हमारे ध्यान का प्रयोजन क्या होना चाहिए?
ध्यान का अर्थ मन को भगवान के रूप, भगवान के गुणों, भगवान की कार्य-कलापों और भगवान की सेवा पर लगाना है. ध्यान का अर्थ कुछ भी अवैयक्तिक या शून्य नहीं है. वैदिक शास्त्रों के अनुसार, ध्यान हमेशा विष्णु का रूप होता है. नृसिंह पुराण में भगवान के रूप पर ध्यान के बारे में एक कथन है. उसमें कहा गया है: “भगवान के परम व्यक्तित्व के चरण कमलों पर एकाग्र ध्यान को पारलौकिक के रूप में और भौतिक पीड़ा और आनंद के पार स्वीकार किया गया है. ऐसे ध्यान द्वारा, जो बहुत दुराचारी हो उसे भी पापपूर्ण जीवन की प्रतिक्रियाओं से बचाया जा सकता है.” विष्णु-धर्म में भगवान के पारलौकिक गुणों पर ध्यान के बारे में एक कथन है, “वे व्यक्ति जो कृष्ण चेतना में लगातार लीन रहते हैं, और जो भगवान के पारलौकिक गुणों को याद रखते हैं, वे पापमय गतिविधियों की सभी प्रतिक्रियाओं से स्वतंत्र हो जाते हैं, और इतने पवित्र होकर वे भगवान के राज्य में प्रवेश लेने के योग्य बन जाते हैं‘ “अन्य शब्दों में, सभी पापमय प्रतिक्रियाओं से मुक्त हुए बिना कोई भी भगवान के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता. पापमय प्रतिक्रियाओं को भगवान के रूप, गुणों, लीलाओं इत्यादि का स्मरण करके सरलता से टाला जा सकता है.” पद्मपुराण में भगवान के क्रिया-कलापों के का स्मरण करने के बारे में एक कथन है: “भगवान की मधुर लीलाओं और आश्चर्यजनक क्रियाओं के ध्यान में रत व्यक्ति निश्चित रूप से सभी भौतिक संदूषणों से मुक्त हो जाता है.” कुछ पुराणों में यह प्रमाण दिया गया है कि यदि कोई केवल आध्यात्मिक कर्मों पर ध्यान कर रहा है, तो उसे मनोवांछित फल मिला है और भगवान के परम व्यक्तित्व का दर्शन प्रत्यक्ष कर चुका है. इस संबंध में, ब्रम्ह-वैवर्त पुराण में एक कहानी है कि दक्षिण भारत में प्रतिष्ठानपुर नगर में एक बार एक ब्राम्हण था जो बहुत संपन्न नहीं था, लेकिन वह फिर भी अपने आप में संतुष्ट था, यह सोच कर कि, उसके पिछले त्रुटि पूर्वक कार्यों के कारण उसे पर्याप्त धन और ऐश्वर्य नहीं मिला था. इसलिए वह अपनी विपन्न भौतिक अवस्था से बिलकुल भी दुखी नहीं था, और वह बहुत शांति से रहता था. वह बहुत खुले हृदय का था, और कभी-कभी वह महान आत्मप्रज्ञ आत्माओं द्वारा दिए गए प्रवचन सुनने जाता था. ऐसी एक बैठक में, वह वैष्णव गतिविधियों के बारे में बहुत मन-प्राण से सुन रहा था. उसे सूचना मिली कि इन गतिविधियों को ध्यान द्वारा भी निष्पादित किया जा सकता है. दूसरे शब्दों में, यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से वास्तविक वैष्णव गतिविधियों का निष्पादन करने में असमर्थ हो, तो वह वैष्णव गतिविधियों पर ध्यान कर सकता है और इस प्रकार समान परिणाम प्राप्त कर सकता है. चूँकि ब्राम्हण आर्थिक रूप से संपन्न नहीं था, उसने तय किया कि वह बस वैभवपूर्ण, राजसी आध्यात्मिक गतिविधियों पर ध्यान करेगा, और इस प्रकार उसने व्यवसाय शुरू कर दिया. कभी-कभी वह गोदावरी नदी में स्नान करता. स्नान करने के बाद वह नदी के तट पर एक निश्चित स्थान पर बैठता, और, योग के प्राणायाम, श्वासोच्छ्वास व्यायाम का अभ्यास करके, वह अपने मन को एकाग्र करता. श्वासोच्छ्वास का यह व्यायाम मन को किसी एक विषय पर स्थिर करता है. यह श्वास के व्यायाम और साथ ही योग के विभिन्न आसनों का परिणाम है. पूर्व में, बहुत साधारण लोग भी भगवान पर मन को केंद्रित करना जानते थे, और इसलिए ब्राम्हण भी वही कर रहा था. जब उसने भगवान का रूप अपने मन में स्थिर कर लिया, तब वह अपने ध्यान में कल्पना करने लगा कि वह भगवान को मूल्यवान वस्त्र, आभूषण, मुकुट और अन्य अलंकार पहना रहा था. तब उसने भगवान के सामने झुककर आदरपूर्वक प्रणाम किया. वस्त्र पहनाने के बाद वह कल्पना करने लगा कि वह बहुत अच्छी तरह से मंदिर की सफाई कर रहा है. मंदिर को साफ करने के बाद, उसने कल्पना की कि उसके पास सोने और चांदी से बने कई पात्र हैं, और वह उन सभी को नदी में ले गया और उन्हें पवित्र पानी से भर लिया. उसने न केवल गोदावरी का पानी लिया, बल्कि उसने गंगा, यमुना, नर्मदा और कावेरी का पानी भी संग्रहित किया. सामान्यतः एक वैष्णव, भगवान की पूजा करते समय, इन सभी नदियों से मंत्र जप के द्वारा जल इकट्ठा करता है. इस ब्राम्हण ने किसी मंत्र का जाप करने के स्थान पर, यह कल्पना की, कि वह इन सभी नदियों का जल सोने और चांदी के पात्रों में एकत्र कर रहा है. फिर उसने पूजा के लिए सभी प्रकार की सामग्री- फूल, फल और चंदन का लेप एकत्र किया. उसने देवता के सम्मुख रखने के लिए सबकुछ एकत्र किया. उसके बाद ये सभी जल, फूल और सुगंधित सामग्री बड़े उत्तम ढंग से देवताओं को अर्पित किए गए. फिर उसने आरती की, और नियामक सिद्धांतों के अनुसार पूजन की उचित रीति से सभी कार्य पूरे किए. वह इस प्रक्रिया को प्रतिदिन नित्य रूप से अपने नियमित कार्य के समान करता, और वह ऐसा कई वर्षों तक करता रहा. फिर एक दिन ब्राम्हण ने अपने ध्यान में कल्पना की कि उसने दूध और शक्कर के साध मीठे चावल तैयार किए हैं और उस व्यंजन को देवता को अर्पित किया. यद्यपि, वह अपने लगाए गए भोग से बहुत संतुष्ट नहीं था क्योंकि मीठे चावल अभी-अभी पकाए गए थे और वे अब भी बहुत गरम थे. (इस व्यंजन, मीठे चावल, को गर्म नहीं खाते. मीठा चावल जितना ठंडा हो उतना ही स्वादिष्ट होता है. अतः चूँकि मीठा चावल ब्राम्हण द्वारा अभी-अभी पकाया गया था, वह उसे छूकर देखना चाहता था ताकि वह भगवान के खाने के लिए उचित है या नहीं. जैसे ही उसने अपनी उंगली से मीठे चावल के बर्तन को छुआ, वह तुरंत बर्तन की गर्मी से जल गया. इस प्रकार उसका ध्यान टूट गया. अब, जब उसने अपनी उंगली देखी, तो उसने पाया कि वह जल गई थी, और उसे आश्चर्य था कि ऐसा कैसे हो सकता है. क्योंकि वह तो बस गर्म मीठे चावल को छूने का ध्यान कर रहा था, उसने कभी नहीं सोचा था कि उसकी उंगली वास्तव में जल जाएगी. जव वह इस विचार में था, वैकुंठ में, भाग्य की देवी लक्ष्मी के साथ विराजमान, भगवान नारायण विनोदपूर्वक मुस्कुराने लगे. भगवान की इस मुस्कुराहट को देखकर भगवान के सेवा में रत भाग्य की सभी देवियाँ अति-उत्सुक हो गईं, और उन्होंने भगवान नारायण से पूछा कि वह क्यों मुस्कुरा रहे हैं. यद्यपि, भगवान ने उनकी जिज्ञासा का उत्तर नहीं दिया, बल्कि तुरंत ब्राम्हण को बुलवाया. वैकुंठ से भेजा गया एक विमान ब्राम्हण को तुरंत भगवान की उपस्थिति में लेकर आ गया. जब ब्राह्मण इस प्रकार भगवान और भाग्य की देवियों के सामने उपस्थित हुआ, तो प्रभु ने पूरी कहानी को समझाया. उस समय ब्राम्हण भगवान और उनकी लक्ष्मियों की संगत में शाश्वत स्थान पाने हेतु पर्याप्त सौभाग्यशाली बन गया. यह दिखाता है कि स्थानीय रूप से अपने धाम में स्थित होते हुए भी भगवान सर्व-व्यापी हैं. यद्यपि भगवान वैकुंठ में उपस्थित थे, वे तब ब्राम्हण के हृदय में भी उपस्थित थे जब वह पूजन विधि का ध्यान कर रहा था. इस प्रकार, हम समझ सकते हैं कि भक्तों द्वारा मात्र ध्यान में भी प्रस्तुत की गई वस्तुएँ भगवान द्वारा स्वीकार की जाती हैं, और वे इच्छित फल प्राप्त करने में व्यक्ति की सहायता करती हैं.
अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2011 संस्करण, अंग्रेजी), “भक्ति का अमृत”, पृ. 92-94