स्त्री और पुरुष दोनों को ही भगवान की सेवा की ओर आकृष्ट होना चाहिए.
भगवान कपिलदेव के इन निर्देशों में यह समझाया गया है कि स्त्री न केवल पुरुष के लिए नर्क का द्वार है, बल्कि पुरुष भी स्त्री के लिए नर्क का द्वार है. यह आसक्ति का प्रश्न है. एक पुरुष उसकी सेवा, सुंदरता और कई अन्य गुणों के कारण एक स्त्री से आसक्त हो जाता है, और इसी प्रकार एक स्त्री किसी पुरुष के प्रति उसके द्वारा प्रदान किए गए घर, गहने, परिधान और बच्चों के लिए आसक्त हो जाती है. यह एक दूसरे के लिए परस्पर आसक्ति का प्रश्न है. जब तक दोनों में से कोई भी ऐसे भौतिक आनंद के लिए दूसरे के प्रति आसक्त हो, स्त्री पुरुष के लिए हानिकारक, और पुरुष भी स्त्री के लिए हानिकारक होता है. लेकिन यदि आसक्ति कृष्ण की ओर स्थानांतरित हो जाए, तो दोनों कृष्ण चेतन हो जाते हैं, और तब विवाह बहुत अच्छा होता है. इसलिए श्रील रूप गोस्वामी सुझाव देते हैं: अनासक्त विषयन यथार्हम् उपयुजतः निर्बंधः कृष्ण-संबंधे युक्तम् वैराग्यम् उच्यते (भक्ति-रसामृत-सिंधु 1.2.255) पुरुष और स्त्री को साथ में गृहस्थ के रूप में कृष्ण के संबंध में रहना चाहिए, केवल कृष्ण के प्रति कर्तव्य निभाने के लिए. कृष्ण चेतना के कर्तव्यों में, बच्चों को शामिल करें, पत्नी को शामिल करें और पति को शामिल करें, और फिर ये सभी शारीरिक या भौतिक बंधन अदश्य हो जाएंगे. चूँकि माध्यम कृष्ण हैं, चेतना शुद्ध है, और किसी भी समय पतन की संभावना नहीं है.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” तीसरा सर्ग, अध्याय 31 – पाठ 42