तथाकथित पारिवारिक स्थिति की तुलना किसी मैदान के अंधे कुँए से की जाती है. यदि कोई अंधे कुँए में गिर जाए जो घास से ढँका हो, तो उसे बचाने के लिए चीख-पुकार के बावजूद उसका जीवन खो जाएगा. इसलिए अति विकसित आध्यात्मवादी सुझाते हैं कि व्यक्ति को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश नहीं लेना चाहिए. तपस्या और जीवन भर शुद्ध ब्रम्हचारी रहने के लिए स्वयं को ब्रम्हचर्य-आश्रम में तैयार करना श्रेष्ठतर है ताकि व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में भौतिक जीवन के कांटों की चुभन का अनुभव न करे. गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति को मित्रों और संबंधियों के आमंत्रण स्वीकारने पड़ते हैं और आनुष्ठानिक समारोह करने पड़ते हैं. ऐसा करते हुए, व्यक्ति ऐसी बातों के पाश में पड़ जाता है, भले ही उसके पास ऐसा करने के पर्याप्त साधन न हों. गृहस्थ जीवन शैली को बनाए रखने के लिए, व्यक्ति को धनार्जन हेतु बहुत श्रम करना पड़ता है. इस प्रकार व्यक्ति भौतिक जीवन में फँस जाता है, और वह कांटों की चुभन का कष्ट भोगता है.

स्रोत:अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), श्रीमद् भागवतम्, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 14- पाठ 18

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