प्रबुद्ध भक्त संकट की परिस्थितियों को भी भगवान की उपस्थिति का प्रतिनिधित्व करने वाली स्वीकार करते हैं. जब कोई भक्त संकट में होता है, तो वह देखता है कि भगवान भक्त को भौतिक संसार के प्रदूषण से मुक्त या शुद्ध करने के लिए संकट के रूप में प्रकट हुए हैं. जब व्यक्ति भौतिक संसार में होता है तो वह विभिन्न परिस्थितियों में रहता है, और इसलिए एक भक्त संकट की स्थिति को भगवान की एक और विशेषता के रूप में देखता है. तत् ते ‘नुकम्पां सुसमीकक्षामानः (भाग 10.14.8). इसीलिए एक भक्त, संकट को भगवान का एक महान अनुग्रह मानता है क्योंकि वह समझता है कि उसे प्रदूषण से शुद्ध किया जा रहा है. तेषां अहम् समुद्धरता मृत्यु-संसार-सागरात (भ.गी. 12.7). संकट की उपस्थिति एक नकारात्मक प्रक्रिया है जिसका उद्देश्य भक्त को इस भौतिक संसार से विश्राम देना है, जिसे मृत्यु-संसार, या जन्म और मृत्यु की निरंतर पुनरावृत्ति कहा जाता है. एक समर्पित आत्मा को बार-बार जन्म और मृत्यु से बचाने के लिए, भगवान उसे थोड़ा कष्ट देकर उसे प्रदूषण से शुद्ध करते हैं. इसे एक अभक्त द्वारा नहीं समझा जा सकता है, किंतु एक भक्त इसे देख सकता है क्योंकि वह विपश्चित है, या प्रबुद्ध होता है. अत: एक अभक्त संकट में व्याकुल होता है, किंतु भक्त संकट को भगवान के एक और लक्षण के रूप में स्वीकार करता है. सर्वं खल्व इदं ब्रह्म. एक भक्त वास्तव में देख सकता है कि केवल भगवान का परम व्यक्तित्व है और कोई दूसरी उपस्थिति नहीं होती. एकं एवाद्वितीयम. केवल भगवान ही हैं, जो स्वयं को विभिन्न ऊर्जाओं में प्रस्तुत करते हैं.
स्रोत:अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), श्रीमद् भागवतम्, दसवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 28
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