पिता का कर्तव्य अपने पुत्रों को सांस्कृतिक शिक्षा देना होता है.
प्रजापित दक्ष ने अपने पुत्रों के दूसरे समूह को उसी स्थान पर भेजा, जहाँ उनके पूर्व पुत्रों ने दक्षता प्राप्त की थी. उन्होंने अपने पुत्रों के दूसरे समूह को समान स्थान पर भेजने में संकोच नहीं किया, यद्यपि वे भी नारद के निर्देशों के शिकार बन सकते थे. वैदिक संस्कृति के अनुसार, वयक्ति को संतान प्राप्ति के उद्देश्य से गृहस्थ जीवन में जाने से पहले एक ब्रम्हचारी के रूप में आध्यात्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए. यह वैदिक व्यवस्था है. अतः प्रजापति दक्ष ने अपने पुत्रों के दूसरे समूह को सांस्कृतिक विकास के लिए भेजा, इस जोखिम के बावजूद कि नारद की शिक्षा द्वारा वे भी अपने बड़े भाइयों के जैसे बुद्धिमान बन जाएंगे. एक कर्तव्यपरायण पिता के रूप में, वह अपने बेटों को जीवन की पूर्णता के विषय में सांस्कृतिक निर्देश प्राप्त करने की अनुमति देने में संकोच नहीं करते थे; वे यह चुनने के लिए उन पर निर्भर थे कि वे घर वापस, भगवान के पास आएँ या जीवन की विभिन्न प्रजातियों के रूप में इस भौतिक संसार में विगलित हों. सभी परिस्थितियों में, पिता का कर्तव्य अपने पुत्रों को सांस्कृतिक शिक्षा देना होता है, जिन्हें बाद में निर्णय लेना होता है के वे किस मार्ग पर जाएँ. कर्तव्यनिष्ठ पिताओं को अपने पुत्रों को विचलित नहीं करना चाहिए जो कृष्ण चेतना आंदोलन की संगति में सांस्कृतिक प्रगति कर रहे हैं. पिता का कर्तव्य होता है कि अपने आध्यात्मिक गुरु के निर्देशों का पालन करके आध्यात्मिक प्रगति कर लेने के बाद अपने पुत्र को अपना चुनाव करने की स्वतंत्रता दें.
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 5- पाठ 25