
Śrīmad-Bhāgvatam – Canto 7
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कृष्ण न तो प्रार्थनाओं से प्रभावित होते हैं और न ही निन्दा से.
जीवन की शारीरिक धारणा के कारण, बद्ध आत्मा विचार करती है कि जब शरीर का विनाश हो जाता है तो जीव का भी नाश हो जाता है. भगवान विष्णु (कृष्ण), परम भगवान के व्यक्तित्व, सर्वोच्च नियंत्रक, सभी जीवों के परम आत्मा हैं. चूँकि उनका कोई भौतिक शरीर नहीं है, इसलिए उनकी “मैं और मेरा” की कोई झूठी अवधारणा नहीं है. इसलिए यह विचार करना त्रुटिपूर्ण है कि उन्हें निंदा किए जाने या उपासना किए जाने पर कष्ट या प्रसन्नता होती है. ऐसा उनके लिए असंभव है. अतः उनका कोई शत्रु और मित्र नहीं है. जब वे दानवों को दंड देते हैं तो यह उनकी भलाई के लिए ही होता है, और जब वे भक्तों की प्रार्थना स्वीकार करते हैं तो यह उनकी भलाई के लिए होता है. वे न तो प्रार्थनाओं से प्रभावित होते हैं और न ही निन्दा से.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 1 – पाठ 25
लगातार कृष्ण का चिंतन करने की दो विधियाँ होती हैं – भक्त के रूप में और किसी शत्रु के रूप में.
“भगवद-गीता (4.10) में भगवान कहते हैं:
वीत-राग-भय-क्रोध मन-माया मम उपाश्रित:
बहावो ज्ञान तपस पुत्र मद भावम अगतः
“आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूर्ण रूप से समाकर और मुझमें शरण लेकर, पूर्व में कई लोग मेरे संज्ञान द्वारा शुद्ध हुए हैं – और इस प्रकार उन सभी ने मेरे प्रति पारलौकिक प्रेम अर्जित किया है.” लगातार कृष्ण का चिंतन करने की दो विधियाँ होती हैं – भक्त के रूप में और किसी शत्रु के रूप में. एक भक्त, निश्चित ही, अपने ज्ञान और तपस्या से, भय और क्रोध से मुक्त हो जाता है और एक शुद्ध भक्त बन जाता है. उसी प्रकार, शत्रु के रूप में शत्रुता पूर्ण विचार के साथ भी कृष्ण का चिंतन लगातार करता है और शुद्ध भी हो जाता है. भगवद-गीता (9.30) में इसकी पुष्टि अन्य स्थान पर की गई है, जहाँ भगवान कहते हैं:
अपि चेत सुदुराचरो भजते मम अनन्य-भक्
साधु एव स मन्तव्या: सम्यग व्यवस्थितो हि सः
“यहाँ तक कि यदि कोई सबसे घृणित कर्म करता है, और यदि वह भक्ति सेवा में संलग्न है, तो उसे संत माना जाना चाहिए क्योंकि वह उचित अवस्था में स्थित है.” एक भक्त निस्संदेह भगवान की आराधना बहुत ध्यान से करता है. इसी प्रकार, यदि कोई शत्रु (सुदुराचारः) सर्वदा कृष्ण के बारे में सोचता है, तो वह भी एक शुद्ध भक्त बन जाता है. यहाँ दिया गया उदाहरण घास कृमि के बारे में है जो मधुमक्खी के बारे में लगातार विचार करते हुए उसके जैसा ही बन जाता है जो उसे एक छेद में प्रवेश करने को विवश करती है. भय के कारण सदैव मधुमक्खी के बारे में सोचने से, घास के कीड़े मधुमक्खी बनने लगते हैं. यह व्यवहारिक उदाहरण है. भगवान कृष्ण इस भौतिक संसार में दो उद्देश्यों के लिए प्रकट होते हैं – परित्राणाय साधुनाम विनाशाय का दुस्कृतम: भक्तों की रक्षा के लिए और राक्षसों का विनाश करने हेतु. साधु और भक्त निश्चित रूप से सदैव भगवान के बारे में चिंतन करते हैं, लेकिन दुष्कर्मी, कंस और शिशुपाल जैसे राक्षस भी, कृष्ण के बारे में चिंतन करते हैं. कृष्ण के विचार से, राक्षस और भक्त दोनों भौतिक माया के चंगुल से मुक्ति प्राप्त करते हैं.”
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 1- पाठ 29
जीवों द्वारा विभिन्न प्रकार के शरीर स्वीकारे जाने के लिए भगवान उत्तदायी नहीं हैं.
यहाँ यह बहुत स्पष्ट रूप से समझाया गया है कि भगवान जीवों द्वारा विभिन्न प्रकार के शरीर स्वीकारे जाने के लिए उत्तदायी नहीं हैं. जीव को प्रकृति के नियमों और स्वयं के कर्मों के अनुसार ही कोई शरीर स्वीकार करना पड़ता है. इसलिए वैदिक आज्ञा यह है कि भौतिक गतिविधियों में लगे व्यक्ति को ऐसे निर्देश दिए जाएँ जिनसे वह समझदारी से अपनी गतिविधियों को भगवान की सेवा में संलग्न कर सके ताकि वह बार-बार जन्म और मृत्यु के भौतिक बंधन से मुक्त हो सके. (स्व-कर्मणा तम अभ्यर्च्य सिद्धिम विंदति मानवः). भगवान मार्गदर्शन करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. निस्संदेह, उनके निर्देश भगवद्-गीता में सविस्तार दिए गए हैं. यदि हम इन निर्देशों का लाभ लें, तो हमारे भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध होने पर भी, हम मुक्त होंगे और हमारी वास्तविक अवस्था अर्जित करेंगे (मम एव ये प्रपद्यंते मायाम एताम् तारंति ते). हमें दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि भगवान ही परम हैं और यदि हम उनके प्रति समर्पण कर दें, तो वे हमारा उत्तरदायित्व लेकर निर्देश देंगे कि हम कैसे भौतिक संसार से निकल सकते हैं और परम भगवान के पास, वापस घर जा सकते हैं. ऐसे आत्मसमर्पण के बिना, व्यक्ति अपने कर्म के अनुसार किसी निश्चित प्रकार के शरीर को स्वीकार करने के लिए बाध्य होता है, कभी-कभी एक पशु के रूप में, कभी कोई देवता और उसी प्रकार. यद्यपि शरीर प्राप्त होता है और समय के साथ खो जाता है, आत्मा वास्तव में शरीर के साथ मिश्रण नहीं करती है, बल्कि प्रकृति की विशिष्ट अवस्था के अधीन होती है जिसके साथ वह पापमय विधि से संबंध रखता है. आध्यात्मिक शिक्षा किसी की चेतना को बदल देती है ताकि व्यक्ति परम भगवान के आदेशों का पालन करे और भौतिक प्रकृति के साधनों के प्रभाव से मुक्त हो जाए.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 41
जो व्यक्ति इंद्रिय संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या करता है वह पूरी दुनिया के लिए डरावना होता है.
यद्यपि हिरण्यकश्यपु ने लंबे समय तक तपस्या की, लेकिन फिर भी उसे एक दैत्य और राक्षस के रूप में जाना जाता था. यहाँ तक कि महान संत व्यक्ति भी इस तरह की गंभीर तपस्या नहीं कर सकते थे. तब उसे राक्षस और दैत्य क्यों कहा जाता था? ऐसा इसलिए क्योंकि उसने जो भी किया वह उसकी स्वयं की इंद्रिय संतुष्टि के लिए था. उसके पुत्र प्रह्लाद महाराज केवल पाँच वर्ष के थे, अतः प्रह्लाद क्या कर सकता था? फिर भी नारद मुनि के निर्देशों के अनुसार बस थोड़ी सी भक्ति सेवा करने से, प्रह्लाद भगवान को इतना प्रिय हो गया कि भगवान उसे बचाने के लिए आए, जबकि हिरण्यकशिपु अपनी सारी तपस्या के बाद भी मारा गया था. यही भक्ति सेवा और पूर्णता की अन्य सभी विधियों का अंतर है. जो व्यक्ति इंद्रिय संतुष्टि के लिए गंभीर तपस्या करता है वह पूरी दुनिया के लिए डरावना होता है. जबकि एक भक्त जो थोड़ी सी भी भक्ति सेवा करता है, वह सभी के लिए एक मित्र (सुह्रदम सर्व-भूतानाम) होता है. चूँकि भगवान हर जीव के शुभचिंतक होते हैं और चूँकि एक भक्त भगवान के गुणों को धारण करता है, भक्त भी भक्ति सेवा द्वारा सभी के सौभाग्य के लिए कार्य करता है. इस प्रकार यद्यपि हिरण्यकश्यपु ने इतनी कठोर तपस्या की, लेकिन वह एक दैत्य और एक राक्षस ही बना रहा, जबकि प्रह्लाद महाराजा, एक ही दैत्य पिता से पैदा होकर भी, परम अनन्य भक्त बन गए और परम भगवान ने व्यक्तिगत रूप से उनकी रक्षा की. इसीलिए भक्ति को सर्वोपधि-विनर्मुक्तम कहा जाता है, जो दर्शाता है कि एक भक्त सभी भौतिक पदों से मुक्त हो जाता है, और सभी भौतिक कामनाओं से मुक्त होकर, अन्यभिलाषित-शून्यम, पारलौकिक स्थिति में स्थित हो जाता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3- पाठ 15 व 16
जीव केवल अपनी शक्ति द्वारा जीवित रह सकते हैं.
जीव केवल अपनी शक्ति द्वारा जीवित रह सकते हैं, बिना त्वचा, मज्जा, अस्थि, रक्त और अन्य वस्तुओं के भी, क्योंकि ऐसा कहा गया है, असंगो’यम पुरुषः– जीव को भौतिक आवरण से कोई लेना देना नहीं होता. हिरण्यकश्यपु ने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की थी. निस्संदेह, यह कहा जाता है कि उन्होंने एक सौ स्वर्गीय वर्षों तक तपस्या की. चूँकि देवताओं का एक दिन हमारे छः मास के समान होता है, निश्चित ही यह एक बहुत लंबी अवधि थी. प्रकृति की अपनी रीति से, उनका शरीर केंचुओं, चीटियों, और अन्य परजीवियों द्वारा लगभग पूरा खा लिया गया था, और इसीलिए पहली बार ब्रम्हा भी उन्हें नहीं देख सके थे. यद्यपि, बाद में ब्रम्हा ने पता कर लिया कि हिरण्यकशिपु कहाँ थे, और ब्रम्हा तपस्या पूरी करने के लिए हिरण्यकशिपु की असाधारण शक्ति देखकर आश्चर्यचकित थे. कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि हिरण्यकश्यपु मर गया था क्योंकि उसका शरीर कई प्रकार से ढँका हुआ था, लेकिन इस ब्रह्मांड के परम भगवान ब्रह्मा, यह समझ सकते थे कि हिरण्यकश्यपु जीवित था लेकिन वह भौतिक तत्वों से ढँका हुआ था.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3- पाठ 15 & 16
सत्यलोक में भगवान ब्रम्हा के साथ निवास करने वाले देवता वैकुंठलोक को जाते हैं.
ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य और असुर मृत्यु के अधीन हैं, जबकि देवता नहीं होते हैं. सत्यलोक में भगवान ब्रह्मा के साथ निवास करने वाले गण प्रलय के समय अपने वर्तमान शारीरिक सौष्ठव में वैकुंठलोक को जाते हैं. इसलिए यद्यपि हिरण्यकश्यपु ने घोर तपस्या की थी, भगवान ब्रह्मा ने भविष्यवाणी की कि उसे मरना होगा; वह अमर नहीं बन सका या देवताओं के समकक्ष स्थान भी नहीं पा सका. इतने वर्षों तक उसने जो घोर तपस्या की, वह उसे मृत्यु से सुरक्षा नहीं दे सकी. इसकी भविष्यवाणी भगवान ब्रम्हा द्वारा कर दी गई थी.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 21
यज्ञ का अर्थ विष्णु है.
भगवद्-गीता में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वैदिक साहित्य में कई प्रकार के यज्ञ निष्पादन का सुझाव दिया गया है, किंतु वास्तव में वे सभी परम भगवान को प्रसन्न करने के लिए किए जाते हैं. यज्ञ का अर्थ है विष्णु. भगवद्-गीता के तीसरे अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति को केवल यज्ञ, या विष्णु को संतुष्ट करने के लिए कार्य़ करना चाहिए. मानव सभ्यता का आदर्श रूप, जिसे वर्णाश्रम-धर्म के रूप में जाना जाता है, विशेष रूप से विष्णु को संतुष्ट करने के लिए होता है. इसलिए, कृष्ण कहते हैं, “मैं सभी भेंटों का भोक्ता हूँ क्योंकि मैं परम गुरु हूँ.” यद्यपि, कम बुद्धिमान व्यक्ति, इस तथ्य को जाने बिना, अस्थायी लाभ के लिए देवताओं की पूजा करते हैं. इसलिए वे भौतिक अस्तित्व के स्तर पर पतित हो जाते हैं और जीवन के वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं करते हैं. यद्यपि, यदि किसी की भौतिक कामना पूर्ण करने की इच्छा हो, तो श्रेष्ठ यही है कि वह उसके लिए परम भगवान की प्रार्थना करे (यद्यपि वह विशुद्ध भक्ति नहीं होती), और इस प्रकार वह वांछित फल अर्जित करेगा.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 24
भगवान कृष्ण मूल रचियता हैं और भगवान ब्रम्हा द्वितीय रचियता है.
वेदांत सूत्र इस घोषणा के साथ प्रारंभ होता है कि परम व्यक्तित्व समस्त रचना का मूल स्रोत होता है (जन्मादि अस्य यतः). पूछा जा सकता है कि क्या भगवान ब्रम्हा परम व्यक्ति हैं. नहीं, परम सर्वोच्च कृष्ण हैं. ब्रह्मा ने अपना चित्त, बुद्धि, सामग्री और अन्य सब कुछ कृष्ण से प्राप्त किया, और फिर वे इस ब्रह्मांड के द्वितीय रचियता, इस ब्रम्हांड के अभियंता बन गए. इस संबंध में हम ध्यान दे सकते हैं कि सृष्टि रचना दुर्घटनावश, किसी पिंड के विस्फोट के कारण नहीं होती. इस तरह के निरर्थक सिद्धांत वैदिक छात्रों द्वारा स्वीकार नहीं किए जाते हैं. भगवान द्वारा ब्रह्मा पहले सृजित जीव हैं, जो पूर्ण ज्ञान और बुद्धि से संपन्न है. जैसा कि श्रीमद-भागवतम में कहा गया है, तेने ब्रम्हा हृदय आदि-कवये: यद्यपि ब्रम्हा पहले सृजित जीव हैं, वे स्वतंत्र नहीं हैं, क्योंकि वे अपने हृदय के माध्यम से परम भगवान से सहायता प्राप्त करते हैं. इस श्लोक में भगवान ब्रम्हा का वर्णन जगत उत्पत्ति के मूल कारण के रूप में किया गया है, और भौतिक संसार में उनकी यही स्थिति है. ऐसे कई नियंत्रक हैं जिनकी रचना परम भगवान, विष्णु द्वारा की गई है. इसका उदाहरण चैतन्य-चरितामृत में वर्णित एक घटना से मिलता है. जब इस विशिष्ट ब्रम्हांड के ब्रम्हा को कृष्ण ने द्वारका आमंत्रित किया था, तो उन्हें लगा कि वही एकमात्र ब्रम्हा हैं. इसलिए जब कृष्ण ने अपने सेवक से पूछा कि द्वार पर कौन से ब्रम्हा थे, तब भगवान ब्रम्हा को आश्चर्य हुआ. उसने उत्तर दिया कि निस्संदेह, चार कुमारों के पिता भगवान ब्रह्मा दरवाजे पर प्रतीक्षा कर रहे थे. बाद में, भगवान ब्रह्मा ने कृष्ण से पूछा कि उन्होंने यह क्यों पूछा कि कौन से ब्रम्हा आए थे. तब उन्हें सूचित किया गया कि लाखों ब्रम्हा हैं क्योंकि लाखों ब्रम्हांड हैं. तब कृष्ण ने सभी ब्रम्हाओं को बुलाया, जो उनसे मिलने तुरंत आ गए. इस ब्रम्हांड के चतुर्मुखी ब्रम्हा ने स्वयं को इतने सारे ब्रम्हाओं के बीच बहुत तुच्छ अनुभव किया. इस प्रकार यद्यपि प्रत्येक ब्रम्हांड के अभियंता कोई ब्रम्हा होते हैं, उन सभी का मूल स्रोत कृष्ण ही हैं.
स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 3 – पाठ 28
सभी पापमय कृत्यों में किसी वैष्णव के प्रति अपराध सबसे गंभीर होता है.
सभी पापमय कृत्यों में किसी शुद्ध भक्त, या वैष्णव के प्रति अपराध सबसे गंभीर होता है. किसी वैष्णव के चरण कमलों में किया गया अपराध इतना विनाशक होता है कि श्री चैतन्य महाप्रभु ने इसकी तुलना एक मदमस्त हाथी से की है जो किसी वाटिका में घुस कर पेड़ पौधों को उखाड़ कर अफरा-तफरी मचा देता है. यदि कोई किसी ब्राम्हण या वैष्णव के चरण कमलों का अपराधी है, तो उसका अपराध उसके सभी मंगल कर्मों को उखाड़ फेंकता है. इसलिए व्यक्ति को वैष्णव-अपराध करने या किसी वैष्णव के चरण कमलों में अपराध करने से सावधानीपूर्वक बचना चाहिए. यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यद्यपि हिरण्यकश्यप ने भगवान ब्रह्मा से आशीर्वाद प्राप्त किया था, लेकिन जैसे ही उसने प्रह्लाद महाराज, स्वयं अपने पुत्र के चरण कमलों में अपराध किया, ये आशीर्वाद निष्क्रिय हो जाने वाले थे. प्रह्लाद महाराज जैसे एक वैष्णव का वर्णन यहाँ निर्वैर, जिसका कोई शत्रु न हो, के रूप में किया गया है. श्रीमद-भागवतम (3.25.21) में अन्यत्र कहा गया है,अजात-सत्रवः सन्त: साधवः साधुभूषण: भक्त का कोई शत्रु नहीं होता है, वह शांत होता है, वह शास्त्रों का पालन करता है, और उसके सभी गुण उदात्त होते हैं. एक भक्त किसी को भी शत्रु नहीं बनाता है, किंतु यदि कोई उसका शत्रु बनता है, तो वह व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा परास्त कर दिया जाता है, भले ही अन्य स्रोतों से उसे कितने ही आशीर्वाद प्राप्त हों. हिरण्यकश्यपु निश्चित रूप से अपनी तपस्या का फल भोग रहा था, लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं कि जैसे ही उसने प्रह्लाद महाराज के चरण कमलों में अपराध किया, वह विनष्ट हो जाएगा. व्यक्ति की आयु, वैभव, सौंदर्य, शिक्षा और जो कुछ भी उसके पास उसके पवित्र कर्मों के परिणामस्वरूप है वह उसे नहीं बचा सकता यदि उसने किसी वैष्णव के चरण कमलों में कोई अपराध किया हो. व्यक्ति के पास चाहे जो भी हो, यदि वह किसी वैष्णव के चरण कमलों में कोई अपराध करता है तो वह नष्ट हो जाएगा.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 4 – पाठ 28
भौतिक वादी शिक्षा माया का प्रभाव विस्तृत कर देता है.
कृष्ण चेतन बन जाने से अनर्थ-अपगमः, सभी अनर्थों का लोप हो जाता है, वे दयनीय स्थितियाँ जिन्हें हमने अनावश्यक ही स्वीकार कर लिया है. भौतिक शरीर इन अवांछित दयनीय स्थितियों का मूल सिद्धांत होता है. संपूर्ण वैदिक सभ्यता इन अवांछित दुखों से व्यक्ति को छुटकारा देने के लिए है, लेकिन प्रकृति के नियमों से बंधे व्यक्तियों को जीवन के लक्ष्य का पता नहीं होता है. इत-तन्त्र्यम उरु-दम्नि बद्ध: वे भौतिक प्रकृति की तीन शक्तिशाली अवस्थाओं से प्रभावित होते हैं. वह शिक्षा जो जन्म-जन्मांतर तक बद्ध आत्मा को बांधे रखती है, भौतिकवादी शिक्षा कहलाती है. श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने समझाया है कि भौतिकवादी शिक्षा माया के प्रभाव को बढ़ाती है. ऐसी शिक्षा बद्ध आत्मा को भौतिक जीवन की ओर उत्तरोत्तर आकर्षित होने के लिए प्रेरित करती है और अवांछित दुखों से मुक्ति के मार्ग से बहुत दूर भटकाती है. कोई पूछ सकता है कि उच्च शिक्षित व्यक्ति कृष्ण चेतना में क्यों नहीं आते. इसका कारण इस श्लोक में बताया गया है. जब तक व्यक्ति किसी प्रामाणिक, पूर्ण कृष्ण चेतन गुरु की शरण नहीं लेता, तब तक कृष्ण को समझने की कोई संभावना नहीं है. लाखों लोगों द्वारा सम्मानित शिक्षक, विद्वान, और राजनेता जीवन के लक्ष्य नहीं समझ सकते और कृष्ण चेतना को नहीं अपना सकते, क्योंकि उन्होंने प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु और वेदों को स्वीकार नहीं किया है. इसलिए मुंडक उपनिषद (3.2.3) में कहा गया है, नयम् अत्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुणा श्रुतेन : केवल अकादमिक शिक्षा प्राप्त करके, एक विद्वतापूर्ण विधि से (प्रवचनेन लभ्यः) व्याख्यान प्रस्तुत करके, या कई अद्भुत चीजों का पता लगाने वाले एक बुद्धिमान वैज्ञानिक होने मात्र से, व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता है. जब तक व्यक्ति को भगवान के परम व्यक्तित्व की कृपा नहीं मिलती, तब तक वह कृष्ण को नहीं समझ सकता. केवल वही कृष्ण को समझ सकता है, जिसने कृष्ण के शुद्ध भक्त के समक्ष समर्पण किया हो और उसके चरण कमलों की धूलि धारण की हो.
अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, सातवाँ सर्ग, अध्याय 5 – पाठ 32
गृहस्थ जीवन की तुलना अंधकूप से क्यों की जाती है?
गृहस्थ प्रसंगों में पहला आकर्षण सुंदर और सुखदायक पत्नी होती है, जो गृहस्थी के आकर्षण को अधिक से अधिक बढ़ाती है. व्यक्ति अपनी पत्नी का भोग दो प्रमुख इंद्रियों के साथ करता है, अर्थात् जिव्हा और जननांग. पत्नी बहुत मीठा बोलती है. यह निश्चित रूप से एक आकर्षण होता है. फिर वह जिव्हा को संतुष्ट करने के लिए बहुत ही स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ तैयार करती है, और जब जिव्हा संतुष्ट हो जाती है तो व्यक्ति को अन्य इंद्रियों, विशेषकर जननेंद्रियों में शक्ति मिलती है. इस प्रकार पत्नी संभोग में आनंद देती है. गृहस्थ जीवन का अर्थ है यौन जीवन (यन मैथुनादि-गृहमेधि-सुखम हि तुच्छम्). इसे जिव्हा द्वारा बढ़ावा दिया जाता है. फिर संतानें होती हैं. एक बालक टूटी-फूटी भाषा में मीठे बोल बोलकर प्रसन्नता देता है, और जब पुत्र और पुत्रियाँ बड़े हो जाते हैं तो व्यक्ति उनकी शिक्षा और विवाह में व्यस्त हो जाता है. फिर देखभाल करने के लिए व्यक्ति के माता पिता होते हैं, और व्यक्ति सामाजिक वातावरण और अपने भाई बहनों को प्रसन्न करने के बारे में भी चिंता करने लगता है. एक व्यक्ति गृहस्थ प्रसंगों में अधिकाधिक उलझता जाता है, इतना अधिक कि उन्हें छोड़ना लगभग असंभव हो जाता है. इस प्रकार गृहस्थी गृहम् अंधकूपम् बन जाती है, एक अंधा कुआँ जिसमें व्यक्ति गिर गया हो. एसे वयक्ति के लिए बाहर निकलना अत्यंत कठिन होता है जब तक कि उसकी सहायता कोई शक्तिशाली व्यक्ति, आध्यात्मिक गुरु न करे, जो गिरे हुए व्यक्ति की सहायता आध्यात्मिक निर्देशों की रस्सी द्वारा करते हैं. एक गिरे हुए व्यक्ति को इस रस्सी का लाभ उठाना चाहिए, और फिर आध्यात्मिक गुरु, या भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण, उसे अंधे कुएँ से बाहर निकाल देंगे.
स्रोत :अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, सातवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 13
उपदेश भगवान की सर्वोत्तम सेवा है.
“भगवान भगवद-गीता (18.55) में कहते हैं, भक्त्य मम अभिजनाति यवन यस कास्मि तत्त्वतः”व्यक्ति केवल भक्ति सेवा द्वारा ही परम व्यक्तित्व को समझ सकता है”. प्रह्लाद महाराज ने अंततः अपने सहपाठियों, राक्षस पुत्रों को कृष्ण चेतना का उपदेश देकर उन सभी को भक्ति सेवा की प्रक्रिया को स्वीकार करने का निर्देश दिया. उपदेश भगवान की सर्वोत्तम सेवा है. कृष्ण चेतना के प्रचार की इस सेवा में संलग्न होने वाले व्यक्ति से भगवान तुरंत ही अति संतुष्ट हो जाएंगे. इसकी पुष्टि स्वयं भगवान ने गीता (18.69) न च तस्मान मनुस्येसु कस्किन में प्रिय-कृत्मः : “इस संसार में कोई भी सेवक मुझे उससे अधिक प्रिय नहीं है, और न ही कभी कोई अन्य उससे अधिक प्रिय होगा.” यदि कोई गंभीरता से भगवान की महिमा और उनके वर्चस्व का प्रचार करके कृष्ण चेतना का प्रसार करने का पूरा प्रयास करता है, तो भले ही वह अपूर्ण रूप से शिक्षित हो, वह भगवान के परम व्यक्तित्व का सबसे प्रिय सेवक बन जाता है. यही भक्ति होती है. जब व्यक्ति मित्र और शत्रु के बीच भेदभाव किए बिना मानवता के लिए यह सेवा करता है, तो भगवान संतुष्ट होते हैं, और उसके जीवन का लक्ष्य पूरा हो जाता है. इसलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने सभी को गुरु-भक्त बनने और कृष्ण चेतना का प्रचार करने का सुझाव दिया है. ( यारे देखा, तारे कहा ‘कृष्ण’ – उपदेश). भगवान के परम व्यक्तित्व का अनुभव करने का सरलतम मार्ग है. ऐसे उपदेशों द्वारा उपदेशक संतुष्ट बनता है, और जिन्हें वह उपदेश देता है वे भी संतुष्ट होते हैं. यही समस्त संसार में शांति और धैर्य बनाने की प्रक्रिया है.
भोक्ताराम यज्ञ-तपसम सर्व-लोक-महेश्वरम
सुह्रदम सर्व-भूतानाम ज्ञात्वा मम शांतिम रचति
व्यक्ति को परम भगवान के संबंध में इन तीन सूत्रों को समझ लेना चाहिए– कि वही परम भोक्ता हैं, कि वही सब कुछ के स्वामी हैं, और वही सबके परम शुभचिन्तक और मित्र हैं. एक उपदेशक को व्यक्तिगत रूप से इन सच बातों को समझना चाहिए और सबको प्रवचन करना चाहिए. तब समस्त संसार में शांति और धीरज होगा. सौहृदम (मित्र भाव) शब्द इस श्लोक में बहुत महत्वपूर्ण है. सामान्यतः लोग कृष्ण चेतना के बारे में अनजान होते हैं, और इसलिए उनका श्रेष्ठ शुभचिन्तक होने के लिए व्यक्ति को उन्हें कृष्ण चेतना के बारे में बिना भेद-भाव के शिक्षा देना चाहिए. चूँकि परम भगवान, विष्णु सबके हृदय में विराजमान हैं, अतः प्रत्येक शरीर विष्णु का मंदिर है. वयक्ति को इस ज्ञान का दुरुपयोग दरिद्र नारायण जैसे शब्दों के लिए बहाने के रूप में नहीं करना चाहिए. यदि नारायण किसी दरिद्र, विपन्न व्यक्ति के घर में रहते हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि नारायण दरिद्र हैं. वे प्रत्येक स्थान में रहते हैं–किसी दरिद्र के घर में और संपन्न व्यक्तियों के घर में–लेकिन सभी परिस्थितियों में वे नारायण ही रहते हैं; यह विचार करना कि वे दरिद्र या संपन्न बन जाते हैं, भौतिक अटकल मात्र है. वे सदैव सद्-ऐश्वर्य-पूर्ण हैं, सभी परिस्थितियों में छः ऐश्वर्यों से संपन्न.”
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, सातवाँ सर्ग, अध्याय 6 – पाठ 24
व्यक्ति को किसी एकांत स्थल में किसी स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिए.
“यह श्रीमद-भागवतम (9.19.17) में कहा गया है
मात्र सवश्र दुहित्र व नविविकटासनो भवेत
बलवान इंद्रिय-ग्रामो विध्वसं अपि कर्षति
वयक्ति को किसी स्त्री के साथ एकांत में नहीं रुकना चाहिए, भले ही वह उसकी माता, बहन या पुत्री हो. यद्यपि किसी स्त्री के साथ एकांत में रुकने की कड़ी मनाही है, फिर भी नारद मुनि ने प्रह्लाद महाराज की युवा माता को शरण दी थी, जिन्होंने उनकी सेवा बहुत समर्पण और निष्ठा के साथ की थी. क्या इसका अर्थ यह है कि नारद मुनि ने वैदिक निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया? निश्चित रूप से उन्होंने ऐसा नहीं किया. ऐसी निषेधाज्ञाएँ सांसारिक प्राणियों के लिए होती हैं, किंतु नारद मुनि सांसारिक श्रेणियों की तुलना में पारलौकिक हैं. नारद मुनि एक महान संत हैं और पारलौकिक रूप से स्थित हैं. इसलिए, यद्यपि वे एक युवक थे, तब भी वे एक युवती को आश्रय दे सकते थे और उसकी सेवा स्वीकार कर सकते थे. हरिदास ठाकुर ने भी घोर रात्रि में, एक युवा स्त्री, एक वेश्या से वार्तालाप किया था, किंतु वह स्त्री उनके मन को भटका न सकी. बल्कि, हरिदास ठाकुर के आशीर्वाद से वह एक वैष्णवी, एक शुद्ध भक्त बन गई. तथापि, साधारण व्यक्तियों को ऐसे उन्नत भक्तों की नकल नहीं करनी चाहिए. साधारण व्यक्तियों को स्त्रियों की संगति से दूर रहकर नियमों का पालन करना चाहिए. किसी को भी नारद मुनि या हरिदास ठाकुर की नकल नहीं करनी चाहिए. कहा जाता है, वैष्णव क्रिया-मुद्रा विज्ने न बुझाय. यदि कोई व्यक्ति शिक्षा में बहुत उन्नत हो, तो भी वह किसी वैष्णव के व्यवहार को नहीं समझ सकता है. कोई भी व्यक्ति एख शुद्ध वैष्णव का आश्रय, निर्भय होकर ले सकता है. इसलिए पिछले श्लोक में स्पष्ट कहा गया है, देवर्षेर अंतिको सकुटो-भय : कयधु, प्रह्लाद महाराज की माता, नारद मुनि के संरक्षण में किसी भी दिशा से भय के बिना रहीं. उसी प्रकार, नारद मुनि, अपनी पारलौकिक स्थिति में, युवा स्त्री के साथ, पथभ्रष्ट होने के भय के बिना रहे. नारद मुनि, हरिदास ठाकुर और समान आचार्य जिन्हें भगवान की महिमा का प्रसार करने के लिए विशेष शक्ति दी गई है, भौतिक स्तर पर नहीं पतित किए जा सकते. इसलिए व्यक्ति को यह विचार करने की कड़ी मनाही की जाती है कि आचार्य कोई साधारण मनुष्य होते हैं (गुरुषु नरमतिः).”
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, सातवाँ सर्ग, अध्याय 7- पाठ 14
नित्य-सिद्ध भक्त कौन होते हैं?
