यदि भगवान का हाथ प्रत्येक वस्तु में है, तो मुक्त होने का प्रश्न कहाँ है?
“यदि भगवान का हाथ प्रत्येक वस्तु में है, तो भौतिक बंधन से आध्यात्मिक, आनंदमय जीवन की ओर मुक्त होने का प्रश्न कहाँ है? निश्चित ही, यह एक तथ्य है कि कृष्ण सब कुछ के स्रोत हैं, जैसा कि हम स्वयं कृष्ण से भगवद्-गीता में समझते हैं (अहं सर्वस्य प्रभावः). आध्यात्मिक और भौतिक संसार दोनों में समस्त गतिविधियाँ भगवान के परम व्यक्तित्व के आदेश से या तो भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के माध्यम से संचालित होती हैं. जैसा कि भगवद्-गीता (9.10) में आगे पुष्टि की गई है, मायाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्: परम भगवान के निर्देशन के बिना, भौतिक प्रकृति कुछ भी नहीं कर सकती; वह स्वतंत्र रूप से व्यवहार नहीं कर सकती. इसलिए, शुरुआत में जीव भौतिक ऊर्जा का भोग करना चाहता था, और जीव को समस्त सुविधा देने के लिए, भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण ने भौतिक संसार की रचना की और जीव को मन के माध्यम से मनचाहे विचार और योजनाओं को रचने की सुविधा दे दी. भगवान के द्वारा जीव को दी गई ये सुविधाएँ ज्ञान-संग्रहण बुद्धि, कार्यकारी बुद्धि, मन और पाँच भौतिक तत्व के संबंध में सोलह प्रकार की काम-विकृत सहायता का विधान करती हैं. बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र का निर्माण भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा किया गया है, लेकिन भटके हुए जीव को विकास के विभिन्न चरणों के अनुसार मुक्ति की ओर प्रगति का मार्गदर्शन देने के लिए, वेदों (छंदोमयम्) में भिन्न निर्देश दिए गए हैं. यदि व्यक्ति उच्चतर ग्रह मंडलों तक उत्थान करना चाहता है, तो वह वैदिक दिशा-निर्देशों का पालन कर सकता है. जैसा कि भगवद्-गीता (9.25) में भगवान कहते हैं:
यन्ति देव-व्रत देवन पितृन् यन्ति पितृ-व्रत:
भूतानि भूतेज्य यन्ति मद-यज्ञिनो पी मम
“वे जो देवताओं की उपासना करना चाहते हैं वे देवताओं के मध्य जन्म लेंगे; जो भूत और प्रेतों को पूजते हैं वे वैसे ही जीवों के बीच जन्म लेंगे; जो पूर्वजों को पूजते हैं पूर्वजों के पास जाएंगे; और वे जो मेरी उपासना करते हैं, मेरे साथ रहेंगे.” वेदों का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति को वापस घर, परम भगवान तक जाने की दिशा देना है, किंतु जीव, अपने जीवन का वास्तविक लक्ष्य न जानते हुए, कभी यहाँ, तो कभी वहाँ जाना और कभी यह, तो कभी वह करना चाहता है. इस प्रकार वह विभिन्न प्रजातियों में बंदी रहते हुए समूचे ब्रम्हांड में भटकता है और इस प्रकार विभिन्न कर्मों में लिप्त रहता है जिनके लिए उसे फलित प्रभाव भोगने पड़ते हैं. श्री चैतन्य महाप्रभु इसलिए कहते हैं:
ब्रह्माण्ड भ्रमते कोना भाग्यवान जीव
गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाया भक्ति-लता-बीज
(Cc. मध्य 19.151)
बाह्य ऊर्जा से घिरा, पतित, बद्ध जीव, भौतिक संसार में निरुद्देश्य भटकता है, लेकिन यदि सौभाग्य से वह भगवान के किसी प्रामाणिक प्रतिनिधि से मिल ले जो उसे भक्ति सेवा का बीज देता है, और यदि वह ऐसे गुरु, या भगवान के प्रतिनिधि का लाभ ले, तो उसे भक्ति-लता- बीज, भक्ति सेवा का बीज प्राप्त हो जाता है. यदि वह समुचित रूप से कृष्ण चेतना विकसित करता है, तो वह धीरे-धीरे आध्यात्मिक संसार की ओर उत्थित हो जाता है. अंतिम निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति को भक्ति-योग के सिद्धांतों के प्रति समर्पित होना होगा, क्योंकि तब व्यक्ति धीरे-धीरे मुक्ति अर्जित कर लेगा. भौतिक संघर्ष से मुक्ति की कोई अन्य विधि संभव नहीं है. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 21