मिथ्या ब्राम्हण की सेवा करके व्यक्ति को लाभ नहीं मिलेगा.

भगवद्-गीता (2.65) में यह कहा गया है: प्रसादे सर्व-दुखानाम् हनिर् अस्योपाजायते. जब तक कि कोई स्वांतसंतुष्ट न हो, वह भौतिक अस्तित्व की दारुण स्थितियों से मुक्त नहीं हो सकता. इसलिए स्वांत-संतुष्टि की पूर्णता को अर्जित करने के लिए ब्राम्हणों और वैष्णवों की सेवा करना आवश्यक है. श्रील नरोत्तम दास ठाकुर इसीलिए कहते हैं: तंदेर चरण सेवि भक्ता-सने वासा जनमे जनमे हय, एई अभिलाषा “मैं जन्म जन्मांतरों तक आचार्यों के चरण कमलों की सेवा करने और भक्तों के समाज में रहने की कामना करता हूँ.” केवल भक्तों के समाज में रहकर और आचार्यों के आदेशों की सेवा करके ही एक आध्यात्मिक वातावरण बनाए रखा जा सकता है. आध्यात्मिक गुरु ही सर्वश्रेष्ठ ब्राम्हण होता है. वर्तमान में, कलियुग में, ब्राम्हण-कुल या ब्राम्हण वर्ग की सेवा करना बहुत कठिन है. वराह पुराण के अनुसार, कठिनाई वे राक्षस है, जिन्होने कलि-युग का लाभ लेकर ब्राम्हण कुलों में जन्म ले लिया है. राक्षसः कलिम् आश्रित्य जयंते ब्रम्ह-योनिषु (वराह पुराण). दूसरे शब्दों में, इस युग में ऐसे कई जातिगत ब्राम्हण और गोस्वामी हैं, जो शास्त्रों और जन सामान्य के भोलेपन का लाभ ले रहे हैं, जो आनुवांशिक अधिकार द्वारा ब्राम्हण और वैष्णव होने का दावा करते हैं. ऐसे मिथ्या ब्राम्हण-कुलों की सेवा करके व्यक्ति को कोई लाभ नहीं मिलेगा. इसलिए व्यक्ति को किसी प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु और उसके सहयोगियों की शरण लेना चाहिए और उनकी सेवा भी करनी चाहिए, क्योंकि ऐसी गतिविधि ही पूर्ण संतुष्टि प्राप्त करने में नवदीक्षित की बहुत सहायता करेगी. इसे श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने अपने श्लोक व्यवसायात्मिका बुद्धिर् एकेह कुरु-नंदना (भगी. 2.41) की व्याख्या में बहुत स्पष्ट रूप से बताया है. वास्तव में भक्ति-योग के नियामक सिद्धांतों का पालन करते हुए, जैसा कि श्रील नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा सुझाया गया है, व्यक्ति बहुत जल्दी मुक्ति के पारलौकिक स्तर पर आ सकता है, जैसा कि इस श्लोक (अत्यंत-समम) में बताया गया है. अनतिवेलम् (बिना विलंब) शब्द का विशिष्ट प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि केवल ब्राम्हणों और वैष्णवों की सेवा करके ही व्यक्ति मुक्ति पा सकता है. गंभीर तपस्या और प्रायश्चित करने की आवश्यकता नहीं है. इसका विविध उदाहरण स्वयं नारद मुनि हैं. उनके पिछले जन्म में, वे बस एक सेविका के पुत्र थे, लेकिन उन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मणों और वैष्णवों की सेवा करने का अवसर मिला, और इस प्रकार अपने अगले जीवन में वे न केवल मुक्त हो गए, बल्कि संपूर्ण वैष्णव शिक्षा पद्धति के सर्वोच्च आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रसिद्ध हो गए. इसलिए, वैदिक प्रणाली के अनुसार, प्रथानुसार यह सुझाव दिया जाता है कि अनुष्ठान समारोह करने के बाद, ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए.

स्रोत: अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम्”, चतुर्थ सर्ग, अध्याय 21- पाठ 40