“भक्ति-रसामृत-सिंधु में नित्य सिद्ध और साधना-सिद्ध भक्तों के बारे में विचारणीय चर्चा दी गई है. नित्य-सिद्ध भक्त वैकुंठ से इस भौतिक संसार में अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा या शिक्षा देने हेतु आते हैं कि भक्त कैसे बनें. इस भौतिक संसार में जीव ऐसे नित्य सिद्ध भक्तों से शिक्षा ले सकते हैं और इस प्रकार वापस परम भगवान के पास, घर लौटने को उन्मुख बन सकते हैं. नित्य सिद्ध भक्त वैकुंठ से भगवान के परम व्यक्तित्व के आदेश पर आता है और अपने उदाहरण द्वारा बताता है कि शुद्ध भक्त (अन्यभिलासिता-सुन्यम्) कैसे बनें. इस भौतिक संसार में आने पर भी, नित्य सिद्ध भक्त कभी भी भौतिक भोग के प्रलोभन से आकर्षित नहीं होता. एक श्रेष्ठ उदाहरण प्रह्लाद महाराज हैं, जो एक नित्य सिद्ध, महा-भगवत भक्त थे. यद्यपि प्रह्लाद का जन्म हिरण्यकशिपु, एक नास्तिक के परिवार में हुआ था, तब भी वे किसी भी प्रकार के भौतिक भोग से कभी आसक्त नहीं हुए.
एक शुद्ध भक्त के लक्षण प्रदर्शित करने की इच्छा से, भगवान ने प्रह्लाद महाराज को भौतिक वरदान लेने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया, किंतु प्रह्लाद महाराज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया. इसके विपरीत, अपने व्यक्तिगत उदाहरण द्वारा उन्होंने एक शुद्ध भक्त के लक्षण दिखाए. दूसरे शब्दों में, अपने शुद्ध भक्तों को इस भौतिक संसार में भेजने की इच्छा स्वयं भगवान नहीं करते, न ही किसी भक्त का यहाँ आने का कोई भौतिक उद्देश्य होता है. जब भगवान स्वयं इश भौतिक संसार में अवतार के रूप में प्रकट होते हैं, तो वे भौतिक वातावरण से आकर्षित नहीं होते, और उन्हें भौतिक गतिविधियों से कुछ लीजे-दीजे नहीं होता, फिर भी वे अपने उदाहरण से सामान्य मानव को शिक्षा देते हैं कि कैसे एक भक्त बना जाए. उसी प्रकार, एक भक्त जो परम भगवान के आदेशानुसार यहाँ आता है, अपने व्यक्तिगत व्यवहार द्वारा दिखाता है कि एक शुद्ध भक्त कैसे बनते हैं. इसलिए, एक शुद्ध भक्त, भगवान ब्रम्हा सहित सभी जीवों के लिए एक व्यावहारिक उदाहरण होता है. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 10- पाठ 03
वे जिनके चित्त भौतिक कामनाओं से विकृत हो जाते हैं, देवताओं की शरण लेते हैं.
जैसा कि भगवद्-गीता (7.20) में कहा गया है, कामैष तैस हृत ज्ञानाः प्रपद्यंते’ न्य-देवताः. “वे जिनके चित्त भौतिक कामनाओं से विकृत हो जाते हैं, देवताओं की शरण लेते हैं.” देवता स्वामी नहीं बन सकता, क्योंकि वास्तविक स्वामी भगवान के परम व्यक्तित्व ही हैं. अपने प्रतिष्ठित पद को बनाए रखने के लिए, देवता अपने उपासकों को मनचाहे वर दे देते हैं जो भी उपासक चाहता है. उदाहरण के लिए, एक बार पता लगा कि असुर को भगवान शिव से ऐसा वर मिला है जिसके द्वारा असुर किसी के भी सिर पर हाथ रखकर उसे मार सकेगा. देवताओं से एसे वरदान पाना संभव है. यदि व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व की उपासना करता है, तो, यद्यपि भगवान कभी भी उसे ऐसे निंदित वरदान नहीं देंगे. इसके विपरीत, श्रीमद्-भागवतम् (10.88.8) में कहा गया है, यस्यहम् अनुग्रहणामि हरिष्ये तद्-धनम शनैः. यदि व्यक्ति बहुत भौतिकवादी है किंतु साथ ही परम भगवान का सेवक बनना चाहता है, तो भक्त के लिए उनकी परम करुणा के कारण, भगवान, उसकी समस्त भौतिक संपन्नता हर लेते हैं और उसे भगवान का शुद्ध भक्त बनने की कृपा करते हैं. प्रह्लाद महाराज शुद्ध भक्त और शुद्ध स्वामी का अंतर पहचानते हैं. भगवान शुद्ध स्वामी हैं, परम स्वामी हैं, जबकि किसी भी भौतिक उद्देश्य से विहीन एक पवित्र भक्त ही शुद्ध भक्त होता है. वह जिसकी भौतिक प्रेरणा हो वह सेवक नहीं बन सकता, और वह जो अपना प्रतिष्ठित पद बनाए रखने के लिए अनावश्यक रूप से अपने सेवक को वरदान प्रदान करता है सच्चा स्वामी नहीं होता.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 10- पाठ 05
न ही मृत्यु और न ही जीवन की प्रशंसा करनी चाहिए.
“भौतिक संसार में जीव, न केवल वर्तमान में बल्कि भूतकाल में भी, जन्म और मृत्यु की गुत्थी सुलझाने में शामिल रहे हैं. कुछ मृत्यु पर बल देते हैं और समस्त भौतिक मायावी अस्तित्व पर अंगुली उठाते हैं, जबकि अन्य जीवन पर बल देते हैं, उसे अनंतकाल के लिए बनाए रखना चाहते हैं और उनकी योग्यता की सीमा तक उसका भोग करना चाहते हैं. वे दोनों ही मूर्ख और बौड़म हैं. चूँकि भौतिक शरीर का नाश होना निश्चित है और व्यक्ति के जीवन की अवधि तय नहीं है, तो न मृत्यु की और न ही जीवन की प्रशंसा करना चाहिए. ऐसा सुझाव दिया गया है कि व्यक्ति को शाश्वत समय का अवलोकन करना चाहिए, जो भौतिक शरीर के प्रकट होने और खो जाने का कारण होता है, और व्यक्ति को इस समय में जीव के उलझाव का अवलोकन करना चाहिए. इसलिए श्रील भक्तिविनोद ठाकुर अपनी गीतावली में गाते हैं:
अनादि करम-फले, पड़ी भवर्णव-जले,
तरिबरे न देखी उपाय
व्यक्ति को शाश्वत समय की गतिविधियों का अवलोकन करना चाहिए, जो कि जन्म और मृत्यु का कारण है. वर्तमान सहस्त्राब्दि की रचना से पहले, जीव समय चक्र के प्रभाव के अधीन थे, और समय चक्र के भीतर ही भौतिक संसार अस्तित्व में आता है और फिर से नष्ट हो जाता है. भूत्वा भूत्वा प्रलियते. समय चक्र के नियंत्रण में रहते हुए, जीव जन्मों-जन्मों तक उत्पन्न होते और मरते हैं. यह समय चक्र भगवान के परम व्यक्तित्व का अवैयक्तिक प्रतिनिधित्व है, जो भौतिक प्रकृति से बद्ध जीवों को उनकी शरण में आकर इस प्रकृति से उभरने का अवसर देते हैं. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 06
आध्यात्मिक लाभ से विहीन साहित्य का तिरस्कार करना चाहिए.
“जो व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है उसे सामान्य साहित्य को पढ़ने से बचने के लिए बहुत सावधान रहना चाहिए. संसार साधारण साहित्य से भरा पड़ा है जो मन में अनावश्यक व्यग्रता पैदा करता है. ऐसा साहित्य, जिसमें अखबार, नाटक, उपन्यास और पत्रिकाएँ होते हैं, वास्तविक रूप से आध्यात्मिक उन्नति के लिए अभीष्ट नहीं होता. निस्संदेह, उसका वर्णन कौवों की आनंद स्थली के रूप में किया गया है (तद् वयसम तीर्थम्). जो भी आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति कर रहे हों उन्हें ऐसे साहित्य का तिरस्कार करना चाहिए. इसके अतिरिक्त, व्यक्ति को विभिन्न तर्कशास्त्रियों अथवा दार्शनिकों के निष्कर्षों की चिंता नहीं करनी चाहिए. निश्चित ही, जो उपदेश करते हैं उन्हें कभी-कभी विरोधी के तर्कों का प्रतिकार करना होता है, लेकिन जितना भी हो सके व्यक्ति को इस संबंध में विवादपूर्ण प्रवृत्ति से बचना चाहिए, श्रील माधवाचार्य कहते हैं:
अप्रयोजना-पक्षम न संसारयेत नप्रयोजना-पक्षी स्यान
न वृथा शिष्य-बंध-कृत न कोडसिंहः शास्त्री
न विरुद्धनि चाभ्यसेत न व्यख्यायोपजिवेता
न निसिद्धं समाकरेत एवम-भूतो यतिर् यति
तद-एक-सरानो हरिम
“अनावश्यक साहित्य शरण लेने की या स्वयं को बहुत से तथाकथित दार्शनिकों की चिंता में लगाने की कोई आवश्यकता नहीं, जो आध्यात्मिक प्रगति में अनुपयोगी होते हैं. न ही व्यक्ति को फ़ैशन या लोकप्रियता के निमित्त किसी शिष्य को स्वीकार ही करना चाहिए. व्यक्ति तो इन तथाकथित शास्त्रों के प्रति असंवेदनशील होना चाहिए, न तो उनका विरोध करें न ही पक्ष लें, और व्यक्ति को शास्त्र की व्याख्या के लिए धन लेकर अपनी जीविका नहीं कमानी चाहिए. एक सन्यासी को हमेशा तटस्थ रहना चाहिए और भगवान के चरण कमलों में संपूर्ण रूप से शरण लेकर आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के साधन ढूँढने चाहिए.”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13 – पाठ 7
वरदानों के लिए कैसे प्रार्थना करें?
“भगवान श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमें शिक्षा दी है कि भगवान से वरदान पाने के लिए कैसे प्रार्थना करें. उन्होंने कहा:
न धनम न जनम न सुंदरिम कविताम व जगदीश कामये
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवतद भक्तिर् अहैतुकित्वयी
“मेरे भगवन्, मैं आपसे कोई धनराशि नहीं चाहता, न ही कई अनुयायी, न ही सुंदर पत्नी, क्योंकि ये सभी भौतिक कामनाएँ हैं. किंतु यदि मुझे आपसे कोई वरदान माँगना होगा, मैं प्रार्थना करता हूँ कि मैं किसी भी परिस्थिति में, चाहे किसी भी रूप में जन्म लूँ, मैं आपकी पारलौकिक भक्ति सेवा से च्युत न होऊँ.” भक्त हमेशा सकारात्मक पटल पर होते हैं, मायावादियों के विपरीत, जो प्रत्येक वस्तु को अवैयक्तिक या शून्य बनाना चाहते हैं. व्यक्ति शून्यवादी नहीं बना रह सकता; बल्कि, व्यक्ति का किसी वस्तु पर स्वामित्व होना चाहिए. इसलिए, सकारात्मक स्तर पर भक्त, किसी वस्तु पर स्वामित्व चाहता है, और इस स्वामित्व को प्रह्लाद महाराज ने बहुत अच्छे से वर्णित किया है, जो कहते हैं, “यदि मुझे आपसे कोई वरदान लेना ही है, तो मेरी प्रार्थना है कि मेरे हृदय के केंद्र में कोई भी भौतिक कामनाएँ न हों.” भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा करने की कामना किसी भी प्रकार से भौतिक नहीं होती है.”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 10- पाठ 07
शास्त्रों द्वारा संपत्ति संचय करने की अनुमति नहीं दी गई है.
“भगवान की कृपा से कभी-कभी हमें अन्न की बहुत बड़ी मात्रा मिल जाती है या हम अचानक कोई अनुदान या व्यवसाय में अनपेक्षित लाभ पा जाते हैं. इस प्रकार हमें आवश्यकता से अधिक धन मिल सकता है. अतः, उसका व्यय कैसे करना चाहिए? केवल बैंक बैलेंस बढ़ाने के लिए बैंक में धन जमा करने की कोई आवश्यकता नहीं है. इस प्रकार की मानसिकता को भगवद-गीता (16.13) में आसुरी मानसिकता बताया गया है.
इदं आद्य माया लब्धं इमाम प्रपस्ये मनोरथम
इदं अस्तिदम अपि मे भविष्यसति पुनर धनम्
“आसुरी व्यक्ति सोचता है, ‘मेरे पास आज बहुत संपत्ति है, और मैं अपनी योजनानुसार और भी अर्जित करूँगा. आज मेरे पास बहुत है, और भविष्य में यह और अधिक, और अधिक बढ़ेगा.’ ” असुर का विचार यही होता है कि उसके पास आज बैंक में कितनी संपत्ति है और वह कल कितनी बढ़ेगी, लेकिन संपत्ति का असीमित संचयन शास्त्रों या आधुनिक युग में, सरकार द्वारा अनुमत नहीं है. वास्तव में, यदि किसी के पास अपनी आवश्यकता से अधिक है, तो अतिरिक्त धन को कृष्ण के लिए व्यय करना चाहिए. वैदिक सभ्यता के अनुसार, वह सारा कृष्ण चेतना आंदोलन को दे देना चाहिए, जैसा कि स्वयं भगवान द्वारा भगवदा-गीता (9.27) में आदेश किया गया है:
यत् करोसी यद असनासी यज जुहोसी दादासी यत्
यत् तपस्यासि कौन्तेय तत् कुरुस्व मद्-अर्पणम
“हे कुंती पुत्र, जो कुछ भी तुम करते हो, जो कुछ भी तुम खाते हो, जो कुछ भी तुम अर्पण करके दान करते हो, और साथ ही समस्त तप जो तुम करते हो, वह सब मुझे अर्पण करते हुए करना चाहिए.” गृहस्थों को अतिरिक्त धन केवल कृष्ण चेतना आंदोलन के लिए व्यय करना चाहिए.
गृहस्थों को परम भगवान के मंदिर निर्माण के लिए और समस्त संसार में श्रीमद् भगवद् -गीता, या कृष्ण चेतना के प्रचार के लिए योगदान करना चाहिए. श्रवण भगवतो भिक्षाणम् अवतार-कथामृतम्. शास्त्रों –पुराणों और अन्य वैदिक साहित्य–में भगवान के परम व्यक्तित्व की पारलौकिक गतिविधियों का वर्णन करने वाले कई विवरण हैं, और सभी को उनका श्रवण बार-बार करना चाहिए. उदाहरण के लिए, यदि हम संपूर्ण भगवद्-गीता, का पाठ हर दिन भी करें, तो सभी अठारह अध्यायों को हर बार पढ़ने पर हमें एक नई व्याख्या मिलेगी. पारलौकिक साहित्य का यही स्वभाव होता है. इसलिए कृषण चेतना आंदोलन व्यक्ति को अपनी अतिरिक्त आय का व्यय कृष्ण चेतना के प्रसार के द्वारा समस्त मानव समाज के लाभ के लिए करने का अवसर देता है. विशेषकर भारत में हम सैकड़ों – सहस्त्रों मंदिर देखते हैं जिनका निर्माण समाज के धनिक व्यक्तियों द्वारा कराया गया था जो स्वयं को चोर कहलाना और दंड भोगना नहीं चाहते थे. यह श्लोक बहुत महत्वपूर्ण है. जैसा कि यहाँ कहा गया है, वह जो आवश्यकता से अधिक धन का संचय करता है, चोर होता है, और प्रकृति के नियम द्वारा उसे दंड दिया जाएगा. वह व्यक्ति जो आवश्यकता से अधिक धन अर्जित करता है, वह अधिक से अधिक भौतिक सुखों को भोगने का इच्छुक बन जाता है. भौतिकवादी बहुत सी कृत्रिम आवश्यकताओं को जन्म दे रहे हैं, और जिनके पास धन है, वे ऐसी कृत्रिम आवश्यकताओं से आकर्षित होकर अधिक से अधिक वस्तुओं को पाने हेतु धन का संग्रह करने का प्रयास करते हैं. आधुनिक आर्थिक विकास की यही अवधारणा है. हर कोई धन कमाने में लगा हुआ है, और धन को बैंक में रखा जाता है, जो धन को जनता को प्रस्तुत करते हैं. गतिविधियों के इस चक्र में, हर कोई अधिक से अधिक धन पाने में लगा हुआ है, और इसलिए मानव जीवन का आदर्श लक्ष्य खोता जा रहा है. संक्षिप्त में, यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति चोर है और दंड पाने के योग्य है.
