भक्त यदि परिस्थितिवश गिर भी जाए तो भी कृष्ण उन्हें सभी परिस्थितियों में सुरक्षा प्रदान करते हैं.
“सामान्यतः भ्क्त पतित नहीं होते, किंतु परिस्थितिवश ऐसा हो भी जाए, तो अपने प्रति उनकी सशक्त आसक्ति के कारण भगवान, भगवान उन्हें सभी परिस्थितियों में सुरक्षा प्रदान करते हैं. अतः भक्त भले ही गिर जाएँ, तब भी वे अपने शत्रुओं के सिर के ऊपर लांघने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली होते हैं. हमने वास्तव में देखा है कि हमारे कृष्ण भावनामृत आंदोलन में कई विरोधी हैं, जैसे “डिप्रोग्रामर”, जिन्होंने भक्तों के विरुद्ध एक सशक्त कानूनी प्रकरण स्थापित किया था. हमारा विचार था कि इस प्रकरण को निपटाने में लंबा समय लगेगा, किंतु चूँकि भक्तों को भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा सुरक्षित किया गया था, इसलिए हम अप्रत्याशित रूप से एक ही दिन में इस प्रकरण में विजयी हुए. इस प्रकार जिस प्रकरण के वर्षों तक जारी रहने की आशा थी, वह एक दिन में भगवान के परम व्यक्तित्व की सुरक्षा के कारण सुलझ गया, जिन्होंने भगवद-गीता (9.31) में वचन दिया था, कौन्तेय प्रतिजानिः न में भक्त: प्रणश्यति: “हे कुन्तीपुत्र, निडरतापूर्वक घोषणा करो कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता.” इतिहास में चित्रकेतु, इंद्रद्युम्न और महाराज भरत जैसे भक्तों के कई उदाहरण हैं जो परिस्थितिवश गिरे किंतु तब भी सुरक्षित रहे. उदाहरण के लिए, महाराज भरत, जो एक हिरण से लगाव के कारण, मृत्यु के समय हिरण का विचार करते रहे, और इसलिए अपने अगले जीवन में वे एक हिरण बन गए (यं यं वापि स्मरण भावम् त्यजत्य अंते कलेवरम). यद्यपि, भगवान के परम व्यक्तित्व के संरक्षण के कारण, हिरण को भगवान के साथ अपने संबंध की स्मृति आई और उसका अगला जन्म एक भले ब्राह्मण परिवार में हुआ और उसने भक्तिमय सेवा निष्पादित की (शुचिनं श्रीमतां गेहे योग-भ्रष्टो’भिजायते). इसी प्रकार, चित्रकेतु पतित हुआ और एक राक्षस, वृत्रासुर बन गया, किंतु वह भी सुरक्षित रहा था. इस प्रकार यदि कोई भक्ति-योग के मार्ग से पतित भी हो जाता है, तो वह अंततः बचा लिया जाता है. किंतु यदि कोई भक्त परिस्थितिवश गिर भी जाए, तो भी माधव उसकी रक्षा करते हैं.
माधव शब्द महत्वपूर्ण है. माँ लक्ष्मी, सभी ऐश्वर्यों की माँ, हमेशा भगवान के परम व्यक्तित्व के साथ रहती हैं, और यदि एक भक्त भगवान के परम व्यक्तित्व के संपर्क में है, तो भगवान के सभी ऐश्वर्य उसकी सहायता के लिए तत्पर रहते हैं.
यत्र योगेश्वरं कृष्णो यत्र पार्थो धनुर-धरः
तत्र श्रीर विजयो भूतिर् ध्रुवा नीतिर् मतिर मम (भग. 18.78)
जहाँ भी भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण, और उनके भक्त अर्जुन, पार्थ होते हैं, वहाँ विजय, एश्वर्य, अतीव शक्ति और नैतिकता होते हैं. एक भक्त का ऐश्वर्य कर्म-कांड-विचार: का परिणाम नहीं होता है. भक्त की सुरक्षा सदैव परम भगवान के एश्वर्य के द्वारा की जाती है, जिससे उसे कोई भी वंचित नहीं कर सकता (तेषां नित्याभियुक्तानां योग-क्षेमं वहाम्यहम). अतः भक्त किसी भी विरोधी से नहीं हारता. इसलिए, एक भक्त को ज्ञात रहते हुए भक्ति मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए. अनुयायी भक्त के लिए भगवान के परम व्यक्तित्व की ओर से सुरक्षा सुनिश्चित होती है.”
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 33