक शिक्षा के विशेष आधार पर ही भगवद्-गीता अर्जुन को कही गई थी. भगवद्-गीता के प्रारंभ में, कृष्ण ने अर्जुन को निर्देश दिया था कि आत्मा शरीर से भिन्न होती है.

देहिनोस्मिन यथा देहे कौमारम् यौवनम् जरा
तथा देहांतर-प्राप्तिर धीरस् तत्र न मुह्यति

“जैसे अंतर्निहित आत्मा इस शरीर में बालकवय से युवावस्था, फिर उससे वृद्धावस्था में निरंतर जाती रहती है, उसी समान आत्मा मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चले जाती है. स्व-अनुभूत आत्मा इस प्रकार के परिवर्तन से व्यग्र नहीं होती.” (भगी. 2.13) दुर्भाग्यवश, यह आध्यात्मिक शिक्षा आधुनिक मानव सभ्यता में पूर्णतः अनुपस्थित है. कोई भी अपना वास्तविक आत्म-हित नहीं समझता, जो कि आत्मा के साथ निहित होता है, न कि भौतिक शरीर के साथ. शिक्षा का अर्थ है आध्यात्मिक शिक्षा. जीवन की शारीरिक धारणा में बिना आध्यात्मिक शिक्षा के, कड़ा परिश्रम करना पशु के समान जीवन जीना है. नयम् देहो देह-भजम् नृ-लोक कष्टन कामन अर्हते विद्-भुजम् ये (भाग. 5.5.1). लोग आत्मा के संबंध में शिक्षा के बिना, बस शारीरिक सुखों के लिए कठिन श्रम कर रहे हैं. अतः वे बहुत जोखिम भरी सभ्यता में जी रहे हैं, क्योंकि यह तथ्य है कि आत्मा को एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरित होना पड़ता है (तथा देहांतर-प्राप्तिः). बिना आध्यात्मिक शिक्षा के, लोग अंधेरे अज्ञान में रखे गए हैं और नहीं जानते कि वर्तमान शरीर के विनाश के बाद उनके साथ क्या होगा. वे अंधत्व में कार्यरत हैं, और अंधे नेता ही उनका नेतृत्व कर रहे हैं. अंध यथांधैर उपनियमनस् ते पिस-तंत्र्यम उरु-दम्नि बद्धः (भाग. 7.5.31). एक मूर्ख व्यक्ति नहीं जानता कि वह पूरी तरह भौतिक प्रकृति के बंधन में है और मृत्यु के बाद भौतिक प्रकृति उस पर एक विशिष्ट प्रकार का शरीर थोप देगी, जिसे उसे स्वीकार करना होगा. वह नहीं जानता कि भले ही उसके वर्तमान शरीर में वह एक महत्वपूर्ण व्यक्ति रहा हो, कि भौतिक प्रकृति की अवस्था में उसकी अज्ञानी गतिविधियों के कारण अगली बार उसे किसी पशु या पेड़ का शरीर मिल सकता है. इसलिए कृष्ण चेतना आंदोलन समस्त जीवों को आध्यात्मिक अस्तित्व का सच्चा प्रकाश देने का प्रयास कर रहा है. इस आंदोलन को समझना बहुत कठिन नहीं है, और लोगों को इसका लाभ लेना ही चाहिए, क्योंकि यह उन्हें अनुत्तरदायित्व के जोखिम भरे जीवन से बचाएगा.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 16 – पाठ 19

सभी लोगों को, भले ही वे कर्मी, ज्ञानी, योगी या भक्त हों, निरपवाद रूप से वासुदेव के चरण कमलों की शरण लेनी चाहिए.

