कोई प्रश्न कर सकता है कि व्यक्ति कैसे हमेशा भगवान का विचार उनके नाम, प्रसिद्धि, गुण इत्यादि के संदर्भ में कर सकता है, यदि वह पारिवारिक प्रसंगों के विचारों द्वारा लज्जित हो. भौतिक संसार में हर व्यक्ति इन विचारों से भरा होता है कि परिवार का पालन कैसे करें, अपनी संपत्ति की रक्षा कैसे करें, कैसे मित्रों और संबंधियों से तारतम्य रख सकें, इत्यादि. इस प्रकार वह हमेशा डर और शोक में रहता है, यथास्थिति बनाए रखने का प्रयास कर रहा होता है. इस प्रश्न के उत्तर में, ब्रम्हा द्वारा कहा गया यह श्लोक बहुत उचित है. भगवान का एक विशुद्ध भक्त कभी भी स्वयं को अपने घर का स्वामी नहीं समझता. वह सभी चीज़ों को भगवान के परम नियंत्रण में समर्पित कर देता है, और इस प्रकार उसे अपने परिवार के पालन या परिवार के हितों की रक्षा करने का कोई भय नहीं होता. उसके समर्पण के कारण, उसे संपत्ति के लिए अब कोई मोह नहीं रहता. भले ही संपत्ति के लिए आकर्षण हो भी, तो वह इंद्रिय भोग के लिए नहीं होता, बल्कि भगवान की सेवा के लिए होता है. एक विशुद्ध भक्त, किसी सामान्य व्यक्ति के समान संपत्ति संचय के प्रति आकर्षित हो सकता है, लेकिन अंतर यह है कि एक भक्त भगवान की सेवा के लिए धन संचय करता है, जबकि सामान्य व्यक्ति अपने इंद्रिय भोग के लिए संपत्ति संचय करता है. इस प्रकार एक भक्त द्वारा धन का अधिग्रहण चिंताओं का स्रोत नहीं है, जैसा कि एक सांसारिक व्यक्ति के लिए होता है. और चूंकि एक विशुद्ध भक्त सभी कुछ को भगवान की सेवा करने के अर्थ में स्वीकार करता है, धन अधिग्रहण के विषैले दाँत निकल जाते हैं. यदि किसी साँप के विष निकाल दिया जाए और वह किसी व्यक्ति को काट ले, तो उसका कोई भी प्राणघातक प्रभाव नहीं होगा. एक विशुद्ध भक्त कभी भी भौतिक सांसारिक प्रसंगों में नहीं उलझता भले ही वह सामान्य मानव के समान संसार में ही रहा आए.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, तृतीय सर्ग, अध्याय 9- पाठ 6

(Visited 21 times, 1 visits today)
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •  
  •