प्रकृति के नियमों द्वारा दंड जन्म और मृत्यु के चक्र में घटित होता है. कोई भी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति से संतुष्ट होकर नहीं मरता, क्योंकि ऐसा संभव नहीं है. इसलिए व्यक्ति की मृत्यु के समय, वह अपनी कामनाओं को पूरा करने में अक्षम होने के कारण दुखी रहता है. फिर प्रकृति के नियमों द्वारा वयक्ति को उसकी असंतुष्ट इच्छाओं की पूर्ति के लिए एक और शरीर दे दिया जाता है, और पुनः जन्म लेते, एक और भौतिक शरीर स्वीकारते समय, व्यक्ति स्वेच्छा से जीवन के त्रिविध कष्टों को स्वीकार कर लेता है. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14 – पाठ 8
30 योग्यताएँ जिन्हें जीवन के मानव रूप में अवश्य अर्जित करना चाहिए.
“ये सभी मानवों द्वारा पालन करने योग्य सामान्य सिद्धांत हैं : सच्चाई, दया, तप (महीने के विशेष दिनों में उपवास रखना), दिन में दो बार स्नान करना, सहनशीलता, उचित और अनुचित के बीच भेद करना, मन पर नियंत्रण, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, दान, शास्त्रों का पाठ, सरलता, संतुष्टि, संत व्यक्तियों की सेवा करना, अनावश्यक अवलंबनों से धीरे-धीरे छुटकारा पाना, मानव समाज की अनावश्यक गतिविधियों का अवलोकन करना, मौन रहना और अनावश्यक वार्तालाप से बचना, विचार करना कि व्यक्ति शरीर है या आत्मा, सभी जीवों को बराबरी से भोजन बाँटना (मानव और पशु दोनों), हर आत्मा (विशेषकर मानव रूप में) को परम भगवान के अंश के रूप में देखना, भगवान के परम व्यक्तित्व (जो संत व्यक्तियों के शरण हैं) की गतिविधियों और उनके निर्देशों के बारे में श्रवण करना, इन गतिविधियों और निर्देशों के बारे में जप करना, हमेशा इन गतिविधियों और निर्देशों को याद रखना, सेवा करने का प्रयास करना, पूजा करना, आज्ञापालन करना, एक सेवक बनना, एक मित्र बनना, और स्वयं के संपूर्ण आत्म को समर्पित कर देना. हे राजा युधिष्ठिर, इन तीस योग्यताओं को जीवन के मानव रूप में अवश्य अर्जित करना चाहिए. बस इन योग्यताओं को अर्जित करके, व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व को संतुष्ट कर सकता है.
मानव के पशु से भिन्न होने के क्रम में, महान संत नारद सुझाव देते हैं कि प्रत्येक मानव को ऊपर-वर्णित तीस योग्यताओं के संबंध में शिक्षित किया जाना चाहिए. आजकल संसार भर में, हर कहीं धर्मनिरपेक्ष राज्य, के लिए प्रचार है, ऐसा राज्य जो केवल अतिसाधारण गतिविधियों में रुचि रखता है. किंतु यदि राज्य के नागरिकों को उपरोक्त अच्छे गुणों की शिक्षा नहीं दी गई, तो सुख कैसे होगा? उदाहरण के लिए, यदि पूरी जनसंख्या असत्यमय हो, तो राज्य सुखी कैसे होगा? इसलिए, व्यक्ति के विधर्मी होने का विचार किए बिना, चाहे हिंदू, मुस्लिम, क्रिश्चियन, बौद्ध या कोई भी पंथ का हो, सभी को सच्चा होने की शिक्षा देनी चाहिए. उसी प्रकार, प्रत्येक व्यक्ति को दयावान होना सिखाना चाहिए, और हर किसी को महीने के विशेष दिनों में उपवास रखना चाहिए. सबको दिन में दो बार स्नान करना चाहिए, दाँत और बाहर से शरीर को निर्मल करना चाहिए, और अंदर से मन को भगवान के पवित्र नाम का स्मरण करके निर्मल करना चाहिए. भगवान है, चाहे व्यक्ति हिंदू, मुस्लिम या क्रिश्चियन हो. इसलिए, व्यक्ति को भाषाई उच्चारणों में अंतर होने के बावजूद भी, भगवान के पवित्र नाम का जाप करना चाहिए. साथ ही, सभी को इस बारे में बहुत सावधान रहने की शिक्षा देनी चाहिए कि अनावश्यक वीर्यपात न किया जाए, व्यक्ति स्मृति, दृढ़निश्चय, गतिविधि में और अपनी शारीरिक ऊर्जा की जीवन शक्ति में अत्यंत शक्तिशाली बन जाता है. सभी को विचार और भावना में सरल बनने और शरीर और मन में संतुष्ट रहने की शिक्षा भी देनी चाहिए. ये मानव की सामान्य योग्यताएँ हैं. एक धर्मनिरपेक्ष या गिरजाघर आधारित राज्य की कोई आवश्यकता नहीं है. जब तक कि व्यक्ति को उपरोक्त तीस गुणों की शिक्षा नहीं दी जाती, शांति नहीं हो सकती. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11- पाठ 08-12
बुद्धिहीन पशु भी भगवान के परम व्यक्तित्व के पुत्र होते हैं.
जो कृष्ण चेतना में होता है समझता है कि पशु और व्यक्ति के घर में उपस्थित बालकों में कोई अंतर नहीं होता. सामान्य जीवन मात्र में भी हमारा यह व्यावहारिक अनुभव है कि घरेलू कुत्ते या बिल्ली को भी बिना ईर्ष्या के, व्यक्ति के बच्चों के समान स्तर का माना जाता है. बच्चों के समान ही, बुद्धिहीन पशु भी भगवान के परम व्यक्तित्व की संतानें होती हैं, और इसलिए एक कृष्ण चेतन व्यक्ति को, भले ही वह गृहस्थ हो, संतानों और निरीह पशुओं में भेदभाव नहीं करना चाहिए. दुर्भाग्य से, आधुनिक समाज ने विभिन्न जीवन रूपों में पशुओं की हत्या करने के कई साधनों का अविष्कार कर लिया है. उदाहरण के लिए, खेतों में कई चूहे, मक्खियाँ और अन्य प्राणी हो सकते हैं जो उत्पादन में व्यवधान पैदा करते हैं, और कई बार उन्हें कीटनाशकों द्वारा मारा जाता है, यद्यपि, इस प्रकार हत्या करने की अनुमति नहीं है. प्रत्येक प्राणी का पोषण भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा दिए गए भोजन से होना चाहिए. मानव समाज को स्वयं को भगवान की समस्त संपत्तियों का एकमात्र भोक्ता नहीं समझना चाहिए; बल्कि, मानवों को समझना चाहिए कि भगवान की संपत्ति में अन्य सभी पशुओं का भी अधिकार है.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14- पाठ 09
व्यक्ति मन को कैसे नियंत्रित कर सकता है?
“जब तक व्यक्ति भगवान के चरण कमलों में चित्त को स्थिर करने में सक्षम नहीं होता, तब तक मन को नियंत्रण में रखना असंभव होता है.
जैसा कि भगवद्-गीता (6.34) में अर्जुन कहते हैं:
चंचलम् हि मनः कृष्ण प्रमथि बलवद् दृढम्
तस्यहम् निग्रहम् मान्ये वायोर् इव सुदुष्कारम्
“हे कृष्ण, चूँकि चित्त अधीर, चंचल, हठी और अत्यंत शक्तिशाली होता है, और मुझे ऐसा लगता है कि उसे वश में रखना पवन को नियंत्रित रखने से भी अधिक कठिन है.” मन को नियंत्रित रखने की एकमात्र प्रक्रिया मन को भगवान की सेवा में एकाग्र करना है. हम चित्त के निर्देशानुसार ही मित्र और शत्रु बनाते हैं, किंतु वास्तव में कोई शत्रु या मित्र नहीं होता. पंडिताः सम-दर्शिणाः. समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिम् लभते परम. यह समझना ही आध्यात्मिक सेवा के राज्य में प्रवेश पाने की मुख्य शर्त होती है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 8- पाठ 09
व्यक्ति को अपनी पत्नी के – या अन्य शब्दों में यौन जीवन प्रति आसक्ति को त्याग देना चाहिए.
प्रत्येक पति अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त होता है. इसलिए, व्यक्ति का अपनी पत्नी से संबंध त्यागना बड़ा कठिन होता है, लेकिन यदि व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व की सेवा के लिए किसी तरह इसका त्याग करता है, तो स्वयं भगवान, जिन पर कोई विजय नहीं पा सकता, भक्त के नियंत्रण के अधीन हो जाते हैं. और यदि भगवान किसी भक्त से प्रसन्न होते हैं, तो ऐसा क्या है जिसे अर्जित नहीं किया जा सकता? व्यक्ति को क्यों नहीं अपनी और बच्चों के स्नेह को त्यागना चाहिए और भगवान के परम व्यक्तित्व की शरण लेनी चाहिए? किसी भी भौतिक वस्तु की क्या हानि है? गृहस्थ जीवन का अर्थ है व्यक्ति के पत्नी के प्रति आसक्ति, जबकि सन्यास का अर्थ है पत्नी से विरक्ति और कृष्ण के प्रति आसक्ति. यदि व्यक्ति बुद्धिमान है, तो वह अपनी पत्नी के शरीर के बारे में यह विचार कर सकता है कि वह और कुछ नहीं पदार्थ का एक ढेला है जो अंततः छोटे कीड़ों, मल या राख में परिवर्तित हो जाएगा. विभिन्न समाजों में अंत्येष्टि के समय मानव शरीर का क्रियाकर्म करने की विभिन्न विधियाँ होती हैं. कुछ समाजों में मृत शरीर को गिद्धों को खाने के लिए दे दिया जाता है, और इस प्रकार मृतशरीर अंततः गिद्ध के मल में बदल जाता है. कभी-कभी शरीर को बस ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, और उस प्रसंग में शरीर को छोटे कीटों द्वारा खा लिया जाता है. कुछ समाजों में शरीर को मृत्यु के तुरंत बाद जला दिया जाता है, और इस प्रकार वह राख बन जाता है. किसी भी प्रकार, यदि वय्क्ति बुद्धिमानी से शरीर और उसके बाद आत्मा के विधान पर विचार करे, तो शरीर का क्या मूल्य है? अंतवंत इमे देह नित्यस्योक्तः शरीरिणाः : शरीर का क्षरण किसी भी समय हो सकता है, लेकिन आत्मा अमर है. यदि व्यक्ति शरीर की आसक्ति त्याग दे और आत्मा के प्रति आसक्ति बढ़ा ले, तो उसका जीवन सफल होगा. यह केवल विचार-विमर्श का विषय है.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14 – पाठ 12 व 13
व्यक्ति को इंद्रिय सुख पर वीर्य को बर्बाद नहीं करना चाहिए.
वर्णाश्रम पद्धति में, शुद्धिकरण का पहला अनुष्ठान गर्भाधान होता है, जिसका निर्वाह संभोग के समय अच्छी संतान की प्राप्ति हेतु मंत्रों के साथ किया जाता है. उस व्यक्ति को भी ब्रम्हचारी के रूप में स्वीकार किया जाता है जो संभोग का उपयोग इंद्रिय सुख हेतु नहीं बल्कि शुद्धिकरण की प्रक्रिया के अनुसार केवल संतान प्राप्ति के लिए करता है. वैदिक जीवन के सिद्धांतों का उल्लंघन करके व्यक्ति को इंद्रिय सुख के लिए वीर्य को बर्बाद नहीं करना चाहिए. भले ही कोई द्विजों, दोबारा जन्म लेने वाले, के परिवार में जन्मा हो, यदि वे शुद्धिकरण प्रक्रिया का पालन नहीं करते तो उसे द्विज-बंधु–द्विजों में से एक नहीं, लेकिन द्विज का मित्र कहा जाता है. इस संपूर्ण प्रणाली का उद्देश्य अच्छी जनसंख्या का निर्माण करना है. जैसा कि भगवद-गीता में कहा गया है, जब महिलाएँ प्रदूषित होती हैं तो जन-साधारण वर्ण-संकर होती है, और जब वर्णसंकर जनसंख्या बढ़ती है, तो पूरे संसार की स्थिति नारकीय हो जाती है. इसलिए, समस्त वैदिक साहित्य वर्ण-संकर जनसंख्या निर्मित करने के विरुद्ध कड़ी चेतावनी देते हैं. जब वर्ण-संकर जनसंख्या होती है, तब शांति और संपन्नता के लिए लोगों पर ठीक से नियंत्रण नहीं रखा जा सकता, भले ही महान विधान सभाएँ, संसद और समान संस्थाएँ विद्यमान हों.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11 – पाठ 13
एक ब्राह्मण के व्यावसायिक कर्तव्य को निचले सामाजिक वर्ण के व्यक्तियों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए.
एक ब्राह्मण के व्यावसायिक कर्तव्य को कम सामाजिक आदेशों में व्यक्तियों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, विशेषकर वैश्य और शूद्रों द्वारा. उदाहरण के लिए, ब्राम्हण का व्यावसायिक कर्तव्य वैदिक ज्ञान की शिक्षा देना होता है, किंतु जब तक कोई आपात स्थिति न हो, इस व्यावसायिक कर्तव्य को क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों के द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए. यहाँ तक कि कोई क्षत्रिय भी ब्राम्हण का कर्तव्य स्वीकार नहीं कर सकता जब तक कि कोई आपात स्थिति न हो, और फिर यदि वह ऐसा करता है तो उसे किसी अन्य से दान स्वीकार नहीं करना चाहिए. कभी-कभी ब्राम्हण यूरोपियों को ब्राम्हण बनाने के लिए कृष्ण चेतना आंदोलन का विरोध करते हैं, या दूसरे शब्दों में, म्लेच्छों और यवनों को ब्राम्हण बनाने का. यद्यपि, इस आंदोलन का पक्ष श्रीमद्-भागवतम् में लिया गया है. वर्तमान में, समाज एक अराजक स्थिति में है, और सबने आध्यात्मिक जीवन को पोषित करना छोड़ दिया है, जिसका अभिप्राय विशेषकर ब्राम्हणों से है. क्योंकि आध्यात्मिक संस्कृति को सारे संसार में रोक दिया गया है, अब एक आपात स्थिति है, और इसलिए अब समय आ गया है कि उन लोगों को शिक्षित किया जाए जिन्हें निम्न और श्रापित माना जाता है, ताकि वे ब्राम्हण बन सकें और आध्यात्मिक प्रगति का कार्य कर सकें. मानव समाज की आध्यात्मिक प्रगति रुक गई है, और इसे आपातकाल समझना चाहिए.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11- पाठ 17
आत्मा अमर है.
