एक भक्त कभी भी उलटफेर से व्याकुल नहीं होता, जब भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा कोई व्यवस्था की जाती है.

जब भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा कोई व्यवस्था की जाती है, तो व्यक्ति को उससे व्यथित नहीं होना चाहिए, भले ही व्यक्ति के अनुमान से यह उलटा लग रहा हो. उदाहरण के लिए, कभी-कभी हम देखते हैं कि कोई शक्तिशाली प्रचारक मारा गया हो, या कभी-कभी उसे कठिनाई में डाल दिया जाए, जैसे हरिदास ठाकुर के साथ हुआ था. वह एक महान भक्त थे जो इस भौतिक संसार में भगवान के वैभव के उपदेश द्वारा भगवान की इच्छा का निष्पादन करने आए थे. लेकिन हरिदास को काज़ी द्वारा बाईस बाज़ारों मंव दंड दिया गया था. उसी प्रकार, भगवान यीशु को सूली पर टांगा गया, और प्रह्लाद महाराज को दारुण दुख में रखा गया. पांडव, जो कृष्ण के प्रत्यक्ष मित्र थे, उन्होंने अपना राज्य खो दिया, उनकी पत्नी का अपमान हुआ, और उन्हें कई कष्टों का सामना करना पड़ा था. इन सभी विपरीतताओं को देखने से भक्तों पर प्रभाव पड़ता है, व्यक्ति को व्यथित नहीं होना चाहिए; व्यक्ति को बस यह समझना चाहिए कि इन प्रसंगों में भगवान के परम व्यक्तित्व की कोई योजना होगी. भागवतम् का निष्कर्ष यह है कि एक भक्त ऐसी विपरीतताओं से कभी व्यथित नहीं होता है. वह विपरीत परिस्थितियों को भी भगवान की कृपा के रूप में स्वीकार करता है. वह जो विपरीत परिस्थितियों में भी भगवान की सेवा में लगा रहता है निश्चिंत होता है कि वह परम भगवान के पास, वैकुंठ ग्रह पर वापस जाएगा. भगवान ब्रम्हा ने देवताओं को निश्चिंत किया कि इस बारे में बात करना उपयोगी नहीं है कि अंधकार की विकट स्थिति किस प्रकार घटित हो रही थी, चूँकि वास्तविक तथ्य यह था कि इसका आदेश परम भगवान द्वारा किया गया था. ब्रम्हा यह जानते थे क्योंकि वे एक महान भक्त थे; उनके लिए भगवान की योजना को समझना संभव था.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 16- पाठ 37