व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना को प्राप्त करने के लिए मानव शरीर आदर्श सुविधा होता है.
“ऐसे मूर्ख भौतिकवादियों के प्रति अपनी करुणा प्रदर्शित करते हुए, साकार वेद उन्हें इस प्रार्थना में यह सुझाव देते हैं कि वे उस वास्तविक उद्देश्य की स्मृति रखें जिसके लिए वे अस्तित्वमान हैं : उनके परम शुभाकांक्षी, भगवान की सेवा प्रेममय समर्पण के साथ करना. मानव शरीर व्यक्ति की आध्यात्मिक चेतना को पुनर्जीवित करने के लिए आदर्श सुविधा है; इसके अंग – कान, जीभ, आँखें आदि – भगवान के बारे में सुनने, उनकी महिमा का जप करने, उनकी पूजा करने और भक्ति सेवा के अन्य सभी आवश्यक पक्षों का निष्पादन करने के लिए पर्याप्त उपयुक्त हैं.
व्यक्ति का भौतिक शरीर केवल थोड़े समय के लिए अक्षुण्ण रहने के लिए नियत है, और इसलिए इसे कौलायम कहा जाता है, जो “पृथ्वी में विलीन” (कौ लियते) होने के लिए नियत है. तब भी, यदि इसका उचित उपयोग किया जाए तो यह व्यक्ति का श्रेष्ठतम मित्र हो सकता है. जब कोई भौतिक चेतना में डूबा रहता है, तो वैसे भी, शरीर एक मिथ्या मित्र बन जाता है, मोहग्रस्त जीव को उसके वास्तविक स्व-हित से विचलित कर देता है. जो व्यक्ति अपने और अपने दंपति, संतानों, पालतू पशुओं इत्यादि के शरीर से अति मुग्ध होते हैं वास्तव में उनके समर्पण को माया की उपासना, असद-उपासना के प्रति भटका रहे होते हैं. इस प्रकार, जैसा कि श्रुति में यहाँ कहा गया है, ऐसे लोग आध्यात्मिक आत्महत्या ही करते हैं, मानव अस्तित्व के उच्चतर दायित्वों को निभाने में विफल रहने का दंड भुगतना निश्चित करते हैं. जैसा कि ईषोपनिषद (3) घोषणा करता है:
असुर्या नाम ते लोका अंधेन तमसाव्रतः
ताम्स ते प्रेत्याभिगच्छंति ये के चात्म-हने जनाः
“आत्मा का हत्यारा, चाहे वह कोई भी हो, अन्धकार और अज्ञान से भरे हुए, अविश्वासियों के संसार के रूप में ज्ञात ग्रहों में ही प्रवेश करेगा.”
जो लोग इन्द्रियतृप्ति से अत्यधिक आसक्त हैं, या जो झूठे, भौतिकवादी शास्त्रों और दर्शन के रूप में अनित्य की उपासना करते हैं, वे उन इच्छाओं को बनाए रखते हैं जो उन्हें प्रत्येक भावी जीवन में और अधिक पतित शरीरों में ले जाती हैं. चूँकि वे संसार के निरंतर घूमते चक्र में फंस गए हैं, उनकी मुक्ति की एकमात्र आशा परम भगवान के भक्तों द्वारा कहे गए दयामय निर्देशों को सुनने का अवसर पा जाना है.”
स्रोत : अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 87- पाठ 22