वह जो बहुत शक्तिशाली हो उसे दोषरहित मानना चाहिए.
“एक दिन यात्रा के दौरान, चित्रकेतु सुमेरु पर्वत की लतामंडपों में भटक गया, जहाँ उसे सिद्धों, चारण और महान संतों की सभा में घिरे, पार्वती का आलिंगन करते भगवान शिव दिख गए, चित्रकेतु बहुत जोर से हँसा. चित्रकेतु भगवान शिव की असाधारण स्थिति का प्रसंशक था, और इसलिए उसने टिप्पणी की, कि यह कितना अद्भुत था कि भगवान शिव एक साधारण इंसान के जैसे व्यवहार कर रहे थे. वह भगवान के पद को मानता था, किंतु जब उसने भगवान शिव को संत व्यक्तियों के बीच बैठे देखा और किसी निर्लज्ज, सामान्य व्यक्ति के जैसा व्यवहार करते देखा, तो उसे अचंभा हुआ. यद्यपि चित्रकेतु का उद्देश्य भगवान शिव का अपमान करना नहीं था, उसे भगवान की आलोचना नहीं करनी चाहिए थी, भले ही भगवान सामाजिक रीतियों का अतिक्रमण कर रहे थे. कहा जाता है : तेज्यसम न दोषयः : वह जो बहुत शक्तिशाली हो उसे दोषरहित समझना चाहिए. उदाहरण के लिए, व्यक्ति को सूर्य में दोष नहीं ढूँढना चाहिए, भले ही वह गली से मूत्र को वाष्पित कर रहा हो. सबसे शक्तिशाली की आलोचना एक साधारण व्यक्ति या किसी महान व्यक्ति द्वारा भी नहीं की जा सकती है. चित्रकेतु को पता होना चाहिए कि भगवान शिव, यद्यपि उस प्रकार बैठे थे, उनकी आलोचना नहीं की जानी चाहिए थी. कठिनाई यह थी कि भगवान विष्णु (संकर्षण) का महान भक्त बनकर चित्रकेतु भगवान संकर्षण का पक्ष अर्जित करने को लेकर कुछ घमंडी हो गया था और इसलिए उसने सोचा कि अब वह किसी की भी निंदा कर सकता था यहाँ तक की भगवान शिव की भी. किसी भक्त का ऐसा गर्व सहन नहीं किया जाता है. एक वैष्णव को अत्यंत विनम्र और सरल होना चाहिए और अन्य लोगों का आदर करना चाहिए.
तृणाद् अपि सुनिचेन तरोर् अपि सहिष्णु अमानिन मानदेन कीर्तनियः सदा हरिः
“स्वयं को गली की घास के तिनके से भी तुच्छ मानते हुए, व्यक्ति को मन की विनम्र अवस्था में भगवान के पवित्र नाम का जप करना चाहिए; व्यक्ति को एक वृक्ष से भी अधिक सहनशील होना चाहिए, झूठी प्रतिष्ठा के भाव से रहित होना चाहिए और दूसरों को सम्मान देने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए. ऐसी मनः स्थिति में व्यक्ति निरंतर भगवान के पवित्र नाम का जाप कर सकता है. “”एक वैष्णव को किसी अन्य के पद को छोटा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए. विनम्र और मृदु बने रहना और हरे कृष्ण मंत्र का जाप करना श्रेष्ठ होता है. निर्जित्माभिमानिने शब्द दर्शाता है कि चित्रकेतु स्वयं को भगवान शिव की तुलना में इंद्रियों का बेहतर नियंत्रक मानता था, यद्यपि वास्तव में वह ऐसा नहीं था. इन सब बातों पर विचार करते हुए, माँ पार्वती चित्रकेतु पर कुछ क्रोधित थीं.”
स्रोत:अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, छठा सर्ग, अध्याय 17- पाठ 7 व 10