यदि व्यक्ति अत्यधिक तपस्वी या अत्यधिक कामी हो तो वह अपने मन को नियंत्रित नहीं कर सकता।
भले ही व्यक्ति अपने मन को कृष्ण चेतना में गम्भीरता से लगा रहा हो, किन्तु मन इतना चंचल होता है कि वह अचानक अपनी आध्यात्मिक स्थिति से विचलित हो सकता है। तत्पश्चात् सावधानी से मन को पुनः अपने वश में लाना चाहिए। भगवद गीता में कहा गया है कि व्यक्ति कोई अत्यधिक तपस्वी या अत्यधिक कामुक होता है तो वह मन को नियंत्रित नहीं कर सकता है। कभी-कभी व्यक्ति भौतिक इन्द्रियों को सीमित संतुष्टि देकर मन को वश में कर सकता है। उदाहरण के लिए, यद्यपि व्यक्ति संयमित भोजन कर सकता है, किंतु समय-समय पर वह उचित मात्रा में महा-प्रसादम, मंदिर के विग्रह को चढ़ाया जाने वाला भव्य भोजन को स्वीकार कर सकता है, ताकि मन विचलित न हो। इसी प्रकार, व्यक्ति कभी-कभी अन्य अध्यात्मवादियों के साथ प्रहसन, तैराकी आदि के माध्यम से विश्राम ले सकता है। किंतु यदि ऐसी गतिविधियाँ अत्यधिक रूप से की जाती हैं, तो वे आध्यात्मिक जीवन में एक बाधा उत्पन्न करेंगी। जब मन अवैध यौन संबंध या नशे जैसी पापपूर्ण इंद्रियतुष्टि की इच्छा रखता है, तो व्यक्ति को केवल मन की मूर्खता को सहन करना चाहिए और ज़ोरदार कठोर करके कृष्ण चेतना के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए। तब भ्रम की लहरें शीघ्र ही शांत हो जायेंगी और उन्नति का मार्ग फिर से विस्तृत हो जायेगा।
स्रोत: अभय चरणारविंद. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद्भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 20 – पाठ 19.