दीक्षा के समय नाम परिवतर्ति करना आवश्यक क्यों होता है?
अपने जीवन के प्रारंभ में अजामिल निश्चित ही शुद्ध था, और वह भक्तों और ब्राम्हणों की संगत करता था; उस पवित्र कर्म के कारण, उसके पतित होने पर भी, उसे अपने पुत्र का नाम नारायण रखने की प्रेरणा मिली. निश्चित ही ऐसा भगवान के परम व्यक्तित्व द्वारा दिए गए भीतरी मंगल विमर्श के कारण था. जैसा कि भगवान भगवद-गीता (15.15) में कहते हैं, सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविस्तो मत्तः स्मृतिर ज्ञानं अपोहनं च:”मैं सभी के हृदय में बैठा हूं, और मुझ से ही स्मरण, ज्ञान और विस्मृति आते हैं.” भगवान, जो सभी के हृदय में स्थित हैं, वे इतने दयालु हैं कि यदि किसी ने कभी उनकी सेवा की है, तो वे उन्हें कभी नहीं भूलते. अतः, भगवान ने, अजामिल को अपने सबसे छोटे पुत्र को नारायण नाम देने का अवसर दिया ताकि स्नेह में वह लगातार “नारायण! नारायण!” पुकारे, और इस प्रकार वह अपनी मृत्यु के समय सबसे भयावह और घातक स्थिति से बच सके. ऐसी है कृष्ण की दया. गुरु-कृष्ण-प्रसाद पाया भक्ति-लता-बीज: गुरु और कृष्ण की दया से, वयक्ति भक्ति का बीज पा जाता है. यह संगति भक्त को महानतम भय से भी बचा लेती है. इसलिए हमारे कृष्ण चेतना आंदोलन में हम भक्त के नाम को ऐसे रूप में परिवर्तित कर देते हैं जिससे विष्णु की स्मृति हो. यदि मृत्यु के समय भक्त अपना नाम को याद रख सकता है, जैसे कि कृष्णदास या गोविंद दास, तो उसे सबसे बड़ी घात से भी बचाया जा सकता है. इसलिए दीक्षा के समय नामों का परिवर्तन आवश्यक है. कृष्ण चेतना आंदोलन इतना सूक्ष्म है कि यह व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार से कृष्ण को याद करने का एक अच्छा अवसर देता है.
स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, छठा सर्ग, अध्याय 2- पाठ 32