भौतिक संसार में हम इस आशा के साथ अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं कि भविष्य में किसी दिन हम सुखी होंगे. फिर भी हम व्यथित हैं. रेगिस्तान में एक प्राणी एक मरीचिका, पानी की छाया देखता है, और वह इस छाया के पीछे बार-बार दौड़ता है. वह आगे, और आगे चलता जाता है, और इस तरह, जैसे-जैसे वह गर्म रेत को पार करता है, वह अधिक से अधिक प्यासा होता जाता है और अंत में मर जाता है. अस्तित्व के लिए हमारा संघर्ष इसी प्रकार का है. हम सोच रहे हैं, “मुझे थोड़ा आगे जाने दो. अंत में पानी होगा. अंततः प्रसन्नता मिलेगी.” फिर भी मरुस्थल में पानी नहीं है. जो लोग बुद्धिहीन हैं, जो पशु समान हैं, वे भौतिक संसार के मरुस्थल में सुख खोजते हैं. भक्ति-योग की प्रक्रिया द्वारा इस झूठे लगाव का त्याग करना पड़ता है. इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए, कृत्रिम रूप से नहीं. कृष्ण पूरी गंभीरता से यह देखना चाहते हैं कि क्या व्यक्ति की सारी भौतिक इच्छाएँ समाप्त हो गई हैं. जब कृष्ण यह देखते हैं, तो वे बहुत प्रसन्न होते हैं. हम वास्तव में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में व्यस्त हैं, लेकिन जब हम इनके पार जाते हैं, तब भक्ति प्रारंभ होती है. यदि हम संसार के इतिहास का अध्ययन करें, तो हम देखते हैं कि यह केवल संघर्ष का इतिहास है. मानव अपनी दयनीय स्थिति को दूर करने का प्रयास करता है, लेकिन उससे बस एक और दयनीय स्थिति आती है. जैसे-जैसे हम एक समस्या को दूर करने का प्रयास करते हैं, एक और समस्या सामने आ जाती है. इस भौतिक संसार के साथ हमारे जुड़ाव को त्यागने के हमारे संकल्प को मुक्ति कहा जाता है. मुक्ति का अर्थ है आध्यात्मिक स्तर पर आ जाना. चूँकि हमारा संबंध आध्यात्मिक वातावरण से है, इसलिए भौतिक वातावरण में हमारा सुखी रहना असंभव है. यदि धरती के किसी प्राणी को पानी में रखा जाए, तो वह कुशल तैराक होकर भी अस्तित्व के लिए बस संघर्ष करेगा. हम अपनी इंद्रियों को तुष्ट करने के लिए इस भौतिक संसार में आए हैं, लेकिन हमारे प्रयास कभी सफल नहीं होंगे. यदि हम वास्तव में डर से परे एक स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें भगवान कपिलदेव द्वारा अभिनीत इस भक्ति-योग प्रक्रिया को स्वीकार करना होगा.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007, अंग्रेजी संस्करण). “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 251 व 252

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