“आत्मा और भौतिक शरीर के बीच अतंर को समझने के लिए यह श्लोक बहुत महत्वपूर्ण है. आत्मा अमर है, जैसा कि भगवद-गीता (2.20) में कहा गया है:
न जायते मृयते व कदाचिन् नयां भूत्वा भावित व न भूयः
अजो नित्यः शाश्वतो यं पुराणो न हन्यते हन्यमाने सारेरे
“आत्मा के लिए कोई जन्म या मृत्यु नहीं होते. न ही, एक बार होकर, उसका अस्तित्व समाप्त नहीं होता. वह अजन्मा, अमर, सदैव-अस्तित्वमान, अमर्त्य और आदि होती है. शरीर के मरने पर वह नहीं मरती.” आत्मा विनाश और परिवर्तन से मुक्त रहते हुए अमर है, जो भौतिक शरीर के कारण होते हैं. वृक्ष औऱ उसके फल और फूल का उदाहरण बहुत सरल और स्पष्ट है. एक वृक्ष कई-कई वर्षों तक खड़ा रहता है, लेकिन ऋतुओं के परिवर्तन के कारण उसके फल और फूल छः रूपांतरणों से गुज़रते हैं. आधुनिक रसायनशास्त्री की मूर्खतापूर्ण अवधारणा, कि रासायनिक प्रक्रिया द्वारा जीवन निर्मित किया जा सकता है, को सत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता. एक मानव के भौतिक शरीर का जन्म अंडाणु और शुक्राणु के मिश्रण के कारण संभव होता है, लेकिन जन्म का इतिहास है कि भले ही अंडाणु और शुक्राणु संभोग के बाद मिश्रित होते हैं, लेकिन हमेशा गर्भाधान नहीं होता. जब तक कि आत्मा मिश्रण में प्रवेश न करे, गर्भाधान की कोई संभावना नहीं होती, लेकिन जब आत्मा मिश्रण की शरण लेती है तो शरीर जन्म लेता है, अस्तित्वमान होता है, विकसित, रूपांतरित होता है, दुर्बल होता है, और अंततः वह समाप्त हो जाता है. वृक्ष के फल और फूल ऋतुओं के साथ आते और जाते हैं, किंतु वृक्ष विद्यमान बना रहता है. उसी प्रकार, प्रवासी आत्मा विभिन्न शरीर लेती है, जिनमें छः रूपांतरण घटित होते हैं, लेकिन आत्मा स्थायी रूप से समान बनी रहती है (अजे नित्यः शाश्वतो’ यम पुराणो न हन्यते हन्यमने शरीरे). आत्मा अमर और सदा अस्तित्वमान होती है, लेकिन आत्मा द्वारा ग्रहण किए गए शरीर परिवर्तित होते रहते हैं. दो प्रकार कि आत्मा होती हैं–परम आत्मा (परम भगवान का व्यक्तित्व) और व्यक्तिगत आत्मा (जीव). जबकि व्यक्तिगत आत्मा में विभिन्न शारीरिक परिवर्तन घटित होते हैं, परम आत्मा में उत्पत्ति की विभिन्न सहस्त्राब्दियाँ घटित होती हैं. इस संबंध में, माधवाचार्य कहते हैं:
सद विकारः शरीरस्य न विष्णुस तद-गतस्य
च तद्-अधीनं शरीरं च ज्ञात्वा तन ममतम त्यजेत
चूँकि शरीर आत्मा का बाहीय गुण होता है, आत्मा शरीर पर निर्भर नहीं होती; बल्कि, शरीर आत्मा पर आश्रित होता है. जो यह सत्य समझता है उसे शरीर के पालन के बारे में अधिक चिंता नहीं करना चाहिए. शरीर का पालन स्थायी रूप से या सदैव के लिए करना संभव नहीं है. अंतवंत इमे देह नित्यश्योक्तः शरीरिनः . ऐसा भगवद्-गीता (2.18) का कथन है.
भौतिक शरीर अंतवत (विनाशी) होता है, लेकिन शरीर के भीतर कि आत्मा अमर (नित्यश्योक्तः शरीरिणः) होती है. भगवान विष्णु और वैयक्तिक आत्माएँ, जो उनका ही अंश होती हैं, वे दोनों अमर हैं. नित्यो नित्यनाम चेतनस् चेतनानाम्. भगवान विष्णु प्रमुख जीव हैं, जबकि वैयक्तिक जीव भगवान विष्णु के अंश हैं. शरीरों की सारी विभिन्न श्रेणियाँ — विशाल सार्वभौमिक शरीर से लेकर एक चींटी के छोटे से शरीर तक–विनाशमान हैं, लेकिन गुणों में समान होते हुए, परम आत्मा और आत्मा, दोनों ही अनंतकील तक अस्तित्वमान रहते हैं.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 7- पाठ 18
अंतिम शरण्य केवल भगवान ही हैं.
अभिभावकीय देखभाल द्वारा, विभिन्न प्रकार के रोगों के उपचार द्वारा, और जल, वायु में और पृथ्वी पर सुरक्षा के साधनों के माध्यम से, भौतिक संसार में कष्ट से मुक्ति का प्रयास हमेशा रहता है, लेकिन उनमें से कोई भी सुरक्षा का निश्चित उपाय नहीं है. उनका लाभ अस्थायी रूप में हो सकता है, लेकिन उनका स्थायी लाभ नहीं होता. पिता और माता की उपस्थिति के बाद भी किसी बालक की दुर्घटनावश मृत्यु, रोग और विभिन्न अन्य कष्टों से सुरक्षा नहीं की जा सकती. माता-पिता सहित कोई भी सहायता नहीं कर सकता. अंततः भगवान ही शरण्य होते हैं, और जो भगवान की शरण लेता है सुरक्षित होता है. यह निश्चित है. जैसा कि भगवान भगवद्-गीता (9:31) में कहते हैं,कौन्तेय प्रतिजनि न मे भक्तः प्रणस्यति:“हे कुंतीपुत्र, निर्भय होकर घोषित करो कि मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते.” इसलिए, जब तक कि व्यक्ति की सुरक्षा भगवान की दया से नहीं होती, कोई भी उपचार प्रभावी रूप से कार्य नहीं करता. व्यक्ति को फलतः भगवान की अहेतुक दया पर पूर्ण निर्भर होना चाहिए. यद्यपि सामान्य कर्तव्य के नाते व्यक्ति को निश्चित ही अन्य औपचारिक उपाय स्वीकार करने चाहिए, किंतु उसकी सुरक्षा कोई नहीं कर सकता जिसकी उपेक्षा भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा कर दी जाती है. इस भौतिक संसार में, हर कोई भौतिक प्रकृति के आक्रमण का प्रतिकार करने का प्रयास कर रहा है, लेकिन अंततः हर कोई भौतिक प्रकृति के पूर्ण नियंत्रण में होता है. इसलिए भले ही तथाकथित दार्शनिक और वैज्ञानिक भौतिक प्रकृति के दुष्प्रभाव पर विजय पाना चाहते हैं, किंतु ऐसा कर नहीं पाए हैं. कृष्ण भगवद्-गीता (13:9) में कहते हैं कि भौतिक प्रकृति के वास्तविक चार कष्ट –जन्म-मृत्यु जरा-व्याधि (जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोग) हैं. संसार के इतिहास में, कोई भी भौतिक प्रकृति द्वारा उपजाए गए कष्टों पर विजय पाने में सफल नहीं हुआ है. प्राकृतेः क्रियामननि गुणैः कर्माणि सर्वषः. प्रकृति इतनी शक्तिशाली होती है कि कोई भी उसके कठिन नियमों पर विजय नहीं पा सकता. इसलिए तथाकथित वैज्ञानिक, दार्शनिक, धर्मशास्त्री और राजनीतिज्ञ अंत में यही कहते हैं कि वे सामान्य लोगों को सुविधाएँ नहीं दे सकते. उन्हें जनसंख्या को जगाने के लिए शक्तिशाली रूप से प्रचार करना चाहिए और उन्हें कृष्ण चेतना के स्तर तक ऊँचा उठाना चाहिए. सारे संसार में कृष्ण चेतना आंदोलन के प्रचार का हमारा विनम्र प्रयास ही एकमात्र उपचार है जो शांतिपूर्ण और प्रसन्न जीवन ला सकता है. हम परम भगवान (त्वद-उपेक्षितानम) की कृपा के बिना कभी सुखी नहीं हो सकते. यदि हम अपने परम पिता को अप्रसन्न करते रहे, तो हम इस भौतिक संसार में कभी भी सुखी नहीं होंगे, चाहे उच्चतर या निम्नतर ग्रह मंडलों कहीं भी हों.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 19
आध्यात्मिक प्रगति के लिए, व्यक्ति को भौतिक रूप से संतुष्ट होना चाहिए.
आध्यात्मिक प्रगति के लिए, व्यक्ति को भौतिक रूप से संतुष्ट होना चाहिए, क्योंकि यदि व्यक्ति भौतिक रूप से संतुष्ट नहीं है, तो भौतिक उन्नति के लिए उसकी लालच का परिणाम उसकी आध्यात्मिक प्रगति की निराशा होगा. दो बातें हैं जो सभी अच्छे गुणों को शून्य कर देती हैं. एक निर्धनता. दरिद्र-दोषो गुण-राशि-नाशि. यदि व्यक्ति निर्धन है, तो उसके सभी अच्छे गुण शून्य बन जाते हैं. उसी प्रकार, यदि व्यक्ति बहुत लालची हो जाता है, तो उसकी अच्छी योग्यताएँ खो जाती हैं. इसलिए सामंजस्य यह है कि व्यक्ति को निर्धन नहीं होना चाहिए, किंतु व्यक्ति को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि होनी चाहिए और लालची नहीं होना चाहिए. इसलिए एक भक्त के लिए मूलभूत आवश्यकताओं से संतुष्ट रहना आध्यात्मिक प्रगति के लिए सर्वश्रेष्ठ सुझाव है. इसलिए आध्यात्मिक जीवन में अनुभवी ज्ञानी सुझाव देते हैं कि व्यक्ति को मंदिर और मठों की संख्या बढ़ाने का प्रयास नहीं करना चाहिए. ऐसी गतिविधियाँ उन भक्तों द्वारा निष्पादित की जानी चाहिए जो कृष्ण चेतना आंदोलन के प्रचार में अनुभवी हों. दक्षिण भारत में सभी आचार्य, विशेषकर श्री रामानुजाचार्य, ने कई बड़े मंदिर बनाए, और उत्तर भारत में वृंदावन के सभी गोस्वामियों ने बड़े मंदिरों का निर्माण किया. श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी बड़े केंद्रों का निर्माण किया, जिन्हें गौड़ीय मठ कहते हैं. इसलिए मंदिर निर्माण बुरा नहीं है, यदि कृष्ण चेतना के प्रचार की चिंता उचित रूप से की गई हो. भले ही ऐसे प्रयासों को लालच भरा माना जाता है, लालच कृष्ण को संतुष्ट करने की है, और इसलिए ये आध्यात्मिक गतिविधियाँ हैं.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 21
यदि भगवान का हाथ प्रत्येक वस्तु में है, तो मुक्त होने का प्रश्न कहाँ है?
“यदि भगवान का हाथ प्रत्येक वस्तु में है, तो भौतिक बंधन से आध्यात्मिक, आनंदमय जीवन की ओर मुक्त होने का प्रश्न कहाँ है? निश्चित ही, यह एक तथ्य है कि कृष्ण सब कुछ के स्रोत हैं, जैसा कि हम स्वयं कृष्ण से भगवद्-गीता में समझते हैं (अहं सर्वस्य प्रभावः). आध्यात्मिक और भौतिक संसार दोनों में समस्त गतिविधियाँ भगवान के परम व्यक्तित्व के आदेश से या तो भौतिक या आध्यात्मिक प्रकृति के माध्यम से संचालित होती हैं. जैसा कि भगवद्-गीता (9.10) में आगे पुष्टि की गई है, मायाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्: परम भगवान के निर्देशन के बिना, भौतिक प्रकृति कुछ भी नहीं कर सकती; वह स्वतंत्र रूप से व्यवहार नहीं कर सकती. इसलिए, शुरुआत में जीव भौतिक ऊर्जा का भोग करना चाहता था, और जीव को समस्त सुविधा देने के लिए, भगवान के परम व्यक्तित्व, कृष्ण ने भौतिक संसार की रचना की और जीव को मन के माध्यम से मनचाहे विचार और योजनाओं को रचने की सुविधा दे दी. भगवान के द्वारा जीव को दी गई ये सुविधाएँ ज्ञान-संग्रहण बुद्धि, कार्यकारी बुद्धि, मन और पाँच भौतिक तत्व के संबंध में सोलह प्रकार की काम-विकृत सहायता का विधान करती हैं. बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र का निर्माण भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा किया गया है, लेकिन भटके हुए जीव को विकास के विभिन्न चरणों के अनुसार मुक्ति की ओर प्रगति का मार्गदर्शन देने के लिए, वेदों (छंदोमयम्) में भिन्न निर्देश दिए गए हैं. यदि व्यक्ति उच्चतर ग्रह मंडलों तक उत्थान करना चाहता है, तो वह वैदिक दिशा-निर्देशों का पालन कर सकता है. जैसा कि भगवद्-गीता (9.25) में भगवान कहते हैं:
यन्ति देव-व्रत देवन पितृन् यन्ति पितृ-व्रत:
भूतानि भूतेज्य यन्ति मद-यज्ञिनो पी मम
“वे जो देवताओं की उपासना करना चाहते हैं वे देवताओं के मध्य जन्म लेंगे; जो भूत और प्रेतों को पूजते हैं वे वैसे ही जीवों के बीच जन्म लेंगे; जो पूर्वजों को पूजते हैं पूर्वजों के पास जाएंगे; और वे जो मेरी उपासना करते हैं, मेरे साथ रहेंगे.” वेदों का वास्तविक उद्देश्य व्यक्ति को वापस घर, परम भगवान तक जाने की दिशा देना है, किंतु जीव, अपने जीवन का वास्तविक लक्ष्य न जानते हुए, कभी यहाँ, तो कभी वहाँ जाना और कभी यह, तो कभी वह करना चाहता है. इस प्रकार वह विभिन्न प्रजातियों में बंदी रहते हुए समूचे ब्रम्हांड में भटकता है और इस प्रकार विभिन्न कर्मों में लिप्त रहता है जिनके लिए उसे फलित प्रभाव भोगने पड़ते हैं. श्री चैतन्य महाप्रभु इसलिए कहते हैं:
ब्रह्माण्ड भ्रमते कोना भाग्यवान जीव
गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाया भक्ति-लता-बीज
(Cc. मध्य 19.151)
बाह्य ऊर्जा से घिरा, पतित, बद्ध जीव, भौतिक संसार में निरुद्देश्य भटकता है, लेकिन यदि सौभाग्य से वह भगवान के किसी प्रामाणिक प्रतिनिधि से मिल ले जो उसे भक्ति सेवा का बीज देता है, और यदि वह ऐसे गुरु, या भगवान के प्रतिनिधि का लाभ ले, तो उसे भक्ति-लता- बीज, भक्ति सेवा का बीज प्राप्त हो जाता है. यदि वह समुचित रूप से कृष्ण चेतना विकसित करता है, तो वह धीरे-धीरे आध्यात्मिक संसार की ओर उत्थित हो जाता है. अंतिम निष्कर्ष यह है कि व्यक्ति को भक्ति-योग के सिद्धांतों के प्रति समर्पित होना होगा, क्योंकि तब व्यक्ति धीरे-धीरे मुक्ति अर्जित कर लेगा. भौतिक संघर्ष से मुक्ति की कोई अन्य विधि संभव नहीं है. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 21
व्यक्ति इंद्रिय तुष्टि की लालसा पर विजय कैसे पा सकता है?
व्यक्ति स्त्री के बारे में विचार करना नहीं छोड़ सकता, क्योंकि इस प्रकार विचार करना प्राकृतिक होता है; भले ही सड़क पर चल रहे हों, व्यक्ति बहुत सी स्त्रियाँ देखेगा. यद्यपि, यदि व्यक्ति स्त्री के साथ न रहने के लिए कृतसंकल्प हो, तो वह स्त्री को देखकर भी कामुक नहीं बनेगा. यदि व्यक्ति संभोग न करने की ठान ले, तो वह स्वयमेव कामुक इच्छाओं पर विजय पा सकता है. इस संबंध में यह उदाहरण दिया गया है कि यदि भले ही कोई भूखा हो, यदि किसी अमुक दिन उसने उपवास करना ठाना है, वह स्वाभाविक रूप से भूख और प्यास के व्यवधान पर विजय पा लेगा.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15 – पाठ 22
कोई भी अपने शरीर या भौतिक उपलब्धियों को हमेशा के लिए बनाए नहीं रख सकता.
इस भौतिक संसार के भीतर, व्यक्ति को व्यावहारिक अनुभव से भौतिक संपन्नता के महत्व, टिकाऊपन और प्रभाव को समझना चाहिए. हमारा वास्तविक अनुभव है कि इस ग्रह पर भी नेपोलियन, हिटलर, सुभाष चंद्र बोस और गांधी जैसे बहुत बड़े राजनेता और सेनापति हुए हैं, किंतु जैसे ही उनके जीवन समाप्त हुए, वैसे ही उनकी लोकप्रियता, प्रभाव और अन्य सबकुछ भी समाप्त हो गया. प्रह्लाद महाराज ने भी पूर्व में अपने पिता हिरण्यकशिपु के कर्मों को देख कर यही अनुभव प्राप्त किया था. इसलिए प्रह्लाद महाराज ने इस भौतिक संसार में किसी भी वस्तु को महत्व नहीं दिया. कोई भी अपने शरीर या भौतिक उपलब्धियों को हमेशा के लिए बनाए नहीं रख सकता. एक वैष्णव समझ सकता है कि इस भौतिक संसार में कुछ भी नहीं टिक सकता, वह भी जो शक्तिशाली, संपन्न या प्रभावशाली हो. किसी भी समय ऐसी वस्तुएँ नष्ट हो सकती हैं. और उन्हें कौन नष्ट कर सकता है? भगवान का परम व्यक्तित्व. इसलिए व्यक्ति को अंततः समझना चाहिए कि परम महान से महानतर कोई भी नहीं है. चूँकि परम महान चाहते हैं, सर्व-धर्मन् परित्याज्य मम एकम शरणम् व्रज, प्रत्येक बुद्धिमान मनुष्य को इस प्रस्ताव से सहमत होना चाहिए. बारंबार जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोग के चक्र से बचने के लिए व्यक्ति को भगवान की शरण में आना ही होगा.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 23
व्यक्ति केवल किसी शुद्ध भक्त की सेवा के द्वारा ही कृष्ण को समझ सकता है.
स्वयं को बचाने के लिए, व्यक्ति को शुद्ध भक्त की शरण लेनी चाहिए. नरोत्तम दास ठाकुर इसीलिए कहते हैं, चढ़िया वैष्णव-सेवा निस्तार पायेचे केबा. यदि व्यक्ति भौतिक प्रकृति के दुष्प्रभावों से स्वयं को बचाना चाहता है, जो भौतिक शरीर के कारण उपजते हैं, तो व्यक्ति को कृष्ण चैतन्य बनना होगा और कृष्ण को पूर्णता से समझने का प्रयास करना होगा. व्यक्ति को कृष्ण को सत्य में समझना चाहए, और व्यक्ति ऐसा किसी शु्द्ध भक्त की सेवा द्वारा ही कर सकता है. इसलिए प्रह्लाद महाराज प्रार्थना करते हैं कि भगवान नृसिंहदेव उन्हें भौतिक एश्वर्य प्रदान करने के स्थान पर किसी शुद्ध भक्त और सेवक के संपर्क में रखें. इस भौतिक संसार में प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को प्रह्लाद महाराज का अनुसरण करना चाहिए. महाजनो येन गतः स पंथः. प्रह्लाद महाराज अपने पिता द्वारा छोड़ी गई संपदा का भोग नहीं करना चाहते थे; बल्कि, वे भगवान के सेवक का सेवक बनना चाहते थे. भ्रममय मानव समाज जो हमेशा भौतिक उन्नति के माध्यम से प्रसन्नता प्राप्ति का प्रयास करता है, उसे प्रह्लाद महाराज और उनका कड़ाई से अनुसरण करने वालों द्वारा अस्वीकृत किया जाता है. विभिन्न प्रकार के भौतिक एश्वर्य होते हैं, जिन्हें तकनीकी रूप से भुक्ति, मुक्ति और सिद्धि के रूप में जाना जाता है. भुक्ति का तात्पर्य बहुत अच्छी स्थिति में स्थित होना है, जैसे उच्चतर ग्रह मंडलों में देवताओं के साथ होना, जहाँ व्यक्ति महानतम सीमा तक भौतिक इंद्रिय तुष्टि का भोग कर सके. मुक्ति का तात्पर्य भौतिक प्रगति से विरुचित होना और इस प्रकार परम के साथ एक हो जाने की इच्छा रखना. सिद्धि का तात्पर्य आठ प्रकार की सिद्धियाँ (अणिमा, लघिमा, महिमा इत्यादि) प्राप्त करने के लिए गंभीर प्रकार का ध्यान निष्पादित करना, जैसे योगी करते हैं. वे सभी जो भुक्ति, मुक्ति, या सिद्धि के माध्यम से कोई भौतिक प्रगति चाहते हैं, कालांतर में दंड के योग्य होते हैं, और वे भौतिक कर्मों की ओर ही लौटते हैं. प्रह्लाद महाराज ने उन सभी का त्याग किया; वे बस किसी शुद्ध भक्त के मार्गदर्शन में एक प्रशिक्षु के रूप में रत होना चाहते थे.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 24
हम सुख के नाम पर नारकीय स्थितियाँ भोग रहे हैं.
“बंगाली भाषा के एक गीत है जिसमें कहा गया है, “मैंने सुख के लिए इस घर को बनाया, किंतु दुर्भाग्य से आग लग गई, और सबकुछ जल कर भस्म हो गया.” यह भौतिक सुख के स्वभाव को दिखाता है. सब जानते हैं, किंतु फिर भी व्यक्ति कुछ बहुत सुखकारी सुनने या उसका विचार करने की योजना बनाता है. दुर्भाग्य से, व्यक्ति की सभी योजनाएँ समय के साथ विनष्ट हो जाती हैं. ऐसे कई राजनेता थे जिन्होंने साम्राज्यों, प्रभुत्व और संसार के नियंत्रण की योजना बनाई, किंतु समय के साथ उनकी सारी योजनाएँ और साम्राज्य–और स्वयं राजनेता भी–विनष्ट हो गए. सभी को प्रह्लाद महाराज से इस बारे में शिक्षा लेनी चाहिए कि हम किस प्रकार इंद्रिय तुष्टि के लिए शारीरिक कर्मों द्वारा तथाकथित अस्थायी सुख में लगे हैं. हम सभी बार-बार योजनाएँ बनाते हैं, जिन पर लगातार निराशा ही होती है. इसलिए व्यक्ति को ऐसी योजना बनाना बंद करना चाहिए.
जैसे व्यक्ति लगातार घी उड़ेल कर प्रज्ज्वलित अग्नि को नहीं रोक सकता, उसी प्रकार व्यक्ति इंद्रिय भोग के लिए उत्तरोत्तर योजनाओं द्वारा स्वयं को संतुष्ट नहीं कर सकता. प्रज्ज्वलित अग्नि भव-महा-दावाग्नि है, भौतिक अस्तित्व का दावानल. यह जंगली अग्नि बिना प्रयास के स्वतः पैदा होती है. हम भौतिक संसार में सुखी होना चाहते हैं, किंतु ऐसा कभी भी संभव नहीं होगा; हम बस कामनाओं के दावानल को बढ़ाएँगे. हमारी कामनाएँ मायावी विचारों और योजनाओं से तुष्ट नहीं की जा सकतीं; इसके विपरीत, हमें भगवान कृष्ण के निर्देशों का पालन करना होगा : सर्व-धर्मन् परित्याज्य मम एकम् शरणम् व्रज. तब हम सुखी होंगे. अन्यथा, सुख के नाम पर, हम नारकीय स्थितियों को भोगते रहेंगे. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 25
जीवन के मानव रूप में एक पुरुष और स्त्री संभोग के इंद्रिय सुख के लिए मिलन करते हैं.
जैसा कि प्रह्लाद महाराज द्वारा कहा गया है, यं मैथुनादि-ग्रह्मेधि-सुखम हि तुच्छम्. पुरुष और स्त्री दोनों ही यौन सुख खोजते हैं, और जब वे विवाह के आनुष्ठानिक समारोह द्वारा एक हो जाते हैं, तो वे कुछ समय के लिए सुखी रहते हैं, लेकिन अंततः मतभेद होता है और इसलिए अलगाव और तलाक के इतने प्रसंग घटित होते हैं. यद्यपि प्रत्येक पुरुष और स्त्री संभोग के माध्यम से जीवन का आनंद लेने के लिए वास्तव में लालायित रहते हैं, उसका परिणाम विरोध और अवसाद ही होता है. विवाह का सुझाव पुरुषों और स्त्रियों को प्रतिबंधित यौन जीवन के लिए छूट देने के लिए दिया जाता है, जिसका सुझाव भगवान के परम व्यक्तित्व के द्वारा भगवद-गीता में भी दिया गया है. धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि: वह यौन जीवन जो धर्म सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं होता वह कृष्ण है. प्रत्येक जीव हमेशा यौन जीवन का सुख प्राप्त करने के लिए लालायित होता है क्योंकि भौतिकवादी जीवन में खाना, सोना, यौन और भय शामिल होता है. पशु जीवन में, खाने, सोने, यौन सुख और भय को विनियमित नहीं किया जा सकता, किंतु मानव समाज के लिए योजना यह होती है कि यद्यपि मनुष्यों को, पशुओं के जैसे, खाने, सोने, यौन सुख और भय से सुरक्षा प्राप्त करने की अनुमति दी जानी चाहिए, किंतु उन्हें विनियमित किया जाना चाहिए. खाने के लिए वैदिक योजना सुझाव देती है कि व्यक्ति को यज्ञ-शिष्ट, या प्रसाद, जो कृष्ण को अर्पित किया जाता है, वह ग्रहण करना चाहिए. यज्ञ-शिष्टसिनः संतो मुच्यंते सम-किल्बिसैः : “भगवान के भक्तों को सभी प्रकार के पापों से मुक्त कर दिया जाता है क्योंकि वे उस भोजन को खाते हैं जो पहले प्रसाद के रूप में अर्पित किया जाता है.” (भगी. 3.13). भौतिक जीवन में, व्यक्ति पापमय कर्म करता है, विशेषकर खाने में, और पापमय गतिविधियों के कारण व्यक्ति प्रकृति के नियमों द्वारा एक और शरीर स्वीकार करने के लिए अभिशप्त होता है, जिसे दण्ड के रूप में लागू किया जाता है. संभोग और खाना आवश्यक हैं, और इसलिए वैदिक नियमों के अधीन उन्हें मानव समाज को दिया गया है ताकि वैदिक प्रतिबंधों के अनुसार लोग खा सकें, सो सकें, संभोग सुख ले सकें, और भय से सुरक्षित रखे जा सकें और धीरे-धीरे उनका उत्थान हो सके और भौतिक अस्तित्व के दण्ड से मुक्त हो सकें. इस प्रकार विवाह के लिए वैदिक प्रतिबंध मानव समाज को छूट देते हैं, विचार यह है कि एक आनुष्ठानिक विवाह समारोह के माध्यम से एक हुए पुरुष और स्त्री को आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के लिए एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए. दुर्भाग्य से, इस युग में, पुरुष और स्त्री असीमित यौन सुख के लिए मिलन करते हैं. इस प्रकार वे अपनी पाशविक प्रवृत्ति की पूर्ति करने के लिए पशुओं का रूप लेने को बाध्य होकर, उत्पीड़ित होते हैं. इसलिए वैदिक आज्ञा चेतावनी देती है, नयम् देहो देह-भजम् नृलोके कष्टं कामं अर्हते विद्-भुजम् ये. व्यक्ति को शूकर के समान संभोग नहीं करना चाहिए और मल की सीमा तक सबकुछ नहीं खा लेना चाहिए. एक मानव को भगवान को चढ़ाया गया प्रसाद खाना चाहिए और वैदिक आज्ञा के अनुसार संभोग सुख लेना चाहिए. उसे कृष्ण चेतना के कार्य में लगना चाहिए, उसे स्वयं को भौतिक अस्तित्व की डरावनी अवस्था से बचाना चाहिए, और उसे केवल कठिन परिश्रम के कारण हुई थकान से उबरने के लिए ही सोना चाहिए.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13 – पाठ 26
आध्यात्मिक गुरु और भगवान के परम व्यक्तित्व में क्या अंतर होता है.
“भगवान कृष्ण के भगवान के परम व्यक्तित्व होने का उदाहरण आध्यात्मिक गुरु को समझने के लिए उपयुक्त है. आध्यात्मिक गुरु को सेवक-भगवान, भगवान के परम व्यक्तित्व का सेवक कहते हैं, और कृष्ण को सेव्य- भगवान, भगवान का परम व्यक्तित्व कहते हैं, जिनकी पूजा करनी चाहिए. आध्यात्मिक गुरु पूजा करने वाले भगवान होते हैं, जबकि भगवान का परम व्यक्तित्व, कृष्ण, पूजा करने योग्य भगवान होते हैं. यही आध्यात्मिक गुरु और भगवान के परम व्यक्तित्व का अंतर है.
एक और बिंदु : भगवद्-गीता, जो भगवान के परम व्यक्तित्व के निर्देशों का विधान करती है, को आध्यात्मिक गुरु द्वारा बिना अंतर के जस की तस प्रस्तुत किया जाता है. इसलिए आध्यात्मिक गुरु में परम सत्य उपस्थित होता है. भगवान का परम व्यक्तित्व समस्त संसार को वास्तविक ज्ञान प्रदान करता है, और आध्यात्मिक गुरु, भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रतिनिधि के रूप में, संसार भर में संदेश पहुँचाता है. इसलिए, परम स्तर पर, आध्यात्मिक गुरु और भगवान के परम व्यक्तित्व में कोई अंतर नहीं होता. यदि कोई परम व्यक्तित्व–कृष्ण या भगवान रामचंद्र– को सामान्य मानव मानता है, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवान कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बन जाते. उसी प्रकार, यदि आध्यात्मिक गुरु, जो भगवान के परम व्यक्तित्व का प्रामाणिक प्रतिनिधि होता है, के पारिवारिक सदस्य, उसे सामान्य मानव मानें, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सामान्य मनुष्य बन जाता है. आध्यात्मिक गुरु और भगवान के परम व्यक्तित्व समान ही होते हैं, और इसलिए वह व्यक्ति जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए बहुत गंभीर हो, उसे आध्यात्मिक गुरु के बारे में ऐसे ही विचार करना चाहिए. इस धारणा से थोड़ा भी विचलन शिष्य के वैदिक अध्ययन और तप में विपत्ति पैदा कर सकता है.”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15 – पाठ 27
मायावादियों और वैष्णवों के दर्शन में अंतर.
मायावादियों और वैष्णवों के दर्शन में अंतर यहाँ बताया गया है. दोनों मायावादी और वैष्णव जानते हैं कि भौतिक कर्मों में कोई सुख नहीं है. इसलिए, मायावादी दार्शनिक, ब्रम्ह सत्यम जगन् मिथ्या, श्लोक से चिपके रहते हुए, कृत्रिम, भौतिक गतिविधियों से दूर रहना चाहते हैं. वे सभी गतिविधियाँ रोकना चाहते हैं और परम ब्रम्हन् में लीन हो जाना चाहते हैं. जबकि वैष्णव दर्शन के अनुसार, यदि व्यक्ति बस भौतिक गतिविधियों से दूर होता है तो वह बहुत देर तक अकर्मण्य नहीं रह सकता, और इसलिए सभी को आध्यात्मिक गतिविधियों में रत होना चाहिए, जिससे इस भौतिक संसार में कष्ट भोगने की समस्या हल हो जाएगी. इसलिए, ऐसा कहा जाता है, कि यद्यपि मायावादी दार्शनिक भौतिक गतिविधियों से दूर रहने और ब्रम्हन में लीन होने को तत्पर होते हैं, और यद्यपि संभवतः वे ब्रम्हन अस्तित्व में वास्तव में लीन हो जाएँ, गतिविधियों की इच्छा में वे फिर से भौतिक गतिविधियों (अरुह्य कृच्छेर्ण परम पदम् ततः पठंति अधः) में पतित हो जाते हैं. अतः तथाकथित त्यागी, ब्रम्हन पर रहते हुए ध्यानस्थ रहने में असमर्थ हो कर, रुग्णालय और विद्यालय खोल कर भौतिक गतिविधियों पर लौट आते हैं. इसलिए केवल यह ज्ञान अपर्याप्त है कि भौतिक गतिविधियाँ व्यक्ति को सुख नहीं दे सकतीं, और इसलिए व्यक्ति को एसी गतिविधियों को रोक देना चाहिए. व्यक्ति को भौतिक गतिविधियों को रोक कर आध्यात्मिक गतिविधियों से जुड़ना चाहिए. तब समस्या का हल प्राप्त हो जाएगा.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 27
सभी सुखी होने का प्रयत्न कर रहे हैं.