सभी लोगों को, भले ही वे कर्मी, ज्ञानी, योगी या भक्त हों, निरपवाद रूप से वासुदेव के चरण कमलों की शरण लेनी चाहिए और उनकी पारलौकिक प्रेममयी सेवा करनी चाहिए ताकि उनकी सारी मनोकामनाएँ यथायोग्य पूरी हों. कृष्ण दीन-अनुकंपना हैं : वे सभी के प्रति बड़े दयालु हैं. इसलिए यदि व्यक्ति उसकी भौतिक मनोकामनाएँ पूरी करना चाहते है, तो कृष्ण उसकी सहायता करते हैं. निस्संदेह, कभी यदि कोई भक्त बड़ा गंभीर हो, तो विशेष अनुकंपा के रूप में, भगवान उसकी भौतिक इच्छां को पूरा करने से मना कर देते हैं और उसे प्रत्यक्ष विशुद्ध, अमिश्रित भक्ति सेवा का वरदान देते हैं. चैतन्य-चरितामृत (मध्य 22.38-39) में यह कहा गया है :

कृष्ण कहे, —-अमा भजे, माँगे विषय-सुख अमृत छाड़ि विष माँगे, —-ऐई बड़ा मूर्ख
आमि—विज्ञ, ऐई मूर्खे विषय केने दीबा? स्व-चरणामृत दिया विषय भुलाइबा

“कृष्ण कहते हैं, ‘यदि वयक्ति मेरी पारलौकिक प्रेममयी सेवा में रत होता है किंतु उसी समय भौतिक भोग का एश्वर्य भी चाहता है, तो वह बहुत मूर्ख है. निस्संदेह, वह उस व्यक्ति के समान होता है जो विष पीने के लिए अमृत का त्याग कर दे. चूँकि मैं बहुत बुद्धिमान हूँ, मैं इस मूर्ख को भौतिक संपन्नता क्यों दूँ?” इसके स्थान पर मैं उसे मेरे चरण कमलों में शरण लेने को प्रेरित करूँगा और उसके मन से मायावी भौतिक भोग को भुला दूँगा.’ “यदि एक भक्त कुछ भौतिक इच्छाएँ रखे और उसी समय कृष्ण के चरण कमलों में रहने की गंभीर इच्छा रखे, तो कृष्ण उसे प्रत्यक्ष रूप से विशुद्ध भक्ति सेवा प्रदान कर सकते हैं और उसकी सभी भौतिक इच्छाएँ और संपत्तियाँ हर सकते हैं. यह भक्तों के लिए भगवान की विशेष अनुकंपा है. अन्यथा, यदि व्यक्ति कृष्ण की भक्ति सेवा अपनाता है किंतु तब भी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति चाहता है, तो हो सकता है वह समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाए, जैसे ध्रुव महाराज हुए थे, किंतु इसमें कुछ समय लग सकता है. यद्यपि, यदि कोई गंभीर भक्त केवल कृष्ण के चरण कमल चाहता है, तो कृष्ण प्रत्यक्षतः उसे शुद्ध भक्ति, निर्लिप्त भक्ति सेवा की अवस्था प्रदान करते हैं.”

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 16 – पाठ 21

जीवन सभी भौतिक तत्वों से स्वतंत्र होता है.

जंगल की आग लकड़ी के दो टुकड़ों में घर्षण होने पर आरंभ होती है, जो पवन द्वारा उत्तेजित किए जाते हैं. वास्तव में, जबकि, अग्नि का संबंध न तो लकड़ी से और न ही पवन से होता है; वह हमेशा दोनों से ही भिन्न है. उसी प्रकार, जीव की जीवन शक्ति–आत्मा–मानव के डिंब और वीर्य से भिन्न होती है. यद्यपि बद्ध आत्मा का पुरुष और स्त्री की प्रजननीय कोशिकाओं से कोई संबंध नहीं होता, उसे उचित अवस्था में उसके कार्य के कारण रखा जाता है (कर्मणा दैव-नेत्रेण). तथापि जीवन दो निस्सारणों का उत्पाद नहीं है, बल्कि सभी भौतिक तत्वों से स्वतंत्र है. जैसा कि भगवद्-गीता में संपूर्णता में वर्णित किया गया है, जीव किसी भी भौतिक प्रतिक्रिया के अधीन नहीं होता. उसे न ही अग्नि से जलाया जा सकता है, न ही तीखे शस्त्रों से काटा जा सकता है, न ही जल से गीला किया जा सकता है, न ही पवन से सुखाया जा सकता है. वह भौतिक तत्वों से संपूर्ण रूप से भिन्न है, किंतु एक उच्चतर व्यवस्था द्वारा उसे इन भौतिक तत्वों में रखा जाता है. वह हमेशा भौतिक संपर्क से विलग होता है (असंगो हि अयम् पुरुषः) किंतु चूँकि उसे एक भौतिक अवस्था में रखा जाता है, वह प्रकृति की भौतिक अवस्थाओं की प्रतिक्रियाओं को भोगता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 17 – पाठ 23

संतुष्टि के बिना व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता भले ही उसके पास संसार भर की संपत्ति हो.

वैदिक संस्कृति या ब्राम्हण संस्कृति व्यक्ति को न्यूनतम जीवनोपयोगी वस्तुओं के साथ संतुष्ट रहने की विधि सिखाती है. इस उच्चतम संस्कृति की शिक्षा देने के लिए, वर्णाश्रम-धर्म का अनुमोदन किया गया है. वर्णाश्रण वर्गीकरण– ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास– का उद्देश्य व्यक्ति को इंद्रियों को नियंत्रित करना और न्यूनतम वस्तुओं के साथ संतुष्ट होना सिखाना है. एक आदर्श ब्रम्हचारी के रूप में, भगवान वामनदेव बाली महाराज द्वारा उन्हें मनचाही वस्तु देने के प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं. वे कहते हैं कि बिना संतुष्टि के व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता भले ही उसके पास समस्त संसार या समस्त ब्रम्हांड की संपत्ति हो. इसलिए मानव समाज में, ब्राम्हण संस्कृति, क्षत्रिय संस्कृति और वैश्य संस्कृति बनाए रखना चाहिए, और लोगों को केवल उन वस्तुओं से संतुष्ट रहना सिखाया जाना चाहिए जिसकी उन्हें आवश्यकता हो. आधुनिक सभ्यता में ऐसी कोई शिक्षा नहीं है; हर व्यक्ति अधिकधिक वस्तुएँ चाहता है, और हर कोई असंतुष्ट और अप्रसन्न है. इसलिए कृष्ण चेतना आंदोलन विभिन्न आश्रम स्थापित कर रहा है, विशेष रूप से अमेरिका में, जहाँ जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ संतुष्ट रहना और आत्म-ज्ञान के लिए समय बचाना दिखाया जाए, जिसे व्यक्ति महामंत्र–हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे. हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जाप करके बहुत सरलता से प्राप्त कर सकता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 21

शास्त्रों के अनुसार धन का व्यय किस प्रकार किया जाना चाहिए?

शास्त्रों का आदेश है कि यदि किसी के पास धन हो तो उसने जो भी संग्रह किया हो उसे पाँच भागों में बाँट लेना चाहिए–एक भाग धर्म के लिए, एक भाग प्रतिष्ठा के लिए, एक भाग वैभव के लिए, एक भाग इंद्रिय तुष्टि के लिए और एक भाग अपने परिवार के पालन के लिए. वर्तमान में, यद्यपि, चूँकि लोग ज्ञान से संपूर्ण रूप से रहित हैं, वे अपना सारा धन उनके परिवार के लिए व्यय कर देते हैं. श्रील रूप गोस्वामी ने अपनी अर्जित संपत्ति का पचास प्रतिशत का उपयोग कृष्ण के लिए, पच्चीस प्रतिशत स्वयं के लिए, और पच्चीस प्रतिशत अपने परिवार के लिए उपयोग करते हुए, स्वयं अपने उदाहरण से हमें शिक्षा दी है. व्यक्ति का प्रमुख उद्देश्य कृष्ण चेतना में प्रगति करना होना चाहिए. जिसमें धर्म, अर्थ और काम सम्मिलित रहेगा. यद्यपि, चूँकि व्यक्ति के परिवार के सदस्य कुछ लाभ की आशा करते हैं, व्यक्ति को अपनी अर्जित संपत्ति का कुछ भाग उन्हें देकर उन्हें भी संतुष्ट करना चाहिए. यही शास्त्रीय आदेश है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19, पाठ 37

शरीर की सहायता के बिना, व्यक्ति धर्म प्रणाली का निर्वाह नहीं कर सकता.

