“श्रील माधवाचार्य के अनुसार इस संसार में बुद्धिमान मानवों की तीन श्रेणियाँ होती हैं, जो देवाता, साधारण मनुष्य, और राक्षस होते हैं। सभी शुभ गुणों से संपन्न किसी जीव – दूसरे शब्दों में, भगवान के एक अत्यधिक उन्नत भक्त – को पृथ्वी पर या उच्च ग्रह प्रणालियों में देव, या देवता कहा जाता है। साधारण मनुष्यों में सामान्यतः अच्छे और बुरे गुण होते हैं, और इस मिश्रण के अनुसार ही वे पृथ्वी पर आनंद लेते हैं और पीड़ा भोगते हैं। किंतु वे जिन्हें उनके अच्छे गुणों के अभाव से पहचाना जाता है और जो हमेशा पवित्र जीवन और भगवान की भक्तिमय सेवा के प्रति द्वेश रखते हैं, उन्हें असुर, या राक्षस कहा जाता है।
इन तीन श्रेणियों में से, सामान्य मनुष्य और राक्षस जन्म, मृत्यु और भूख से भयानक रूप से पीड़ित होते हैं, जबकि भले व्यक्ति, देवता, ऐसे शारीरिक कष्ट से विलग होते हैं। देवता ऐसे कष्ट से विलग रहते हैं क्योंकि वे अपने पवित्र कर्मों के फल का आनंद ले रहे होते हैं; कर्म के नियमों के द्वारा, वे भौतिक दुनिया की घोर पीड़ा से अनजान होते हैं। जैसा कि भगवान भगवद गीता (9.20) में कहते हैं:

त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते |
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ||

“वे जो वेदों का अध्ययन करते हैं और सोम रस का पान करते हैं, स्वर्गीय ग्रहों की खोज में हैं, मेरी अप्रत्यक्ष रूप से उपासना करते हैं। वे इंद्र के ग्रह पर जन्म लेते हैं, जहां वे ईश्वरीय प्रसन्नता का आनंद लेते हैं। “ किंतु भगवद-गीता का अगला श्लोक कहता है कि जब व्यक्ति इन पवित्र कर्मों के परिणामों का उपयोग करता है, तो व्यक्ति को स्वर्गीय राज्य के सुख के साथ-साथ एक देवता के रूप में अपनी स्थिति को त्यागना पड़ता है, और एक नर, या सामान्य मानव के रूप में पृथ्वी पर लौटना पड़ता है (क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति)। वास्तव में प्रकृति के नियम इतने सूक्ष्म होते हैं कि व्यक्ति पृथ्वी पर एक मानव के रूप में भी नहीं लौट पाता, बल्कि उसका जन्म एक कीट या वृक्ष के रूप में हो सकता है, जो उसके कर्म के विशिष्ट विन्यास पर निर्भर करता है।”

स्रोत: अभय चरणारविंद. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद्भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 2 – पाठ 49.

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