कलियुग को पतन का युग कहा जाता है. इस पतित युग में, चूँकि जीव एक अटपटी स्थिति में हैं, परम भगवान ने उनके लिए कुछ विशिष्ट सुविधाएँ दी हैं. अतः भगवान की इच्छा से, कोई भी जीव पापमय गतिविधि का पीड़ित तब तक नहीं बनता जब तक कि वह कृत्य वास्वव में नहीं किया जाता. अन्य युगों में किसी पापमय कर्म को करने की कल्पना करने मात्र से, व्यक्ति पापमय गतिविधि का पीड़ित बन जाता था. इसके विरुद्ध, इस युग में कोई जीव को किसी पवित्र कर्म की कल्पना करने मात्र से उनका परिणाम मिलता है. भगवान की कृपा से, सबसे ज्ञानी और अनुभवी, महाराज परीक्षित अनावश्यक रूप से कलि के वयक्तित्व से ईर्ष्या नहीं करते थे क्योंकि वे उसे पापमय कर्म करने का कोई अवसर नहीं देना चाहते थे. उन्होंने अपनी प्रजा को कालियुग के पापमय कृत्यों का भोगी होने से बचाया, और साथ ही साथ उन्होंने उसे कुछ विशेष स्थान प्रदान करके कलियुग को पूरी सुविधा दी. श्रीमद्-भागवतम् के अंत में यह कहा गया है कि भले ही कलि के व्यक्तित्व के सभी अपवित्र कृत्य उपस्थित हों, कलि युग का बहुत बड़ा लाभ है. व्यक्ति बस भगवान के पवित्र नाम का जाप करने मात्र से मुक्ति पा सकता है. इसलिए महाराज परीक्षित ने भगवान के पवित्र नाम के जाप का प्रचार करने के लिए संगठित प्रयास किया, और इस प्रकार अपने नागरिकों को कलि के पंजे से बचाया. इसी लाभ के लिए कभी-कभी महान संत कलियुग के लिए आशीर्वाद देते हैं. वेदों में भी यह कहा गया है कि भगवान कृष्ण की गतिविधियों पर प्रवचन द्वारा, व्यक्ति कलियुग की हनियों से छुटकारा पा सकता है. श्रीमद्-भागवतम् की शुरुआत में यह भी कहा गया है कि श्रीमद्-भागवतम् के वाचन द्वारा, परम भगवान व्यक्ति के हृदय में तुरंत उपस्थित हो जाते हैं. कलियुग के कुछ महान लाभ यही हैं, महाराज परीक्षित ने सभी लाभ लिए और उन्होंने अपने वैष्णव धर्म पर सच्चा बना रहते हुए कलियुग के बारे में बुरा नहीं सोचा.

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी) “श्रीमद् भागवतम्”, प्रथम सर्ग, खंड 18 – पाठ 7

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