भौतिक शरीर के संबंध में एक तथ्यात्मक सत्य भी कुछ मात्रा में असत्य के बिना अस्तित्वमान नहीं रह सकता. मायावादी कहते हैं, ब्रम्ह सत्यम् जगन्मिथ्या : “आत्मा सत्य है, और बाहीय ऊर्जा असत्य है.” वैष्णव दार्शनिक, यद्यपि, मायावादी दर्शन से सहमत नहीं होते. भले ही तर्क के लिए भौतिक संसार को असत्य स्वीकार किया जाए, तो मायावी ऊर्जा में अटका जीव शरीर की सहायता के बिना उससे बाहर नहीं आ सकता. शरीर की सहायता के बिना, व्यक्ति धार्मिक प्रणाली का निर्वाह नहीं कर सकता, न ही दार्शनिक दक्षता का अनुमान कर सकता है. इसलिए, फूल और फल (पुष्प-फलम) शरीर के परिणाम से अर्जित करने होते हैं. शरीर की सहायता के बिना वह फल नहीं पाया जा सकता. इसलिए वैष्णव दर्शन युक्तवैराग्य का सुझाव देता है. ऐसा नहीं है कि शरीर के पालन के लिए सारा ध्यान भटका देना चाहिए, किंतु समान रूप से व्यक्ति के शरीर की देखभाल को उपेक्षित नहीं करना चाहिए. जब तक शरीर का अस्तित्व है व्यक्ति पूर्णता से वैदिक निर्देशों का अध्ययन कर सकता है, और इस प्रकार जीवन के अंत में व्यक्ति पूर्णता पा सकता है. यह भगवद्-गीता (8.6) में बताया गया है: यम यम वापि भवम त्याजति अंते कलेवरम. मृत्यु के समय सभी वस्तुओं का परीक्षण होता है. इसलिए, भले ही शरीर अस्थायी है, अमर नहीं है, तब भी व्यक्ति उससे सर्वश्रेष्ठ सेवा ले सकता है और अपने जीवन को श्रेष्ठ बना सकता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 39

पूर्ण रूप से कृष्ण की सेवा में लगे शरीर को भौतिक मानकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए.

श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं :

प्रपंचिकतय बुद्ध्य हरि-संबंधि-वस्तुनाः
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यम फाल्गु कथ्यते

“जो व्यक्ति कृष्ण से अपने संबंध के ज्ञान के बिना वस्तुओं को त्यागता है वह अपने त्याग में अधूरा होता है.” (भक्ति-रसामृत-सिंधु 1.2.66) जब शरीर भगवान की सेवा में लगा हो, तो व्यक्ति को उसे भौतिक नहीं समझना चाहिए. कभी-कभी आध्यातमिक गुरु के आध्यात्मिक शरीर को समझने में भूल की जाती है. किंतु श्रील रूप गोस्वामी निर्देश करते हैं, प्रपंचिकतय बुद्ध्य हरि-संबंधि-वस्तुनाः. पूर्ण रूप से कृष्ण की सेवा में लगे शरीर को भौतिक मानकर उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए. जो उसकी उपेक्षा करता है वह अपने त्याग में झूठा होता है. यदि शरीर को ठीक से पालन नहीं किया जाए, तो वह सूख कर एक उखड़े हुए वृक्ष के समान गिर जाता है, जिससे फूल और फल अब और नहीं लिये जा सकते. इसलिए वेद निर्देश देते हैं:

ओम् इति सत्यं नेति अन्रतम तद् एतत-पुष्पम फलम वाचो यत सत्यम सहेश्वरो यशस्वी कल्याण-कृतिर्भाविता; पुष्पम हि फलम वाचः सत्यम वदति अथ इतन्-मूलम वाचो यद् अन्रतम यद् यथा वृक्ष अविर्मूलः शुष्यति, स उद्वर्तता एवं एवन्रतम वदन अविर्मूलम अत्मानम करोति, स शुष्यति स उद्वर्तते, तस्मद अंतर्तम न वदेद दयेत त्व एतेना. उद्देश्य यह है कि पूर्ण सत्य (ओम् तत् सत्) की संतुष्टि के लिए शरीर की सहायता से की जाने वाली गतिविधियाँ कभी भी अस्थायी नहीं होतीं, भले ही अस्थायी शरीर द्वारा संपन्न की जाएँ. निस्संदेह, ऐसी गतिविधियाँ अमर होती हैं. इसलिए, शरीर की उचित देखभाल की जानी चाहिए. क्योंकि शरीर अस्थायी है, स्थायी नहीं, व्यक्ति शरीर को किसी बाघ द्वारा निगले जाने या किसी शत्रु द्वारा मारे जाने के लिए नहीं छोड़ सकता. शरीर की सुरक्षा करने की सारी सावधानियाँ रखना चाहिए.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 40

आधुनिक सभ्यता की प्रवृत्ति निर्धन को दान में धन देने की है.

आधुनिक सभ्यता की प्रवृत्ति निर्धन को दान में धन देने की है. ऐसे दान का कोई आध्यात्मिक मूल्य नहीं होता क्योंकि हम वास्तविकता में देखते हैं कि भले ही निर्धनों के लिए बहुत से अस्पताल और अन्य संगठन और संस्थाएँ हैं, भौतिक प्रकृति की अवस्था के अनुसार निर्धन लोगों का वर्ग का नैरंतर्य ही नियति है. यद्यपि बहुत सी कल्याणकारी संस्थाएँ हैं, तब भी निर्धनता मानव समाज से नहीं गई. इसलिए यहाँ सुझाव दिया गया है, भिक्षवे सर्वम् ओम कुर्वण नलम् कामेन चात्मने. व्यक्ति को निर्धनों के बीच भिक्षुकों को सब कुछ नहीं देना चाहिए. सर्वश्रेष्ठ समाधान कृष्ण चेतना आंदोलन का ही है. यह आंदोलन हमेशा निर्धनों के प्रति दयालु रहा है, केवल इस कारण नहीं कि वह उन्हे भोजन देता है बल्कि इसलिए भी कि वह उन्हें कृष्ण चैतन्य बनने की विधि सिखा कर उन्हें आत्मज्ञान भी देता है. इसलिए हम सैकड़ों और हज़ारों केंद्र उन निर्धनों के लिए खोल रहे हैं, जो धन और ज्ञान दोनों से निर्धन हैं. उन्हें कृष्ण चेतना में आलोकित करने और अवैध यौनकर्म, नशा, मांस-भक्षण और जुए से बचने की विधि सिखा कर उनके चरित्र की दोषनिवृत्ति करने के लिए, जो कि सबसे पापमयी गतिविधियाँ हैं और जिनके कारण लोग जन्म-जन्मांतर तक कष्ट भुगतते हैं. धन का उपयोग करने की सर्वश्रेष्ठ विधि ऐसा केंद्र खोलना है, जहाँ सभी लोग आ सकें, रह सकें और अपना चरित्र सुधार सकें. वे शरीर की किसी भी आवश्यकता का त्याग किए बिना बड़े सुख से रह सकते हैं, किंतु वे आध्यात्मिक नियंत्रण में रहते हैं, और इस प्रकार वे सुखपूर्वक रहते हैं और कृष्ण चेतना में प्रगति करने के लिए समय बचाते हैं. यदि व्यक्ति के पास धन हो, तो उसे यूँ ही नहीं उड़ाना चाहिए. उसका उपयोग कृष्ण चेतना आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए ताकि समस्त मानव समाज सुखी, समृद्ध और परम भगवान तक, वापस घर की ओर पदोन्नति के लिए आशान्वित हो सके.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 41

साधना-सिद्ध और कृपा-सिद्ध भक्तों में क्या अंतर होता है?