सभी सुखी होने का प्रयत्न कर रहे हैं, सुखम् अस्यत्मनो रूपम सर्वेहोप्रतिष्ठनुः : जब जीव अपने मूल आध्यात्मिक रूप में होता है, वह स्वभाव से सुखी होता है. आध्यात्मिक जीव के लिए कष्टों का कोई प्रश्न नहीं होता. जैसा कि कृष्ण हमेशा सुखी रहते हैं, जीव भी, जो उनके अंश हैं, स्वभाव से सुखी होते हैं, किंतु इस भौतिक संसार में रखे जाने और कृष्ण से अपना शाश्वत संबंध भूल जाने पर, जीव उनकी वास्तविक प्रकृति भूल गए हैं. क्योंकि हममें से प्रत्येक कृष्ण का अंश है, हमारा उनके साथ बहुत स्नेहिल संबंध है, किंतु चूँकि हम अपनी पहचान भूल गए हैं, और शरीर को आत्म समझ रहे हैं, हमें जन्म, मृत्यु, वृद्ध आयु और रोग के कष्टों का सामना करना पड़ता है. भौतिकवादी जीवन में यह भ्रान्ति बनी रहती है, जब तक कि व्यक्ति कृष्ण के साथ अपना संबंध नहीं समझ जाता. बद्ध आत्मा द्वारा सुख की खोज निश्चित ही भ्रामक है, सभी सुखी होने का प्रयास कर रहे हैं क्योंकि, जैसा कि पिछले श्लोक में बताया गया है, सुखम अस्यतमनो रूपम् सर्वेहोप्रतिष्ठनुः : जब जीव अपने मूल आध्यात्मिक रूप में होता है, वह स्वभाव से सुखी होता है. आध्यात्मिक जीव के लिए कष्टों का कोई प्रश्न नहीं होता. ठीक एक मृग की भाँति, जो अज्ञान के कारण घास से ढँके कुँए के भीतर जल नहीं देख सकता, किंतु अन्य स्थानों पर जल के पीछे भागता है, जीव भी भौतिक शरीर के आवरण से ढँका रहते हुए स्वयं के भीतर सुख नहीं देख पाता, किंतु भौतिक संसार में सुख के पीछे भागता है.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 28
संसार-चक्र, भौतिक अस्तित्व का पहिया.
“जैसे ही जीव भौतिक प्रकृति पर श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए भौतिक कामनाओं के चंगुल में फँसता है, वह भौतिक प्रकृति के नियंत्रण के अधीन हो जाता है, जिसका व्यवस्थापन परम आत्मा द्वारा किया जाता है. परिणाम यह कि व्यक्ति बारंबार योजना बनाता है और छला जाता है, किंतु मूर्खतावश वह अपनी उलझन के कारण को नहीं देख सकता. इस कारण को भगवद्-गीता में स्पष्ट रूप से व्यक्ति किया गया है : चूँकि व्यक्ति ने भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रति समर्पण नहीं किया है, उसे भौतिक प्रकृति और उसके कड़े नियमों के अधीन व्यवहार करना होगा (दैविहि ऐषा गुणमयी मम माया दुरत्याय). इस बंधन से मुक्त होने का एकमात्र साधन परम भगवान के प्रति समर्पण करना ही है. जीवन के मानव रूप में, जीव को परम व्यक्ति, कृष्ण का यह निर्देश स्वीकार करना चाहिए : सर्व-धर्मम परित्याज्य मम एकम् शरणम् व्रज. “सुख प्राप्त करने और दुख को दूर भगाने की योजना मत बनाओ. आप कभी सफल नहीं होंगे. बस मेरी शरण में आ जाओ.”
दुर्भाग्य से, यद्यपि, जीव भगवद्-गीता में कहे गए भगवान के निर्देश को स्वीकार नहीं करता, और इस प्रकार वह भौतिक प्रकृति के नियमों का शाश्वत बंदी बन जाता है. यज्ञार्थात् कर्मणो न्यत्र लोको यम कर्म-बंधनः – यदि व्यक्ति कृष्ण की संतुष्टि के लिए कर्म नहीं करता, जिन्हें विष्णु या यज्ञ के रूप में जाना जाता है, तो उसे परिणामी गतिविधियों की प्रतिक्रियाओं में उलझना ही होगा. ये प्रतिक्रियाएँ पाप और पुण्य कहलाती हैं. पवित्र कर्मों द्वारा व्यक्ति उच्चतर ग्रहमंडलों की ओर उत्थित होता है, और अपवित्र गतिविधियों द्वारा व्यक्ति जीवन की निम्न प्रजातियों में पतित हो जाता है, जिसमें उसे प्रकृति के नियमों द्वारा दंड दिया जाता है. जीवन की निम्न प्रजातियों में एक विकास प्रक्रिया होती है, और जब जीव का कारावास या दंड समाप्त हो जाता है, उसे पुनः मानव रूप दिया जाता है और स्वयं तय करने का अवसर दिया जाता है कि वह किस दिशा में योजना बनाए. यदि वह फिर से अवसर चूक जाता है, तो उसे पुनः जन्म और मृत्यु के चक्र में फेंक दिया जाता है, संसार चक्र, भौतिक अस्तित्व के पहिए को घुमाते हुए वह कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे. जैसे-जैसे पहिया कभी ऊपर और कभी नीचे जाता है, भौतिक प्रकृति के कड़े नियम भौतिक अस्तित्व में जीव को कभी सुखी और कभी दुखी बनाते हैं.”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 30
हरे कृष्ण मंत्र और ओंकार में क्या अंतर होता है?
“सामान्य रूप से ओम् का जाप करने का सुझाव दिया जाता है क्योंकि शुरुआत में व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व को नहीं समझ पाता. जैसा कि श्रीमद्-भागवतम् (1.2.11) में बताया गया है:
वदन्ति तत् तत्व-विदस तत्वम यज ज्ञानम अद्वयम
ब्रम्हति परमात्मेति भगवान इति सब्द्यते
“अनुभवी पारलौकिकतावादी जो परम सत्य जानते हैं वे इस अद्वैत तत्व को ब्रम्हन्, परमात्मा या भगवान कहते हैं.” जब तक व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व को पूरी तरह से नहीं मानता, तब तक उसकी प्रवृत्ति अपने हृदय के केंद्र में परम भगवान को खोजने वाले अवैयक्तिकतावादी योगी बनने की होती है (ध्यानावस्थिता-तद्-गतेन मनसा पश्यंति यम योगिनः). यहाँ ओंकार के जाप का सुझाव दिया जाता है क्योंकि पारलौकिक अनुभव के प्रारंभ में, हरे कृष्ण महा-मंत्र का जाप करने के स्थान पर, वयक्ति ओंकार (प्रणव) का जाप कर सकता है. हरे कृष्ण महामंत्र और ओंकार में कोई अंतर नहीं होता क्योंकि दोनों ही भगवान के परम व्यक्तित्व के ध्वनिक प्रतिनिधित्व होते हैं. प्रणवः सर्व-वेदेषु. सभी वैदिक साहित्य में, ध्वनि आवर्तन ओंकार ही प्रारंभ होता है. ओम नमो भगवते वासुदेवाय. ओंकार और हरे कृष्ण मंत्र के जाप में यह अंतर है कि हरे कृष्ण मंत्र का जाप भगवद्- गीता (6.11) में सुझाए गए स्थान या आसन व्यवस्था का विचार किए बिना किया जा सकता है:
सुचौ देशे प्रतिस्थाप्य स्थिरम् आसनम आत्मनः
नत्य-उच्चारितम नतिनिचम् चैलाजिन-कुशोत्तरम
“योग का अभ्यास करने के लिए, व्यक्ति को एकांत स्थान में जाकर कुशा को धरती बर बिछाना चाहिए और फिर उसे मृगछाल और मृदु कपड़े से ढँकना चाहिए. आसन न तो बहुत ऊँचा न ही बहुत नीचा होना चाहिए और पवित्र स्थान में स्थित होना चाहिए.” हरे कृष्ण मंत्र का जाप सभी के द्वारा बिना स्थान या किस प्रकार बैठना है का विचार किए बिना किया जा सकता है. श्री चैतन्य महाप्रभु ने सपष्ट रूप से घोषित किया है, नियमितः स्मरणे न कालाः. हरे कृष्ण महामंत्र का जाप करने में व्यक्ति के बैठने के स्थान के संबंध में कोई विशेष आदेश नहीं होते. नियमितः स्मरणे न कालाः के निर्देश में देश, काल और पात्र–स्थान, समय और व्यक्ति शामिल होते हैं.
इसलिए हरे कृष्ण मंत्र का जाप कोई भी कर सकता है, समय और स्थान का विचार किए बिना. विशेषकर इस काल, कलि-युग में, भगवद्-गीता के अनुसार सुझाया गया उपयुक्त स्थान ढूँढना बहुत कठिन है. यद्यपि, हरे कृष्ण महा मंत्र का जाप किसी भी स्थान पर किसी भी समय किया जा सकता है, और इसका परिणाम बहुत शीघ्रता से मिलता है. फिर भी हरे कृष्ण मंत्र का जाप करते समय व्यक्ति नियामक सिद्धांतों का पालन कर सकता है. अतः बैठे हुए और जाप करते समय व्यक्ति अपना शरीर सीधा रख सकता है, और इससे जाप की प्रक्रिया में सहायता मिलेगी; अन्यथा व्यक्ति उनींदा हो सकता है.”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 31
भगवानविहीन सभ्यता किसी भी क्षण नष्ट हो सकती है.
भौतिक संसार की रचना के समय से, दो प्रकार के पुरुष हुए हैं–देव और असुर. देव भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रति सदैव निष्ठावान होते हैं, जबकि असुर सदैव नास्तिक होते हैं जो भगवान की सत्ता की अवहेलना करते हैं. वर्तमान समय में, समस्त संसार में, नास्तिक बहुत बड़ी संख्या में हैं. वे सिद्ध करना चाहते हैं कि कोई भगवान नहीं हैं और सब कुछ भौतिक तत्वों के योग-संयोग से घटित होता है. अतः भौतिक संसार अधिकाधिक भगवान विहीन बनता जा रहा है, और परिणाम स्वरूप सब कुछ विच्छिन्न स्थिति में है. यदि ऐसा जारी रहता है, तो भगवान के परम व्यक्तित्व निश्चित ही उचित चरण उठाएँगे, जैसा कि उन्होंने हिरण्यकशिपु के प्रसंग में किया था. क्षण भर में ही, हिरण्यकशिपु और उसके अनुयायी नष्ट हो गए थे, और उसी प्रकार यदि यह भगवानविहीन सभ्यता चलती रही, तो इसका नाश, भगवान के परम व्यक्तित्व की अंगुली की गति भर से क्षण भर में हो जाएगा. इसलिए असुरों को सावधान होना चाहिए और उनकी भगवानविहीन सभ्यता को सीमित करना चाहिए. उन्हें कृष्ण चेतना आंदोलन का लाभ लेना चाहिए और भगवान के परम व्यक्तित्व के प्रति निष्ठावान बन जाना चाहिए; अन्यथा वे अभिशप्त हैं. जैसे हिरण्यकशिपु क्षण भर में मारा गया था, भगवानविहीन सभ्यता भी किसी भी क्षण नष्ट हो सकती है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 08- पाठ 31
धन की आसक्ति के कारण सबसे धनी व्यक्ति भी स्वयं से डरता है.
स्वस्मत शब्द का अर्थ है “स्वयं से.” धन की आसक्ति के कारण सबसे धनी व्यक्ति भी स्वयं से डरता है. उसे भय रहता है कि उसने अपना धन असुरक्षित रूप से ताले में बंद किया है या कुछ त्रुटि की है. सरकार और उसके आय कर के अतिरिक्त और चोरों के अतिरिक्त, किसी धनी व्यक्ति को स्वयं के सबंधी सदैव सोचते हैं कि उससे लाभ कैसे लिया जाए और उसका धन कैसे प्राप्त किया जाए. कभी-कभी इन संबंधियों का वर्णन स्व जनक-दस्यु के रूप में किया जाता है, जिसका अर्थ होता है “संबंधियों के रूप में दुष्ट और चोर.” इसलिए, संपत्ति जमा करने या अधिकाधिक धन के लिए अनावश्यक प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है. जीवन का वास्तविक उद्देश्य यह पूछना है “मैं कौन हूँ?” और स्वयं के आत्म, संसार को समझना, और समझना कि वापस परम भगवान तक, घर कैसे लौटना.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 33
व्यक्ति की भक्ति सेवा व्यर्थ कैसे हो जाती है?
“व्यक्ति की भक्ति सेवा तब व्यर्थ हो जाती है जब वह निम्न छः गतिविधियों में बहुत उलझ जाता है: (1) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन इकट्ठा करना; (2) साधारण वस्तुओं के लिए अत्यधिक प्रयास करना जिन्हें पाना बहुत कठिन होता है; (3) अनावश्यक रूप से व्यर्थ विषयों पर बातचीत करना; (4) शास्त्रीय नियमों का पालन केवल उनके पालन के लिए करना ना कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए करना, या शास्त्रों के नियमों का तिरस्कार करना और स्वच्छंदता या मनमाने ढंग से कार्य करना; (5) सांसारिक मानसिकता वाले लोगों के संपर्क में रहना जो कृष्ण चेतना में रुचि नहीं रखते; और (6) व्यर्थ साधारण उपलब्धियों के लिए लालची होना.”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 13- पाठ 34
एक भक्त उसके जीवन की किसी भी परिस्थिति में भाग्यशाली होता है.
जब भगवान हिरण्यकशिपु के सिंहासन पर विराजमान हुए, तो विरोध करने वाला कोई न था; हिरण्यकशिपु की ओर से भगवान से युद्ध करने कोई आगे नहीं आया. इसका अर्थ है कि उनकी श्रेष्ठता को दानवों द्वारा तुरंत स्वीकार कर लिया गया था. एक और बिंदु है कि यद्यपि हिरण्यकशिपु भगवान को अपना कटुतम शत्रु मानता था, किंतु वह वैकुंठ में भगवान का निष्ठावान सेवक था, और इसलिए भगवान को उस सिंहासन पर बैठने में कोई संकोच न था जिसे हिरण्यकशिपु ने इतने श्रम से बनाया था. श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर इस संबंध में टिप्पणी करते हैं कि कभी-कभी, बहुत सावधानी और ध्यान से, महान संत व्यक्ति और ऋषि वैदिक मंत्रों और तंत्रों के साथ समर्पित महत्वपूर्ण आसन भगवान को अर्पित करते हैं, लेकिन तब भी भगवान उन सिंहासनों पर नहीं बैठते. हिरण्यकशिपु, यद्यपि, पूर्व में वैकुंठ के द्वार का द्वारपाल जय था, और यद्यपि वह ब्राह्मणों के श्राप से पतित होकर राक्षस स्वभाव का हो गया था, भगवान अपने भक्तों और सेवकों के प्रति इतने स्नेही होते हैं कि एसा होने पर भी वे हिरण्यकशिपु द्वारा बनाए गए सिंहासन पर बैठने में प्रसन्न होते हैं. इस संबंध में यह समझना चाहिए कि एक भक्त जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में भाग्यशाली रहता है.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 08- पाठ 34
व्यक्ति को जन्म के अनुसार ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद्र के रूप में नहीं स्वीकारा जाना चाहिए.
यहाँ नारद मुनि द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया है कि व्यक्ति को जन्म के अनुसार ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, या शूद्र के रूप में नहीं स्वीकारा जाना चाहिए, क्योंकि यद्यपि ऐसा हो रहा है, इसे शास्त्रों द्वारा स्वीकार नहीं किया जाता. जैसा कि भगवद्- गीता (4.13) में कहा गया है, चतुर्-वर्ण्यम माया सृष्टम गुण-कर्म-विभागसः. इसलिए समाज के चार विभागों–ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र–का निर्धारण गुणों और गतिविधियों के अनुसार किया जाना चाहिए. यदि किसी का जन्म ब्राम्हण परिवार में हुआ था और उसने ब्राम्हण के गुण ग्रहण किए हैं, तो उसे ब्राम्हण के रूप में स्वीकारा जाए; अन्यथा, उसे ब्रम्ह-बंधु समझा जाना चाहिए. उसी प्रकार, यदि एक शूद्र ब्राम्हण के गुण अर्जित करता है, भले ही उसने शूद्र परिवार में जन्म लिया था, वह शूद्र नहीं है; क्योंकि उसने एक ब्राम्हण के गुण विकसित कर लिए हैं, उसे एक ब्राम्हण के रूप में स्वीकार करना चाहिए. कृष्ण चेतना आंदोलन का उद्देश्य इन ब्राम्हणीय गुणों का विकास करना है. चाहे व्यक्ति किसी भी समुदाय में जन्मा हो, यदि व्यक्ति ब्राम्हण के गुण विकसित कर लेता है तो उसे उसे एक ब्राम्हण के रूप में स्वीकार करना चाहिए, और फिर उसे सन्यास अवस्था का प्रस्ताव दिया जा सकता है. जब तक कि व्यक्ति ब्राम्हणीय लक्षणों के संबंध में योग्य न हो, वह सन्यास नहीं ले सकता. किसी व्यक्ति को ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नियत करने में जन्म आवश्यक लक्षण नहीं होता. यह ज्ञान बहुत महत्वपूर्ण है. यहाँ नारद मुनि विशिष्ट रूप से कहते हैं कि व्यक्ति को जाति के अनुसार स्वीकार किया जा सकता है यदि उसमें संबंधित गुण हों, किंतु अन्यथा नहीं. वह जिसने एक ब्राम्हण के गुण अर्जित कर लिए हैं, चाहे वह कहीं भी जन्मा हो, उसे ब्राम्हण के रूप में स्वीकारना चाहिए. उसी प्रकार, यदि व्यक्ति ने किसी शूद्र या किसी चांडाल के गुण विकसित किए हों, चाहे वह कहीं भी जन्मा हो, उसे उन लक्षणों के संदर्भ में ही स्वीकारा जाना चाहिए.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 11- पाठ 35
हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना अर्च-विग्रह की पूजा से अधिक शक्तिशाली होता है.
