अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके, जीव भगवान की सेवा से पतित हो जाता है.
जीव की प्राकृतिक स्थिति पारलौकिक प्रेममयी प्रवृत्ति में भगवान की सेवा करना है. जब जीव स्वयं कृष्ण बनना चाहता है या कृष्ण की नकल करता है, तो वह भौतिक संसार में पतित हो जाता है. चूँकि कृष्ण ही परम पिता है, जीवों के प्रति उनका प्रेम शाश्वत है. जब जीव भौतिक संसार में पतित हो जाते हैं, तो परम भगवान, अपने स्वांश विस्तार (परमात्मा) के माध्यम से जीवों को संगति देते हैं. इस विधि से जीव किसी दिन घर वापस, परम भगवान के पास वापस लौट सकते हैं. अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करके, जीव भगवान की सेवा से पतित हो जाता है और भौतिक संसार में भोक्ता की स्थिति ग्रहण कर लेता है. अर्थात्, जीव किसी भौतिक शरीर में अपनी स्थिति बना लेता है. और बहुत उच्च स्थिति की कामना करते हुए, जीव जन्म और मृत्यु के चक्र में उलझ जाता है. वह अपना पद एक मनुष्य, किसी देवता, बिल्ली, कुत्ते, कोई पेड़, इत्यादि के रूप में चुन लेता है. इस प्रकार जीव 8,400,000 रूपों में से किसी शरीर का चयन कर लेता है और विभिन्न प्रकार के भौतिक भोगों के माध्यम से स्वयं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है. यद्यपि, परमात्मा नहीं चाहता, कि वह ऐसा न करे. फलस्वरूप, परमात्मा उसे भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रति समर्पित होने का निर्देश देता है. फिर भगवान जीव का उत्तरदायित्व ले लेते हैं. लेकिन जब तक जीव भौतिक कामनाओं से प्रदूषण मुक्त नहीं हो जाता, वह परम भगवान के प्रति समर्पित नहीं हो सकता.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 28- पाठ 53