दो प्रकार के उच्च स्तर के भक्त होते हैं, जिन्हें साधना-सिद्ध और कृपा-सिद्ध कहा जाता है. साधना-सिद्ध वह है जो शास्त्रों में उल्लिखित नियमों का नियमित पालन करते हुए भक्त बना है, जैसा आध्यात्मिक गुरु द्वारा आदेश और निर्देश दिया गया है. यदि व्यक्ति नियमित रूप से ऐसी भक्ति सेवा का पालन करता है, तो वह उचित समयावधि में निश्चित ही पूर्णता प्राप्त करेगा. किंतु अन्य भक्त होते हैं, जिन्होंने भक्ति सेवा के सभी आवश्यक विवरणों को नहीं देखा हो सकता है, लेकिन जिन्होंने गुरु और कृष्ण– आध्यात्मिक गुरु और भगवान के परम व्यक्तित्व की विशेष दया से तत्काल विशुद्ध भक्ति सेवा की पूर्णता प्राप्त की है. ऐसे भक्तों के उदाहरण यज्ञ-पत्नी, महाराज बाली और शुकदेव गोस्वामी हैं. यज्ञ- पत्नियाँ आनंददायी गतिविधियों में लगे ब्राम्हणों की सामान्य पत्नियाँ थीं. भले ही ब्राम्हण वैदिक ज्ञान में बहुत समझदार और उन्नत थे, उन्हें कृष्ण-बलराम की दया प्राप्त नहीं हो सकी, जबकि उनकी पत्नियों ने, स्त्रियाँ होने पर भी, भक्ति सेवा में संपूर्ण दक्षता अर्जित की. उसी प्रकार, वैरोचनी, बाली महाराज, को प्रह्लाद महाराज की कृपा प्राप्त हुई और प्रह्लाद महाराज की कृपा से उन्हें भगवान विष्णु की कृपा भी प्राप्त हुई, जो उनके समक्ष ब्रम्हचारी भिक्षु के रूप में प्रकट हुए थे. इस प्रकार बाली महाराज गुरु और कृष्ण दोनों की विशेष कृपा से एक कृपा-सिद्ध बने. चैतन्य महाप्रभु इस कृपा की पुष्टि करते हैं : गुरु-कृष्ण प्रसादे पाया भक्ति-लता-बीज (cc.मध्य 19.151). प्रह्लाद महाराज की कृपा से बाली महाराज को भक्ति सेवा का बीज मिला, और जब वो बीज विकसित हुआ, उन्होंने उस सेवा का परम फल प्राप्त किया, भगवान वामन देव के प्रकट होने पर तत्काल परम भगवान का प्रेम (प्रेम पुम-अर्थो महान) प्राप्त किया. बाली महाराज नियमित रूप से भगवान के प्रति समर्पण बनाए रखते थे, और चूँकि वे शुद्ध हो गए थे, भगवान उनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान के लिए शुद्ध प्रेम के कारण, उन्होंने तुरंत तय किया, “मैं इस नन्हे बौने ब्राम्हण को वह सब दूँगा जो भी वह मुझसे माँगे.” यह प्रेम का एक चिन्ह है. इसलिए बाली महाराज को वह माना जाता है जिन्हें विशेष कृपा से भक्ति सेवा की उच्चतम दक्षता प्राप्त हुई थी.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 20 – पाठ 3

कोई भी भगवान के परम व्यक्तित्व को कुछ भी नहीं दे सकता, क्योंकि वे सभी वस्तुों में परिपूर्ण होते हैं.

