किसी भक्त की संगति महत्वपूर्ण क्यों है?
व्यक्ति को ऐसे लोगों की संगति खोजनी चाहिए जो कृष्ण चैतन्य हैं और आध्यात्मिक सेवा में रत हों. बिना ऐसी संगति के व्यक्ति प्रगति नहीं कर सकता. केवल सैद्धांतिक ज्ञान या अध्ययन द्वारा व्यक्ति सच्ची प्रगति नहीं कर सकता. व्यक्ति को भौतिकवादी व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए और भक्तों से संबंध रखना चाहिए क्योंकि बिना ऐसी संगति के व्यक्ति भगवान के क्रिया-कलापों को नहीं समझ सकता. सामान्यतः, लोग परम सत्य की अवैयक्तिक विशेषताओं का विश्वास कर लेते हैं. क्योंकि वे भक्तों से संबंध नहीं रखते, वे यह नहीं समझ सकते कि परम सत्य कोई व्यक्ति भी हो सकता है और उसकी व्यक्तिगत गतिविधियाँ हो सकती हैं. यह एक बहुत कठिन विषय है, और जब तक व्यक्ति को परम सत्य की व्यक्तिगत समझ न हो, समर्पण का कोई अर्थ नहीं होता. सेवा या समर्पण किसी अवैयक्तिक वस्तु को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. सेवा किसी व्यक्ति के लिए ही प्रस्तुत की जा सकती है. अ-भक्त श्रीमद्-भागवतम् या कोई अन्य वैदिक साहित्य पढ़ कर कृष्ण चेतना के गुण नहीं समझ सकते जहाँ भगवान के कार्य-कलापों का वर्णन किया गया है; उन्हें लगता है कि ये गतिविधियाँ काल्पनिक हैं, क्योंकि उन्हें आध्यात्मिक जीवन के बारे में उचित मनोवृत्ति से नहीं समझाया गया है. भगवान के व्यक्तिगत कार्य-कलापों को समझने के लिए, व्यक्ति को भक्तों की संगति में रहना होगा, और ऐसी संगति द्वारा, जब व्यक्ति भगवान के पारलौकिक कार्यों पर विचार करके उन्हें समझने का प्रयास करता है, तो मुक्ति का मार्ग खुल जाता है, और वह स्वतंत्र हो जाता है. वह जिसे भगवान के परम व्यक्तित्व में श्रद्धा होती है, वह स्थिर हो जाता है और भगवान औऱ भक्तों की संगति के लिए उसका आकर्षण बढ़ जाता है. भक्तों की संगति का अर्थ है भगवान की संगति. जो भक्त ऐसा संबंध रखता है वह भगवान की सेवा करने की चेतना का विकास करता है, और फिर, आध्यात्मिक सेवा की पारलौकिक अवस्था में, धीरे-धीरे पारंगत हो जाता है. सभी ग्रंथों में लोगों को पवित्रता पूर्वक कर्म करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ताकि वे इंद्रिय तुष्टि का आनंद न केवल इस जीवन में बल्कि अगले जीवन में भी कर सकें. उदाहरण के लिए, व्यक्ति को पवित्र फलदायक कर्मों द्वारा उच्चतर ग्रहों के स्वर्गीय राज्य में उन्नति का वचन दिया जाता है. लेकिन भक्तों की संगति में एक भक्त भगवान के क्रिया-कलापों पर चिंतन करने को प्राथमिकता देता है- भगवान ने यह ब्रम्हांड कैसे रचा है, कैसे वे इसका पालन करते हैं, कैसे यह रचना विलीन होती है, और कैसे आध्यात्मिक राज्य में भगवान की लीलाएँ खेली जाती हैं. इन क्रिया-कलापों का वर्णन करने वाला संपूर्ण साहित्य उपलब्ध है, विशेषकर भगवद्-गीता, ब्रम्ह संहिता और श्रीमद्-भागवतम. गंभीर भक्त जो भक्तों की संगति करता है उसे इन विषयों को सुनने और उन पर चिंतन करने का अवसर मिलता है, और परिणाम यह कि उसे इस या उस संसार में, स्वर्ग में, या अन्य ग्रहों में तथाकथित प्रसन्नता के प्रति अरुचि का अनुभव होता है. भक्तों की रुचि बस भगवान की व्यक्तिगत संगति में स्थानांतरित हो जाने में होती है; वे अब अस्थायी तथाकथित प्रसन्नता की ओर आकर्षित नहीं होते. दूसरे शब्दों में, जब भगवान का कोई भक्त उपस्थित नहीं होता, तब समाज में बहुत कष्ट रहता है, और दूसरे लोगों से संबंध कष्टदायी हो जाता है. श्रीमद-भागवतम् (3.30.7) में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति जो किसी शुद्ध भक्त के संबंध से विहीन रहकर, कृष्ण चेतना के बिना समाज, मित्रता और प्रेम के माध्यम से प्रसन्न होने का प्रयास करता है, उसे सबसे विपदाग्रस्त समझना चाहिए. बृहद-भागवतामृत (5.44) के पांचवें सर्ग में यह कहा गया है कि एक शुद्ध भक्त की संगत स्वयं जीवन से भी अधिक अभीष्ट है और उसके बिना व्यक्ति एक पल भी प्रसन्नतापूर्वक नहीं काट सकता.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति के पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 157 व 158
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2012 संस्करण, अंग्रेजी), “भगवान चैतन्य, स्वर्ण अवतार की शिक्षाएँ”, पृ. 381