कृष्ण चेतना और भक्ति सेवा का प्रारंभ सुनने से होता है, जिसे संस्कृत में श्रवणम् कहा जाता है. सभी लोगों को भक्ति सभा में आने और शामिल होने का अवसर दिया जाना चाहिए ताकि वे श्रवण कर सकें. कृष्ण चेतना में प्रगति करने के लिए श्रवण बहुत महत्वपूर्ण है. जब व्यक्ति पारलौकिक स्पंदनों के प्रति श्रव्य ग्राह्यता के लिए अपने कान लगाता है, तो वह शीघ्रता से अपने हृदय मंं शुद्ध हो सकता है. भगवान चैतन्य ने पुष्टि की है कि यह श्रवण बहुत महत्वपूर्ण है. यह दूषित आत्मा के हृदय की शुद्धि करता है ताकि वह भक्ति सेवा में प्रवेश करने और कृष्ण चेतना को समझने के लिए शीघ्रता से योग्य बन जाए. गरुड़ पुराण में श्रवण की महत्ता को बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है. वहाँ कहा गया है: “भौतिक संसार में बद्ध जीवन की स्थिति बिलकुल वैसी है जैसे कोई व्यक्ति सर्प के दंश से मूर्च्छित पड़ा हो. ऐसा इसलिए है क्योंकि मूर्च्छा की दोनों स्थितियों को मंत्र की ध्वनि से समाप्त किया जा सकता है.” जब कोई व्यक्ति सर्प द्वारा डंस लिया जाता है, तो वह तुरंत नहीं मरता है, बल्कि पहले मूर्च्छित हो जाता है और चेतना विहीन स्थिति में रहता है. जो भी भौतिक संसार में है वह भी सो रहा है, क्योंकि वह अपने वास्तविक आत्म या अपने वास्तविक कर्तव्य और भगवान के साथ अपने संबंध से अनभिज्ञ है. अतः भौतिक जीवन का अर्थ है कि व्यक्ति को माया, भ्रम के सर्प द्वारा डंस लिया गया है, और इस प्रकार वह कृष्ण चेतना के अभाव में, लगभग मृत है. अब सर्प द्वार डंसे गए तथा-कथित मृत व्यक्ति को कुछ मंत्रों के जाप द्वारा वापस जीवित किया जा सकता है. इन मंत्रों का जाप करने वाले विशेषज्ञ व्यक्ति होते हैं जो इस कार्य को कर सकते हैं. उसी प्रकार, इस महा-मंत्र के श्रवण द्वारा व्यक्ति को भौतिक जीवन की घातक अचेतन स्थिति से कृष्ण चेतना में वापस लाया जा सकता है: हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे. श्रीमद-भागवतम के चौथे सर्ग, चौबीसवें अध्याय, श्लोक 40 में, भगवान की लीलाओं के श्रवण का महत्व शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को बताया है: “मेरे प्रिय राजन, व्यक्ति को ऐसे स्थान पर रहना चाहिए जहाँ महान आचार्यों द्वारा भगवान की पारलौकिक गतिविधियों के बारे में बताते हों, व्यक्ति को ऐसे महान व्यक्तित्वों के चंद्रमा समान मुखों से बहने वाली अमृत सरिता पर अपने कान लगाने चाहिए. यदि कोई उत्सुकता से ऐसी पारलौकिक ध्वनियों को सुनना जारी रखता है, तो वह निश्चित ही सभी भौतिक क्षुधा, पिपासा, भय और विलाप से, और साथ ही भौतिक अस्तित्व के भ्रम से मुक्त हो जाएगा.” श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी वर्तमान कलि युग में आत्म साक्षात्कार के साधन के रूप में श्रवण की इस प्रक्रिया का सुझाव दिया है. इस युग में वेदों के नियामक सिद्धांतों और अध्ययनों का पूर्णता से पालन करना बहुत कठिन है जिनका सुझाव पूर्व में दिया गया था. यद्यपि, यदि व्यक्ति महान भक्तों और आचार्यों द्वारा स्पंदित ध्वनियों को कानों से ग्रहण करता है, तो इतने से ही उसे सभी भौतिक दूषणों से छुटकारा मिल जाएगा. अतः चैतन्य महाप्रभु का सुझाव है कि व्यक्ति को बस उन विद्वानों का श्रवण करना चाहिए जो वास्तव में भगवान के भक्त हैं. व्यवसायी व्यक्तियों का श्रवण करने से सहायता नहीं मिलेगी. यदि हम उनका श्रवण करें जो वास्तव में आत्म साक्षात्कर कर चुके हैं, तो चंद्र ग्रह पर बहने वाली सरिताओं के समान, अमृत सरिता हमारे कानों में बहने लगेंगी. इस रूपक का उपयोग उपरोक्त श्लोक में किया गया है. जैसा कि भगवद्-गीता में कहा गया है, “एक भौतिकवादी व्यक्ति केवल कृष्ण चेतना में स्थित होकर ही अपने भौतिक भटकावों का त्याग कर सकता है.” जब तक व्यक्ति एक उच्चतर संलिप्तता नहीं पाता तब तक वह अपनी निम्नतर संलिप्तताओं का त्याग नहीं कर सकता. भौतिक संसार में हर कोई हीन ऊर्जा की मायावी गतिविधियों में उलझा हुआ है, लेकिन जब व्यक्ति को कृष्ण द्वारा निष्पादित उच्चतर ऊर्जा की गतिविधियों का आनंद लेने का अवसर दिया जाता है, तो वह अपने निम्नतर सुख को भूल जाता है. जब कृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में बोलते हैं, तो भौतिकवादी व्यक्ति को यह प्रतीत होता है कि यह केवल दो मित्रों के बीच का वार्तालाप है, लेकिन वास्तव में यह श्रीकृष्ण के मुख से बहने वाली अमृत की नदी है. अर्जुन ने इस तरह के स्पंदन का बहुत स्वागत किया, और इस तरह वह भौतिक समस्याओं के सभी भ्रमों से मुक्त हो गया.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण, अंग्रेजी), “भक्ति का अमृत”, पृ. 89 व 90

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