बाली महाराज वामनदेव को दान देना चाहते थे, किंतु भगवान ने अपने शरीर का विस्तार कुछ इस प्रकार से किया कि उन्होंने बाली महाराज को दर्शा दिया कि ब्रम्हांड में उपस्थित सभी वस्तुएँ पहले से ही उनके शरीर में विद्यमान हैं. वास्तव में कोई भी भगवान के परम व्यक्तित्व को कुछ भी नहीं दे सकता, क्योंकि वे सभी वस्तुओं में परिपूर्ण हैं. कई बार हम किसी भक्त को गंगा को ही गंगाजल अर्पित करते देखते हैं. गंगा में स्नान करने के बाद, श्रद्धालु अंजलि भर जल लेता है और उसे वापस गंगा को अर्पित करता है. वास्तव में, जब कोई गंगा से अंजलि भर जल लेता है, तो गंगा की कोई हानि नहीं होती, और उसी समान यदि कोई श्रद्धालु अंजलि भर जल गंगा को अर्पित करता है, तो गंगा का किसी भी स्तर पर विस्तार नहीं होता. किंतु ऐसे चढ़ावे द्वारा, श्रद्धालु माँ गंगा के एक भक्त के रूप में यश प्राप्त करता है. उसी प्रकार, जब हम समर्पण और श्रद्धा के साथ कुछ अर्पण करते हैं, तो हम जो अर्पण करते हैं वह हमारा नहीं होता, ना ही वह भगवान के परम व्यक्तित्व के एश्वर्य को बढ़ाता है. किंतु यदि व्यक्ति अपने स्वामित्व का जो कुछ भी अर्पित करता है, तो वह भक्त के रूप में पहचाना जाता है. इस संबंध में, उदाहरण दिया गया है कि जब व्यक्ति के मुख को हार और चंदन के लेप से सजाया जाता है, तो दर्पण में व्यक्ति का मुख स्वतः ही सुंदर बन जाता है. समस्त वस्तुओं का मूल स्रोत भगवान का परम व्यक्तित्व ही है, जो कि हमारा भी मूल स्रोत है. इसलिए जब भगवान के परम व्यक्तित्व का श्रंगार किया जाता है, तो भक्त और सारे जीवों का श्रंगार स्वतः ही हो जाता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 20 – पाठ 21

चूँकि शरीर चिर काल तक नहीं रह सकता, व्यक्ति को शरीर का उपयोग आध्यात्मिक यात्रा में प्रगति के लिए करना चाहिए.

भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण सुझाव देते हैं, सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज : “धर्म के सभी प्रकारों का त्याग करके मेरी शरण में आओ.” भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा इस प्रकार के वक्त्व्य की सराहना सामान्य व्यक्ति नहीं करता क्योंकि वह सोचता है कि उसके जीवनकाल में उसका परिवार, समाज, देश, शरीर और संबंधी ही सब कुछ हैं. भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण में जाने के लिए व्यक्ति उनमें से किसी का भी त्याग क्यों करे? किंतु प्रह्लाद महाराज और बाली महाराज जैसे महान व्यक्तित्वों के व्यवहार से हम समझते हैं कि किसी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए भगवान की शरण में जाना ही उचित कर्म है. प्रह्लाद महाराज मे अपने पिता के विरुद्ध विष्णु की शरण ली. उसी प्रकार, बाली महाराज ने अपने आध्यात्मिक गुरु, शुक्राचार्य और सभी अग्रणी दैत्यों की इच्छा के विरुद्ध वामनदेव की शरण ली. लोग आश्चर्य कर सकते हैं कि प्रह्लाद महाराज और बाली महाराज जैसे भक्तों ने, परिवार, और घर के लिए स्वाभाविक लगाव का त्याग करके, शत्रुपक्ष की शरण ली. इस संबंध में, बाली महाराजा बताते हैं कि शरीर, जो सभी भौतिक गतिविधियों का केंद्र है, वह भी एक बाहरी तत्व ही है. भले ही हम अपने शरीर को स्वस्थ और अपनी गतिविधियों के लिए सहायक बनाए रखना चाहते हैं, तो भी शरीर सदैव नहीं चल सकता. यद्यपि मैं आत्मा हूँ, जोकि अमर है, शरीर का कुछ समय उपयोग करने के बाद मुझे, प्रकृति के नियमानुसार, दूसरा शरीर स्वीकार करना पड़ेगा (तथा देहांतर-प्राप्तिः), जब तक मैं भक्ति सेवा में उन्नति के लिए शरीर के साथ कुछ सेवा प्रदान नहीं करता. व्यक्ति को शरीर का उपयोग किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं करना चाहिए. व्यक्ति को पता होना चाहिए कि यदि वह किसी अन्य उद्देश्य के लिए शरीर का उपयोग करेगा तो वह बस समय नष्ट कर रहा है, क्योंकि जैसे ही समय पूरा होगा, आत्मा स्वतः ही शरीर त्याग देगी.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 22 – पाठ 9

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