मेरे पास सभी भौतिक एश्वर्य हैं मुझे भगवान तक क्यों जाना चाहिए?
हम आर्थिक वैभव के समय में हैं, कोई भी चर्चों या मंदिरों में जाने में रुचि नहीं रखता. लोग सोचते हैं “यह क्या मूर्खता है?” “मैं भोजन माँगने के लिए चर्च में क्यों जाऊँ? हमें अपनी आर्थिक स्थिति को विकसित करना चाहिए, और फिर पर्याप्त भोजन उपलब्ध होगा.” एक अर्थ में, निस्संदेह, भौतिक समृद्धि भगवान की कृपा है. किसी बहुत अभिजात परिवार में या अमेरिका जैसे राष्ट्र में जन्म लेना, बहुत समृद्ध होना, ज्ञान और शिक्षा में उन्नत होना और सुंदरता से संपन्न होना, पवित्र गतिविधियों का उपहार है. एक संपन्न व्यक्ति दूसरों का ध्यान खींचता है, जबकि एक दरिद्र व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाता. किसी शिक्षित व्यक्ति पर ध्यान जाता है, लेकिन एक मूर्ख पर थोड़ा भी ध्यान नहीं जाता. इसलिए, भौतिक रूप से, ऐसी समृद्धि लाभदायक है. लेकिन जब कोई व्यक्ति इस प्रकार भौतिक रूप से समृद्ध होता है, वह मदमस्त हो जाता है: “ओह, मैं एक संपन्न व्यक्ति हूँ. मैं एक शिक्षित व्यक्ति हूँ. मेरे पास धन है.” जो मद्यपान करता है उसे नशा हो जाता है और वह सोच सकता है कि वह आकाश में उड़ रहा है या कि वह स्वर्ग में पहुँच गया है. ये नशे के प्रभाव हैं. लेकिन नशे में रहते हुए व्यक्ति यह नहीं जानता कि ये स्वप्न समय की सीमाओं में होते हैं और इसलिए समाप्त हो जाएंगे. चूँकि उसे पता नहीं है कि ये स्वप्न अविरत नहीं रहेंगे, उसे भ्रम में पड़ा हुआ कहा जाता है. उसी प्रकार, व्यक्ति यह सोचते हुए नशे में होता है, “मैं बहुत संपन्न हूँ, मैं बहुत शिक्षित और सुंदर हूँ, और मेरा जन्म किसी अभिजात परिवार और किसी महान देश में हुआ है.” वह सब ठीक है लेकिन ये सब लाभ कब तक अस्तित्व में रहेंगे? मान लीजिए कि कोई व्यक्ति अमेरकी है और संपन्न, सुंदर, और ज्ञान में विकसित भी है. व्यक्ति इस सबके बारे में अभिमान कर सकता है, लेकिन यह नशा कब तक अस्तित्व में रहेगा? जैसे ही शरीर समाप्त होता है, यह सब भी समाप्त हो जाएगा, उसी तरह जैसे किसी मद्यपान किए हुए व्यक्ति के स्वप्न. ये स्वप्न मानसिक धरातल, अहंकार के धरातल, और शारीरिक धरातल पर होते हैं. लेकिन मैं शरीर नहीं हूँ. स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर मेरे वास्तविक आत्म से भिन्न होते हैं. स्थूल शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना होता है, और सूक्ष्म शरीर चित्त, बुद्धि, और मिथ्या अहंकार से बना होता है. लेकिन जीव इन आठ तत्वों से परे होता है, जिन्हें भगवद गीता में भगवान की हीन ऊर्जा के रूप में वर्णित किया गया है. भले ही यदि कोई मानसिक रूप से बहुत उन्नत हो, तो भी वह नहीं जानता कि वह हीन ऊर्जा के प्रभाव में है, ठीक वैसे ही जैसे नशा किया हुआ व्यक्ति नहीं जानता कि वह किस स्थिति में है. इसलिए, समृद्धि वयक्ति को नशे की स्थिति में ला देती है. हम पहले ही नशे में हैं, और आधुनिक सभ्यता हमारे नशे को बढ़ाने का लक्ष्य रखती है. वास्तव में हमें इस नशे से मुक्त हो जाना चाहिए, लेकिन आधुनिक सभ्यता इसे बढ़ाने का लक्ष्य रखती है ताकि हम अधिकाधिक नशे में हो जाएँ और नर्क में जाएँ. कुंती देवी कहती हैं कि जो लोग इस प्रकार नशे में होते हैं वे भगवान को भावपूर्णता से संबोधित नहीं कर सकते. वो भावपूर्णता से जय राधा माधव नहीं कह सकते: “राधा और कृष्ण की जय !” वे अपनी आध्यात्मिक भावना को खो चुके होते हैं. वे भगवान को भाव से संबोधित नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें ज्ञान नहीं है. वे सोचते हैं “ओह, भगवान निर्धन लोगों के लिए है,”. “निर्धन के पास पर्याप्त भोजन नहीं है. उन्हें चर्च में जाने दो और प्रार्थना करने दो, ‘हे भगवान, हमें हमारा दैनिक भोजन दो.’ लेकिन मेरे पास पर्याप्त भोजन है. मुझे चर्च क्यों जाना चाहिए?” यह उनका विचार है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “रानी कुंती की शिक्षाएँ” पृ. 58 व 59