पूर्व में, सभी गतिविधियाँ विष्णु के संबंध में ही की जाती थीं, लेकिन, सत्य युग के बाद वैष्णवों के बीच अनादरपूर्व व्यवहार के लक्षण थे. श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने कहा था कि एक वैष्णव वह होता है जिसने अन्य लोगों की सहायता वैष्णव बनने में की हो. एक ऐसा उदाहरण जिन्होंने अन्यों को वैष्णव में परिवर्तित किया नारद मुनि हैं. एक शक्तिशाली वैष्णव जिसने अन्यों को वैष्णव में परिवर्तित किया हो उनकी पूजा की जाती है, लेकिन भौतिक प्रदूषण के कारण, कभी-कभी ऐसे असाधारण वैष्णव का अन्य लघु वैष्णवों द्वारा अनादर किया जाता है. जब महान संत व्यक्तियों ने यह प्रदूषण देखा, तो उन्होंने मंदिर में अर्च-विग्रह की पूजा प्रारंभ करवाई. यह त्रेता-युग में प्रारंभ हुआ और द्वापर-युग में विशेषकर प्रचलित था (द्वापरे परिचार्ययम). किंतु कलियुग में, अर्च-विग्रह की पूजा की अवहेलना की जा रही है. इसलिए हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना अर्च-विग्रह पूजन से अधिक शक्तिशाली होता है. श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने कोई मंदिर या अर्च-विग्रह स्थापित नहीं किए, बल्कि उन्होंने प्रचुरता के साथ संकीर्तन आंदोलन का सूत्रपात किया. इसलिए कृष्ण चेतना के उपदेशक को संकीर्तन आंदोलन पर अधिक बल देना चाहिए, विशेषकर अधिकाधिक मात्रा में पारलौकिक साहित्य का वितरण करके. इससे संकीर्तन आंदोलन को सहायता मिलती है. जब भी अर्च-विग्रह की पूजा करने की संभावना हो, तो व्यक्ति कई केंद्र स्थापित कर सकता है, किंतु व्यक्ति को पारलौकिक साहित्य के वितरण पर अधिक बल देना चाहिए, क्योंकि लोगों को कृष्ण चेतना में परिवर्तित करने में यह अधिक प्रभावी होगा.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 14- पाठ 39
व्यक्ति बलराम की दया के बिना जीवन के लक्ष्य अर्जित नहीं कर सकता.
“बलराम व्यक्ति को बल देते हैं. बलराम नित्यानंद हैं. व्रजेंद्र-नंदन येई, सचि-सुत हेला सेई, बलराम हैला निताई. यह बल- बलराम–चैतन्य महाप्रभु के साथ आता है, और वे दोनों इतने दयालु हैं कि कलि के इस युग में कि व्यक्ति उनके चरण कमलों में बड़ी सरलता से शरण ले सकता है. वे विशेष रूप से इस युग की पतित आत्माओं का उद्धार करने के लिए आते हैं. पापी तपी यत चिला, हरि-नामे उद्धारिला. उनका शस्त्र संकीर्तना, हरि-नाम है. अतः व्यक्ति को कृष्ण से ज्ञान की तलवार को स्वीकारना चाहिए और बलराम की दया से शक्तिशाली बनना चाहिए. मुंडक उपनिषद (3.2.4) में यह कहा गया है:
नयां आत्मा बल-हीनेन लभ्यो न च प्रमदत तपसो वापी अलिंगत
एतैर उपयैर यतते यस् तु विद्वंस तस्यैसा आत्मा विशते ब्रह्म-धाम
व्यक्ति बलराम की दया के बिना जीवन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता. श्री नरोत्तम दास ठाकुर इसीलिए कहते हैं, निताइरा करुणा हाबे, व्रजे राधा-कृष्ण पाबे : जब व्यक्ति बलराम, नित्यानंद, की दया पा लेता है, तो वह बड़ी सरलता से राधा-कृष्ण के चरणारविंद पा सकता है. से संबंध नहीं यारा, बृथा जन्म गेला तारा, विद्या कुले हि करिबे तारा. यदि किसी का निताई, बलराम, के साथ कोई संबंध नहीं होगा, तब वह चाहे बहुत बड़ा ज्ञानी हो या उसने बहुत सम्मानीय परिवार में जन्म लिया हो, ये संपत्तियाँ उसकी सहायता नहीं करेंगी. इसलिए हमें बलराम से प्राप्त बल के साथ कृष्ण चेतना के शत्रुओँ पर विजय पानी होगी. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 45
मुक्ति की प्रक्रिया भक्तों के लिए अभीष्ट नहीं है.
“मुक्ति या मुक्ति के पथ पर सुधार के लिए दस प्रक्रियाएँ भक्तों के लिए अभीष्ट नहीं होती हैं. केवल्य भक्त्य: यदि व्यक्ति केवल भगवान की भक्ति सेवा में रत हो जाए, तो मुक्ति की सभी दस विधियाँ स्वतः ही संपन्न हो जाती हैं. प्रह्लाद महाराज का प्रस्ताव है कि ऐसी प्रक्रियाएँ अजितेंद्रिय के लिए सुझाई जा सकती हैं, वे जो अपनी इंद्रियों पर विजय नहीं पा सकते. अर्वोपधि-विनिर्मुक्तम तत्-परत्वेन निर्मलम : एक भक्त भौतिक दूषण से पहले से ही मुक्त होता है. श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने इसीलिए कहा है:
दुष्ट माना! तुमी किसेरा वैष्णव?
प्रतिष्ठा तारे, निर्जनेरा घरे,
ताल हरि-नाम केवल कैतव
ऐसे कई हैं जो हरे कृष्ण मंत्र का जाप मौन, एकांत स्थान में करना पसंद करते हैं, लेकिन यदि व्यक्ति प्रचार में रुचि नहीं रखता, लगातार अभक्तों से बातचीत करता है, तो प्रकृति के गुणों के प्रभाव से पार पाना अत्यंत कठिन होता है. इसलिए जब तक कोई कृष्ण चेतना में बहुत प्रगति न कर ले, उसे हरिदास ठाकुर की नकल नहीं करनी चाहिए, जिन्हें सदैव, दिन के चौबीसों घंटे पवित्र नाम के जाप करने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं था. प्रह्लाद महाराज ऐसी प्रक्रिया की निंदा नहीं करते; वे उसे स्वीकार करते हैं, किंतु भगवान की सक्रिय सेवा के बिना, केवल ऐसी विधियों से व्यक्ति सामान्यतः मुक्ति नहीं पा सकता. केवल झूठे गर्व से व्यक्ति मुक्ति नहीं पा सकता. ”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 46
आत्मा को स्त्री शरीर में स्थानांतरित कैसे किया जाता है?
भले ही किसी व्यक्ति को चंद्रलोक जैसी उच्चतर ग्रह प्रणाली में पदोन्नत किया जा सकता है, व्यक्ति को नीचे आना ही होता है (क्षीणे पुण्ये मर्त्य-लोकम विषंति). पवित्र कर्मों के कारण व्यक्ति के आनंद के समाप्त हो जाने के बाद, व्यक्ति को वर्षा वृष्टि में इस ग्रह पर लौटना ही पड़ता है और पहले किसी पौधे या लता के रूप में जन्म लेना पड़ता है, जिसे मानवों सहित विभिन्न पशुओं द्वारा खाया जाता है, और जो वीर्य में परिवर्तित हो जाता है. यह वीर्य स्त्री शरीर में प्रविष्ट किया जाता है और इस प्रकार जीव जन्म लेता है.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 50 और 51
भगवान को समझने की प्रक्रिया भक्ति है.
वेदों का आदेश है : नयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधाया न बहुणा श्रुतेण. केवल वेदों के अध्ययन और प्रार्थना द्वारा व्यक्ति भगवान के परम व्यक्तित्व को नहीं समझ सकता, केवल परम भगवान की कृपा से ही व्यक्ति उन्हें समझ सकता है. इसलिए, भगवान को समझने की प्रक्रिया भक्ति है. भक्ति के बिना, परम सत्य को समझने के लिए केवल वैदिक निर्देशों का पालन करना बिलकुल भी सहायक नहीं होगा. भक्ति की प्रक्रिया को परमहंस समझता है, जिसने हर वस्तु के मर्म को स्वीकार कर लिया है. भक्ति के परिणाम ऐसे परमहंस के लिए आरक्षित होते हैं, और यह अवस्था भक्ति सेवा के अतिरिक्त किसी भी वैदिक प्रक्रिया द्वारा अर्जित नहीं की जा सकती. अन्य प्रक्रियाएँ, जैसे ज्ञान और योग, तभी सफल हो सकती हैं जब भक्ति के साथ मिश्रिता हों. जब हम ज्ञान योग, कर्म योग और ध्यान-योग की बात करते हैं, तो योग भक्ति का सूचक होता है. केवल बुद्धिमत्ता और पूर्ण ज्ञान के साथ निष्पादित भक्ति योग, या बुद्धि योग ही घर वापस, परम भगवान के पास लौटने की सफल विधि होती है. यदि व्यक्ति भौतिक अस्तित्व की पीड़ा से मुक्त होना चाहता है, तो उसे इस लक्ष्य की शीघ्र प्राप्ति के लिए भक्ति सेवा अपना लेनी चाहिए.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 09- पाठ 50
यदि आध्यात्मिक संसार में कोई वास्तविक मूलरूप न होता, तो इस संसार की विविधताएँ असंभव होतीं.
“अवैयक्तिकतावादी यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि अनुभववादी दार्शनिक की दृष्टि की विविधताएँ झूठी हैं. अवैयक्तिकतावादी दर्शन, विवर्त वाद, सामान्यतः रस्सी को साँप स्वीकार कर लेना इस तथ्य के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इस उदाहरण के अनुसार, हमारी दृष्टि में व्याप्त विविधताएँ झूठी हैं, वैसे ही जैसे किसी रस्सी को साँप के रूप में देखना झूठा होता है. जबकि, वैष्णव कहते हैं कि भले ही रस्सी के साँप होने का विचार झूठ है, किंतु साँप झूठ नहीं है; व्यक्ति को साँप का वास्तविकता में अनुभव होता है, और इसलिए वह जानता है कि भले ही रस्सी का साँप के रूप में प्रस्तुत किया जाना झूठा या भ्रामक हो, वास्तविकता में साँप होता है. उसी प्रकार, यह संसार, जो विविधताओं से भरा हुआ है, झूठा नहीं है; यह वैकुंठ संसार, आध्यात्मिक संसार की वास्तविकता का प्रतिबिंब है.
किसी दर्पण से सूर्य का परावपर्तन और कुछ नहीं बल्कि अंधेरे में प्रकाश का होना है. इसलिए यद्यपि वह सीधे सूर्य का प्रकाश नहीं है, सूर्य के प्रकाश के बिना परावर्तन असंभव होगा. उसी प्रकार, इस संसार की विविधताएँ असंभव होतीं, यदि आध्यात्मिक संसार में कोई वास्तविक मूलरूप न होता. मायावादी दार्शनिक इसे नहीं समझ सकते, लेकिन एक वास्तविक दार्शनिक को यह मानना ही होगा कि सूर्य की पृष्ठभूमि के बिना प्रकाश बिलकुल भी संभव नहीं होता है. इसलिए मायावादी दार्शनिक द्वारा इस भौतिक संसार को झूठा सिद्ध करने के लिए प्रयोग किया गया शब्दजाल अऩुभवहीन बालकों को तो आश्चर्यचकित करत सकता है, लेकिन पूर्ण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अच्छी प्रकार से जानता है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं हो सकता. इसलिए एक वैष्णव येन केन प्रकारेण कृष्ण को स्वीकारने पर बल देता है (तस्मत केनपि उपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत).”
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15 – पाठ 58
हरे कृष्ण आंदोलन कोई नया आंदोलन नहीं है.
संकीर्तन का अर्थ भगवान के पवित्र नाम का जाप होता है. हरे कृष्ण आंदोलन कोई नया आंदोलन नहीं है जैसा कि लोग त्रुटिवश कभी-कभी सोचते हैं. हरे कृष्ण आंदोलन भगवान ब्रम्हा के जीवन की प्रत्येक सहस्त्राब्दी में उपस्थित रहता है, और पवित्र नाम का जाप सभी उच्चतर ग्रह मंडलों में किया जाता है, जिनमें ब्रम्हलोक और चंद्रलोक शामिल हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है कि गंधर्वलोक और अप्सरालोक भी शामिल हैं. संकीर्तन आंदोलन जो इस संसार में पाँच सौ वर्ष पहले चैतन्य महाप्रभु द्वारा प्रारंभ किया गया था, नया आंदोलन नहीं है. कभी कभी, हमारे दुर्भाग्य के कारण, यह आंदोलन रुक जाता है, लेकिन श्री चैतन्य महाप्रभु और उनके सेवक समस्त संसार या, निश्चित ही समस्त ब्रह्मांड के लाभ के लिए आंदोलन को फिर से प्रारंभ कर देते हैं.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 71
देवताओं के नाम के आधार पर कीर्तन करना दोष होता है.
जहाँ तक कीर्तन का प्रश्न है, शास्त्र कहते हैं,श्रवणं कीर्तनम विष्णोः : व्यक्ति को परम भगवान की महिमा व परम भगवान के पवित्र नाम का जाप करना चाहिए. यह स्पष्ट कहा गया है. श्रवणं कीर्तनम विष्णोः : व्यक्ति को भगवान विष्णु के बारे में और उनकी महिमा का जाप करना चाहिए, न कि किसी देवता का. दुर्भाग्य से, ऐसे मूर्ख व्यक्ति हैं जो कीर्तन की कुछ प्रक्रिया देवताओं के नाम के आधार पर अविष्कृत करते हैं. यह दोष है. कीर्तन का अर्थ है परम भगवान का गुणगान, किसी देवता का नहीं. कई बार लोग काली-कीर्तन या शिवकीर्तन गढ़ लेते हैं, और यहाँ तक कि मायावादी पंथ के बड़े सन्यासी कहते हैं कि व्यक्ति किसी भी नाम का जाप कर सकता है और तब भी उसे समान परिणाम मिलते हैं. किंतु यहाँ हम पाते हैं कि लाखों वर्ष पहले, जब नारद मुनि एक गंधर्व थे, तो उन्होंने भगवान के गुणगान के आदेश की उपेक्षा की थी, और स्त्रियों के संसर्ग में मतवाले थे, तो उन्होंने अन्यथा ही जाप शुरू कर दिया. अतः उन्हें शूद्र बन जाने का श्राप मिला. उनका पहला दोष यह था कि वे कामी स्त्रियों की संगति में संकीर्तन करने गए, और दूसरा दोष यह कि उन्होंने सामान्य गीतों, जैसे सिनेमा के गीत और अन्य ऐसे गीतों को संकीर्तन के समकक्ष माना. इस दोष के लिए उन्हें शूद्र बन जाने का दंड दिया गया.
स्रोत- अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, सातवाँ सर्ग, खंड 15- पाठ 72



























