“स्त्रियाँ स्वभाव से ही स्वार्थी होती हैं, और इसलिए उनकी हर संभव सुरक्षा की जानी चाहिए ताकि स्वार्थी होने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति प्रकट न हो सके. पुरुषों द्वारा स्त्रियों का संरक्षण आवश्यक होता है. स्त्री की देखभाल बचपन में उसके पिता द्वारा, युवावस्था में उसेक पति द्वारा और उसके बुढ़ापे में उसके वरिष्ठ पुत्रों द्वारा की जानी चाहिए. यह मनु की निषेधाज्ञा है, जो कहते हैं कि किसी भी अवस्था में स्त्री को स्वतंत्रता नहीं दी जानी चाहिए. स्त्रियों का ध्यान इस बात के लिए रखा जाना चाहिए कि वे स्वार्थ के लिए अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति को उजागर करने के लिए स्वतंत्र नहीं हों. अपने निजी हितों को पूरा करने के लिए, स्त्रियाँ पुरुषों के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे उन्हें पुरुष ही सबसे अधिक प्रिय हों, किंतु वास्तव में उनका प्रिय कोई नहीं होता. स्त्रियों को बहुत संत माना जाता है, लेकिन अपने निजी हितों के लिए वे अपने पति, बेटों या भाइयों को भी मार सकती हैं, या अन्य के हाथों उन्हें मरवा सकती हैं. वर्तमान समय में भी कई प्रसंग हैं, जिनमें स्त्रियों ने अपने पतियों की बीमा पॉलिसी का लाभ लेने के लिए उनकी हत्या की है. यह स्त्रियों की आलोचना नहीं बल्कि उनके स्वभाव का व्यावहारिक अध्ययन है. स्त्री या पुरुष की ऐसी स्वाभाविक प्रवृत्ति जीवन की शारीरिक अवधारणा में ही प्रकट होती है. जब कोई पुरुष या कोई स्त्री आध्यात्मिक चेतना में प्रगति करते हैं, तो जीवन की शारीरिक अवधारणा व्यावहारिक रूप से लुप्त हो जाती है. हमें सभी स्त्रियों को आध्यात्मिक इकाई (अहम् ब्रह्मास्मि) के रूप में देखना चाहिए, जिनका एकमात्र कर्तव्य कृष्ण को संतुष्ट करना है. फिर भौतिक प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं का प्रभाव, कार्य नहीं करेगा, जो व्यक्ति द्वारा भौतिक शरीर को धारण करने के परिणामस्वरूप होता है.

कृष्ण चेतना आंदोलन इतना लाभकारी है कि यह बहुत सरलता से भौतकि प्रकृति के प्रदूषण का प्रतिरोध कर सकता है, जो व्यक्ति द्वार भौतिक शरीर को धारण करने के परिणामस्वरूप होता है. इसलिए भगवद-गीता बहुत प्रारंभ में ही शिक्षा देती है, कि चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि वह शरीर नहीं है बल्कि एक आध्यात्मिक आत्मा है. सभी को आत्मा की गतिविधियों में रुचि होनी चाहिए, शरीर की नहीं. जब तक कोई जीवन की शारीरिक अवधारणा द्वारा सक्रिय रहता है, तब तक पथभ्रष्ट होने का खतरा सदैव रहता है, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री. कभी-कभी आत्मा का वर्णन पुरुष के रूप में किया जाता है क्योंकि चाहे किसी ने पुरुष या स्त्री के परिधान पहने हों, उसका रुझान इस भौतिक संसार का भोग करने की ओर होता है. जिसमें भी भोग की भावना होती है उसे पुरुष के रूप में वर्णित किया जाता है. व्यक्ति चाहे पुरुष हो या स्त्री, उसकी रुचि अन्यों की सेवा करने में नहीं होती; हर किसी की रुचि अपनी इंद्रियों को संतुष्ट करने में होती है. यद्यपि कृष्ण चेतना किसी पुरुष या स्त्री के लिए प्रथम श्रेणी का प्रशिक्षण प्रदान करती है. पुरुष को भगवान कृष्ण का प्रथम श्रेणी का भक्त होने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए, और एक स्त्री को अपने पति की अत्यंत पवित्र अनुयायी होने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए. जिससे दोनों के जीवन में प्रसन्नता आ जाएगी. ”

स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 18 – परिचय और पाठ 42

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