मायावादी और एक विशुद्ध भक्त में अंतर.
ऐसे कई तथाकथित भक्त हैं जो सोचते हैं कि बद्ध अवस्था में हम भगवान के परम व्यक्तित्व की पूजा कर सकते हैं किंतु यह कि अंततः ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं है; वे कहते हैं कि चूँकि परम सत्य अवैयक्तिक है, कोई भी वर्तमान में अवैयक्तिक परम सत्य के व्यक्तिगत रूप की कल्पना नहीं कर सकता, लेकिन जैसे ही कोई मुक्त हो जाता है पूजन रुक जाता है. मायावाद दर्शन द्वारा इस अवधारणा को प्रस्तुत किया जाता है. वास्तविकता में अवैयक्तिकतावादी परम व्यक्ति के अस्तित्व में विलीन नहीं होते बल्कि उसके व्यक्तिगत शारीरिक आलोक में, जिसे ब्रम्हज्योति कहा जाता है. यद्यपि वह ब्रमहज्योति उसके व्यक्तिगत शरीर से भिन्न नहीं होती, इस प्रकार का ऐक्य एक विशुद्ध भक्त द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता क्योंकि भक्त उसके अस्तित्व में विलीन होने के तथाकथित आनंद से श्रेष्ठतर आनंद में रत होते हैं. सबसे महान आनंद भगवान की सेवा करना है. भक्त हमेशा उनकी सेवा करने के बारे में विचारमग्न रहते हैं; वे सदैव परम भगवान की सेवा करने की विधियों का आकल्पन करते रहते हैं, भले ही वे भौतिक अस्तित्व की महानतम बाधाओं के बीच हों. मायावादी भगवान की लीलाओं को कहानियों के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन वास्तव में वे कहानियाँ नहीं हैं; वे ऐतिहासिक तथ्य हैं. विशुद्ध भक्त भगवान की लीलाओं के कथन को कहानियों के रूप में नहीं बल्कि परम सत्य के रूप में स्वीकारते हैं. शब्द मम पुरुषाणि महत्वपूर्ण हैं. भक्त भगवान की गतिविधियों का गुणगान करने में बहुत रुचि रखते हैं, जबकि मायावादी इन गतिविधियों के बारे में विचार भी नहीं कर सकते. उनके अनुसार परम सत्य अवैयक्तिक है. व्यक्तिगत अस्तित्व के बिना, कोई गतिविधि कैसे हो सकती है? अवैयक्तिकतावादी श्रीमद्-भागवतम्, भगवद-गीता और अन्य वैदिक ग्रंथों में वर्णित गतिविधियों को काल्पनिक कहानियाँ समझते हैं, और इसलिए वे उन्हें बहुत उच्छृंखलता से उनका अर्थ निकालते हैं. उन्हें भगवान के परम व्यक्तित्व की कोई कल्पना नहीं है. वे अनावश्यक रूप से शास्त्रों में हस्तक्षेप करते हैं और भोली जनता को पथभ्रष्ट करने के लिए उनकी कपटपूर्ण व्याख्या करते हैं. मायावाद दर्शन के कार्यकलाप जनता के लिए बहुत घातक हैं, और इसीलिए भगवान चैतन्य ने किसी मायावादी से शास्त्रों के बारे में न सुनने की चेतावनी दी थी. वे पूरी प्रक्रिया की क्षति कर देंगे, और उन्हें सुनने वाला व्यक्ति कभी भी उच्चतम पूर्णता को अर्जित करने के लिए भक्ति सेवा के मार्ग पर आने के योग्य नहीं होगा. कपिल मुनि द्वारा यह स्पष्ट कहा गया है कि भक्ति कर्म, या भक्ति सेवा की गतिविधियाँ मुक्ति से पारलौकिक होती हैं. इसे पंचम पुरुषार्थ कहते हैं. सामान्यतः, लोग धर्म, आर्थिक विकास और इंद्रिय तुष्टि की गतिविधियों में लगे होते हैं, और अंततः वे इस विचार के साथ कार्य करते हैं कि उनका परम भगवान के साथ ऐक्य हो जाएगा (मुक्ति). लेकिन भक्ति इन सभी गतिविधियों से परे हैं. इसलिए श्रीमद्-भागवतम्, इस कथन के साथ प्रारंभ होती है कि सभी प्रकार की पूर्वाग्रहित धार्मिकता को भागवतम् से पूर्णतः मिटा दी गई हैं. आर्थिक विकास और इंद्रिय तुष्टि, और निराशा के बाद इंद्रिय तुष्टि, परम भगवान के साथ एक होने की लालसा के लिए धार्मिक गतिविधियों को भागवतम् में पूर्ण रूप से नकारा गया है. भागवतम विशेष रूप से विशुद्ध भक्तों के लिए है, जो हमेशा कृष्ण चेतना में संलग्न रहते हैं, भगवान की गतिविधियों में, और सदैव इन पारलौकिक गतिविधियों का महिमामंडन करते हैं. विशुद्ध भक्त वृंदावन, द्वारका और मथुरा में भगवान की पारलौकिक गतिविधियों की पूजा करते हैं, क्योंकि वे श्रीमद-भागवतम और अन्य पुराणों में वर्णित हैं. मायावादी दार्शनिकों ने उन्हें कहानियों के रूप में पूरी तरह से अस्वीकार किया है,, लेकिन वास्तव में वे महान और पूजनीय विषय हैं और इस प्रकार केवल भक्तों के लिए आस्वाद के योग्य हैं. यही मायावादी और एक विशुद्ध भक्त का अंतर होता है.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 25- पाठ 34