एक भक्त अपनी वास्तविक अवस्था के प्रति हमेशा सचेत रहता है.
किसी बद्ध आत्मा की परिस्थिति भिन्न होती है, यदि वह अच्छाई की अवस्था में है, तो संभवतः वह उच्चतर ग्रहों पर पदोन्नति की तैयारी कर रहा होगा; यदि वह वासना की अवस्था में है, तो वह यहीं समाज में रह जाएगा जहाँ गतिविधि बहुत प्रमुख है, और यदि वह अज्ञानता की अवस्था में है, तो हो सकता है उसे पशु जीवन में या निम्नतर मानव जीवन में अवनत किया जाए. लेकिन एक भक्त को इस जीवन या अगले जीवन के प्रति कोई चिंता नहीं होती, क्योंकि किसी भी जीवन में वह भौतिक उत्थान की कामना नहीं करता. वह भगवान से प्रार्थना करता है, “मेरे प्रिय भगवान, इसका कोई महत्व नहीं कि मैं कहाँ पैदा होता हूँ, लेकिन भले ही चींटी के रूप में, लेकिन मेरा जन्म किसी भक्त के घर में हो.” एक विशुद्ध भक्त भगवान से इस भौतिक बंधन से मुक्ति की प्रार्थना नहीं करता. वास्तव में, विशुद्ध भक्त ऐसा नहीं सोचता कि वह मुक्ति के लिए योग्य है. अपने पिछले जीवन और अपनी उच्छृंखल गतिविधियों को देखते हुए, वह सोचता है कि वह नर्क के सबसे निचले क्षेत्र में भेजे जाने के लिए योग्य है. यदि इस जीवन में मैं भक्त बनने का प्रयास कर रहा हूं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं मेरे पिछले कई जन्मों में सौ प्रतिशत पवित्र था. ऐसा संभव नहीं है. इसलिए एक भक्त अपनी वास्तविक स्थिति के बारे में हमेशा सचेत होता है. भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण द्वारा, भगवान की कृपा द्वारा ही उसके कष्ट मिटते हैं. जैसा कि भगवद् गीता में कहा गया है, “मेरे प्रति समर्पण करो, और मैं तुम्हें सभी प्रकार के पापमय कर्मों से सुरक्षा प्रदान करूंगा.” यह उनकी दया है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि जिसने भगवान के चरण कमलों में समर्पण कर दिया है उसने अपने पिछले जन्मों में कोई बुरा कर्म नहीं किया है. एक भक्त हमेशा प्रार्थना करता है, “मेरे पापों के लिए, मेरा जन्म पुनः-पुनः हो, लेकिन मेरी एकमात्र प्रार्थना है कि मैं आपकी सेवा न भूलूँ.” एक भक्त की मानसिक शक्ति ऐसी होती है, और वह भगवान से प्रार्थना करता है: “चाहे मैं बार-बार जन्म लूँ, लेकिन मेरा जन्म आपके विशुद्ध भक्त के घर में हूँ ताकि मुझे अपना आध्यात्मिक जीवन विकसित करने का अवसर मिले.”
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 233 व 234