भगवान की संपत्ति का शोषण करना और साथ ही आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करना संभव नहीं है।
प्रत्येक अस्तित्वमान वस्तु परम भगवान की शक्ति और संपत्ति होती है, जिसका उद्देश्य उनकी प्रेममयी सेवा में उपयोग किए जाने का होता है। भौतिक वस्तुओं को भगवान से पृथक देखना और इस प्रकार स्वयं के स्वामित्व और भोग के लिए मानना वैकल्पिकं भ्रमम, भौतिक द्वैत का भ्रम कहलाता है। व्यक्ति अपने भोग की व्यक्तिगत वस्तु, जैसे कि भोजन, वस्त्र, निवास या वाहन का चयन करते समय, अर्जित की जाने वाली वस्तु की सापेक्ष गुणवत्ता पर विचार करता है। प्रतिक्रिया स्वरूप, भौतिक जीवन में व्यक्ति निरंतर चिंता में रहता है, व अपने व्यक्तिगत सुख के लिए सबसे उत्कृष्ट इन्द्रियतृप्ति प्राप्त करने की चेष्टा में लगा रहता है। यद्यपि, यदि व्यक्ति सभी वस्तुओं को भगवान की संपत्ति के रूप में अनुभव करता है, तो वह सभी वस्तुओं को भगवान की प्रसन्नता के लिए अभीष्ट मान कर देखेगा। वह कोई व्यक्तिगत चिंता अनभव नहीं करेगा, क्योंकि वह केवल भगवान की प्रेममयी सेवा में संलग्न रहने से संतुष्ट है। भगवान की संपत्ति का दोहन करना और साथ ही आत्म-साक्षात्कार में प्रगति करना संभव नहीं होता है।
स्रोत: अभय चरणारविंद. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद्भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 22 – पाठ 57.