उपदेश भगवान की सर्वोत्तम सेवा है.
“भगवान भगवद-गीता (18.55) में कहते हैं, भक्त्य मम अभिजनाति यवन यस कास्मि तत्त्वतः”व्यक्ति केवल भक्ति सेवा द्वारा ही परम व्यक्तित्व को समझ सकता है”. प्रह्लाद महाराज ने अंततः अपने सहपाठियों, राक्षस पुत्रों को कृष्ण चेतना का उपदेश देकर उन सभी को भक्ति सेवा की प्रक्रिया को स्वीकार करने का निर्देश दिया. उपदेश भगवान की सर्वोत्तम सेवा है. कृष्ण चेतना के प्रचार की इस सेवा में संलग्न होने वाले व्यक्ति से भगवान तुरंत ही अति संतुष्ट हो जाएंगे. इसकी पुष्टि स्वयं भगवान ने गीता (18.69) न च तस्मान मनुस्येसु कस्किन में प्रिय-कृत्मः : “इस संसार में कोई भी सेवक मुझे उससे अधिक प्रिय नहीं है, और न ही कभी कोई अन्य उससे अधिक प्रिय होगा.” यदि कोई गंभीरता से भगवान की महिमा और उनके वर्चस्व का प्रचार करके कृष्ण चेतना का प्रसार करने का पूरा प्रयास करता है, तो भले ही वह अपूर्ण रूप से शिक्षित हो, वह भगवान के परम व्यक्तित्व का सबसे प्रिय सेवक बन जाता है. यही भक्ति होती है. जब व्यक्ति मित्र और शत्रु के बीच भेदभाव किए बिना मानवता के लिए यह सेवा करता है, तो भगवान संतुष्ट होते हैं, और उसके जीवन का लक्ष्य पूरा हो जाता है. इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी को गुरु-भक्त बनने और कृष्ण चेतना का प्रचार करने का सुझाव दिया है. ( यारे देखा, तारे कहा ‘कृष्ण’ – उपदेश). भगवान के परम व्यक्तित्व का अनुभव करने का सरलतम मार्ग है. ऐसे उपदेशों द्वारा उपदेशक संतुष्ट बनता है, और जिन्हें वह उपदेश देता है वे भी संतुष्ट होते हैं. यही समस्त संसार में शांति और धैर्य बनाने की प्रक्रिया है.
भोक्ताराम यज्ञ-तपसम सर्व-लोक-महेश्वरम
सुह्रदम सर्व-भूतानाम ज्ञात्वा मम शांतिम रचति
व्यक्ति को परम भगवान के संबंध में इन तीन सूत्रों को समझ लेना चाहिए– कि वही परम भोक्ता हैं, कि वही सब कुछ के स्वामी हैं, और वही सबके परम शुभचिन्तक और मित्र हैं. एक उपदेशक को व्यक्तिगत रूप से इन सच बातों को समझना चाहिए और सबको प्रवचन करना चाहिए. तब समस्त संसार में शांति और धीरज होगा. सौहृदम (मित्र भाव) शब्द इस श्लोक में बहुत महत्वपूर्ण है. सामान्यतः लोग कृष्ण चेतना के बारे में अनजान होते हैं, और इसलिए उनका श्रेष्ठ शुभचिन्तक होने के लिए व्यक्ति को उन्हें कृष्ण चेतना के बारे में बिना भेद-भाव के शिक्षा देना चाहिए. चूँकि परम भगवान, विष्णु सबके हृदय में विराजमान हैं, अतः प्रत्येक शरीर विष्णु का मंदिर है. वयक्ति को इस ज्ञान का दुरुपयोग दरिद्र नारायण जैसे शब्दों के लिए बहाने के रूप में नहीं करना चाहिए. यदि नारायण किसी दरिद्र, विपन्न व्यक्ति के घर में रहते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि नारायण दरिद्र हैं. वे प्रत्येक स्थान में रहते हैं–किसी दरिद्र के घर में और संपन्न व्यक्तियों के घर में–लेकिन सभी परिस्थितियों में वे नारायण ही रहते हैं; यह विचार करना कि वे दरिद्र या संपन्न बन जाते हैं, भौतिक अटकल मात्र है. वे सदैव सद्-ऐश्वर्य-पूर्ण हैं, सभी परिस्थितियों में छः ऐश्वर्यों से संपन्न.”
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 24