लक्ष्मीदेवी किसी भौतिकवादी व्यक्ति को अपना आशीर्वाद नहीं देतीं.
“यद्यपि कभी-कभी एक भौतिकवादी किसी अन्य भौतिकवादी की दृष्टि में बहुत अधिक ऐश्वर्यवान हो जाता है, इस प्रकार का ऐश्वर्य उसे दुर्गादेवी, भाग्य की देवी की भौतिक विस्तार द्वारा दिया जाता है, स्वयं लक्ष्मीदेवी द्वारा नहीं. भौतिक धन की इच्छा रखने वाले निम्नलिखित मंत्र के साथ दुर्गादेवी की पूजा करते हैं: धनम् देहि रूपं देहि रूप-पति-भजम् देहि “”हे पूज्य माँ दुर्गादेवी, कृपया मुझे धन, बल, प्रसिद्धि, अच्छी पत्नी इत्यादि प्रदान करें.”” देवी दुर्गा को प्रसन्न करने से व्यक्ति इस तरह के लाभ प्राप्त कर सकता है, लेकिन चूँकि वे अस्थायी होते हैं, उनका परिणाम केवल माया-सुख (भ्रामक सुख) होता है. दूसरी ओर, प्रह्लाद और ध्रुव महाराज जैसे भक्तों ने असाधारण वैभव प्राप्त किया, लेकिन वह ऐश्वर्य माया-सुख नहीं था. जब कोई भक्त अपूर्व ऐश्वर्य प्राप्त करता है, तो वे भाग्य की देवी के प्रत्यक्ष उपहार होते हैं, जो नारायण के हृदय में रहती हैं.
देवी दुर्गा की उपासना करने से वयक्ति को जो ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं उन्हें अस्थायी माना जाता है. जैसाकि भगवद-गीता (7.23) में वर्णित है, अंतवत तु फलम तेषाम् तद् भवति अल्प-मेधषम: अल्पबुद्धि के लोग ही अस्थायी सुख की कामना करते हैं. हम वास्तविकता में देख चुके हैं कि भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर का एक शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरु की संपत्ति का सुख भोगना चाहता था, और उसके प्रति दयालु होने के नाते, आध्यात्मिक गुरु ने अस्थायी संपत्ति उसे दे दी, किंतु समस्त संसार में चैतन्य महाप्रभु के पंथ का प्रचार करने की शक्ति नहीं दी. प्रवचन करने की शक्ति की दया ऐसे भक्त को दी जाती है जो अपने आध्यात्मिक गुरु से कोई भौतिक वस्तु नहीं चाहता बल्कि केवल उनकी सेवा करना चाहता है. इस बात को दैत्य रावण की कथा वर्णित करती है. यद्यपि रावण ने भाग्य की देवी सीतादेवी का अपहरण भगवान राम की रखवाली से करने का प्रयास किया, वह संभवतः ऐसा कर नहीं पाया. जिन सीतादेवी को वह बलपूर्वक अपने साथ ले गया वे वास्तव में सीतादेवी नहीं थीं, बल्कि माया, या दुर्गादेवी का एक विस्तार थीं. परिणामस्वरूप, वास्तविक भाग्य की देवी का आशीर्वाद पाने के स्थान पर, रावण और उसका समस्त परिवार दुर्गादेवी की शक्ति से नष्ट हो गया. (सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साधना-शक्ति एक).”
स्रोत-अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेजी), “श्रीमद् भागवतम”, पाँचवाँ सर्ग, अध्याय 18 – पाठ 22