हमारी वैधानिक स्थिति सेवा करने की है.
इस युग में, लोग सामान्यतः निचली अवस्थाओं, अज्ञानता और वासना, के प्रभाव में होते हैं. इन अवस्थाओं में हम कृष्ण की सेवा करने योग्य नहीं होते. हमारी वैधानिक स्थिति किसी की सेवा करने की है, लेकिन जब हम कृष्ण की सेवा नहीं करते, तो हम माया की सेवा में रत होते हैं. किसी भी स्थिति में, हम स्वामी नहीं हो सकते. कौन कह सकता है कि वह स्वामी है, कि वह किसी की भी सेवा नहीं कर रहा है? हम हमारे परिवार, समाज, देश, व्यवसाय, वाहन या किसी भी वस्तु की सेवा कर सकते हैं. यदि किसी व्यक्ति को सेवा करने के लिए कुछ भी नहीं मिलता, तो वह बिल्ली या कुत्ता खरीद लाता है और उसकी सेवा करता है. ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि सेवा करना हमारी प्रकृति है. बस हमें ज्ञान नहीं है कि हमारी सेवा को किस दिशा में ले जाएँ. सेवा का ध्येय कृष्ण के प्रति होता है. भौतिक संसार में हम अपनी वासनामय कामनाओं की सेवा कर रहे हैं, कृष्ण की नहीं, और इससे हमें कोई आनंद नहीं मिल रहा है. हम कुछ धन पाने के लिए किसी कार्यालय में या किसी नौकरी में सेवा दे रहे हैं. इस प्रसंग में, हम धन की सेवा में हैं, व्यक्ति की नहीं. इस प्रकार भौतिक संसार में हम इंद्रियों और धन की सेवा में लगे हैं. कुछ भी हो, सेवा तो है. हमें सेवा करना ही है. गोलोक वृंदावन में, जीव कृष्ण की सेवा एक मित्र, ग्वाल-बाल, गोपियों, प्रेमियों, पिताओं, और माताओं आदि के रूप में कर रहे हैं. यहाँ तक कि पेड़, पानी, फूल, भूमि, बछड़े और गौ भी गोलोक वृंदावन में कृष्ण की ही सेवा करते हैं. यह हमारा भी कार्य है, लेकिन कदाचित हम कृष्ण की सेवा करना पसंद नहीं करते; इसलिए हमें माया, भौतिक प्रकृति की तीन अवस्थाओं की सेवा में लगा दिया गया है. जब कोई अपराधी राज्य के नियमों का पालन करना पसंद नहीं करता, तो उसे कारावास में रख दिया जाता है और नियमों का पालन करने पर बाध्य किया जाता है. हमारी वैधानिक स्थिति कृष्ण के अंश के रूप में उनकी सेवा करना होती है, और जैसे ही हम उनकी सेवा करने से मना करते हैं, माया तुरंत हमें अपने पाश में लेने के लिए पहुँच जाती है और कहती है, “मेरी सेवा करो.” हमारा स्वभाव स्वामी बनने का नहीं है. भले ही हम स्वामी बन जाएँ, हम प्रसन्न नहीं बनेंगे, क्योंकि वह छद्म है. उदाहरण के लिए, यदि हाथ सोचे, “ओ, अब मेरे पास कुछ बढ़िया मिठाइयाँ हैं, अब मैं खा सकता हूँ.” तो हाथ अंततः निराश होगा. भोजन को मुंह तक पहुँचाना ही हाथ का कर्तव्य और स्वभाव होता है. इस प्रकार से हाथ का पोषण होता है; अन्यथा सब कुछ बेकार हो जाएगा. समान रूप से, हम कृष्ण के अंश हैं, और कृष्ण की संतुष्टि ही हमारे लिए आशीर्वाद है. वेदों से हम समझते हैं कि भगवान, जो एकमात्र हैं, अनेक बन गए हैं. हम कृष्ण के असंख्य अंश हैं. स्वांश उनके व्यक्तिगत विस्तार होते हैं, और हम उनके भिन्न विस्तार, विभिन्नांश हैं. किसी भी स्थिति में, सभी विस्तारों का उद्देश्य कृष्ण की सेवा करना होता है. इसे चैतन्य-चरितामृत (आदे 5. 142) में बताया गया है: एकले ईश्वर कृष्ण, आर सब भृत्य. “केवल भगवान कृष्ण ही परम नियंत्रक हैं, और शेष सभी उनके सेवक हैं.”
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007, अंग्रेजी संस्करण). “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 120 व 168