जब हम कृष्ण की मूर्ति को मंदिर में देखते हैं, तो हमें सोचना चाहिए कि मूर्ति कृष्ण ही हैं. कृष्ण ने हमारे द्वारा ऐसे ही देखा जाना और वस्त्र पहनाए जाना स्वीकार किया है. यद्यपि, यदि हम कृष्ण के विराट स्वरूप, उनके ब्रम्हाण्डीय रूप के बारे में सोचें, तो हम क्या कर सकते हैं? हम विराट रूप को वस्त्र कैसे पहना सकते हैं? उनके कई सिर आकाश को घेरते हैं, और हम तो उनकी कल्पना भी नहीं कर सकते. कृष्ण सबसे बड़े से भी बड़े और सबसे लघु से भी लघु बन सकते हैं. इसलिए इस श्लोक में कहा गया है: भक्त्या पुमान जात-वैराग्य ऐंद्रियत. हम जितना भी कृष्ण की सेवा करते हैं, उन्हें भोजन के पदार्थ देते हैं और उन्हें बढ़िया वस्त्र पहनाते हैं, उतनी ही हमारी अपने शरीर के प्रति रुचि कम होती जाती है. भौतिक संसार में हर कोई कामुक रूप से आकर्षक लगने के लिए स्वयं को अच्छे वस्त्र पहनाने में व्यस्त है, लेकिन यदि हम कृष्ण को अच्छे वस्त्र पहनाते हैं, तो हम स्वयं अपने भौतिक वस्त्र भूल जाएंगे. यदि हम कृष्ण को अच्छा भोजन कराते हैं, तो हम इस या उस रेस्तराँ में जाकर स्वयं अपनी जिव्हा को संतुष्ट करना भूल जाते हैं. ऐसा नहीं है कि शिक्षा रूपी संपत्ति की आवश्यकता है. व्यक्ति को भाषा भी जानने की आवश्यकता नहीं है. एकमात्र सामग्री जो आवश्यक है वह भक्ति, प्रेम है. यदि कोई विशुद्ध भक्त बन जाता है, तो वह सभी भौतिक इंद्रिय सुख को भूल जाएगा. भक्त बन जाने का अर्थ बस तिलक और धोती धारण करना नहीं है. यदि व्यक्ति को भौतिक इंद्रिय सुख का आस्वाद है तो वह भक्त नहीं है. एक सच्चा भक्त अपनी इंद्रियों की तुष्टि नहीं बल्कि कृष्ण की इंद्रिय तुष्टि चाहता है.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2007 संस्करण, अंग्रेजी), “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 165 व 166

(Visited 33 times, 1 visits today)
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •