व्यक्ति को किसी एकांत स्थल में किसी स्त्री के साथ नहीं रहना चाहिए.
“यह श्रीमद-भागवतम (9.19.17) में कहा गया है
मात्र सवश्र दुहित्र व नविविकटासनो भवेत
बलवान इंद्रिय-ग्रामो विध्वसं अपि कर्षति
वयक्ति को किसी स्त्री के साथ एकांत में नहीं रुकना चाहिए, भले ही वह उसकी माता, बहन या पुत्री हो. यद्यपि किसी स्त्री के साथ एकांत में रुकने की कड़ी मनाही है, फिर भी नारद मुनि ने प्रह्लाद महाराज की युवा माता को शरण दी थी, जिन्होंने उनकी सेवा बहुत समर्पण और निष्ठा के साथ की थी. क्या इसका अर्थ यह है कि नारद मुनि ने वैदिक निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया? निश्चित रूप से उन्होंने ऐसा नहीं किया. ऐसी निषेधाज्ञाएँ सांसारिक प्राणियों के लिए होती हैं, किंतु नारद मुनि सांसारिक श्रेणियों की तुलना में पारलौकिक हैं. नारद मुनि एक महान संत हैं और पारलौकिक रूप से स्थित हैं. इसलिए, यद्यपि वे एक युवक थे, तब भी वे एक युवती को आश्रय दे सकते थे और उसकी सेवा स्वीकार कर सकते थे. हरिदास ठाकुर ने भी घोर रात्रि में, एक युवा स्त्री, एक वेश्या से वार्तालाप किया था, किंतु वह स्त्री उनके मन को भटका न सकी. बल्कि, हरिदास ठाकुर के आशीर्वाद से वह एक वैष्णवी, एक शुद्ध भक्त बन गई. तथापि, साधारण व्यक्तियों को ऐसे उन्नत भक्तों की नकल नहीं करनी चाहिए. साधारण व्यक्तियों को स्त्रियों की संगति से दूर रहकर नियमों का पालन करना चाहिए. किसी को भी नारद मुनि या हरिदास ठाकुर की नकल नहीं करनी चाहिए. कहा जाता है, वैष्णव क्रिया-मुद्रा विज्ने न बुझाय. यदि कोई व्यक्ति शिक्षा में बहुत उन्नत हो, तो भी वह किसी वैष्णव के व्यवहार को नहीं समझ सकता है. कोई भी व्यक्ति एख शुद्ध वैष्णव का आश्रय, निर्भय होकर ले सकता है. इसलिए पिछले श्लोक में स्पष्ट कहा गया है, देवर्षेर अंतिको सकुटो-भय : कयधु, प्रह्लाद महाराज की माता, नारद मुनि के संरक्षण में किसी भी दिशा से भय के बिना रहीं. उसी प्रकार, नारद मुनि, अपनी पारलौकिक स्थिति में, युवा स्त्री के साथ, पथभ्रष्ट होने के भय के बिना रहे. नारद मुनि, हरिदास ठाकुर और समान आचार्य जिन्हें भगवान की महिमा का प्रसार करने के लिए विशेष शक्ति दी गई है, भौतिक स्तर पर नहीं पतित किए जा सकते. इसलिए व्यक्ति को यह विचार करने की कड़ी मनाही की जाती है कि आचार्य कोई साधारण मनुष्य होते हैं (गुरुषु नरमतिः).”
स्रोत: अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, सातवाँ सर्ग, अध्याय 7- पाठ 14