मानव रूप भौतिक प्रकृति का विशेष उपहार है.
कम बुद्धिमान व्यक्ति जीवन के मानव रूप का वास्तविक मूल्य नहीं जानते हैं. भौतिक प्रकृति द्वारा जीवों पर दुखों के कड़े नियमों का निष्पादन करने के दौरान उसका एक विशेष उपहार है. यह जीवन का सर्वोच्च वरदान प्राप्त करने का अवसर, अर्थात् बार-बार जन्म और मृत्यु के उलझाव से बाहर निकलने का अवसर होता है. बुद्धिमान लोग पूर्ण रूप से उलझाव से बाहर निकलने का प्रयास करते हुए इस महत्वपूर्ण उपहार की देखभाल करते हैं. लेकिन कम बुद्धिमान लोग आलसी हैं और भौतिक बंधन से मुक्ति पाने के लिए मानव शरीर के उपहार का मूल्यांकन करने में असमर्थ हैं; वे तथाकथित आर्थिक विकास में अधिक रुचि रखते हैं और बस भंगुर शरीर की इंद्रिय तुष्टि के लिए जीवन भर कड़ा श्रम करते हैं. प्रकृति के नियमों द्वारा हीनतर पशुओँ को भी भोग की अनुमति होती है, और इस प्रकार एक मनुष्य को भी उसके पिछले या वर्तमान जीवन के अनुसार एक निश्चित मात्रा में आनंद भोग प्राप्त होता है. लेकिन व्यक्ति को यह समझने का प्रयास करना चाहिए कि इंद्रिय भोग मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं होता है. यहाँ ऐसा कहा गया है कि दिन के समय में व्यक्ति “किसी भी वस्तु के लिए नहीं” कार्य करता क्योंकि लक्ष्य कुछ नहीं केवल इंद्रिय भोग होता है. हम विशेष रूप से अवलोकन कर सकते हैं कि महान नगरों और औद्योगिक नगरों में मानव बिना किसी कारण व्यस्त होता है. मानव ऊर्जा द्वारा निर्मित बहुत सी वस्तुएँ हैं, लेकिन वे सभी इंद्रिय भोग के लिए हैं, न कि भौतिक बंधन से बाहर निकलने के लिए. और दिन के समय कड़ा श्रम करने के बाद, एक थका हुआ व्यक्ति रात में या तो सोता है या यौन व्यवहार में रत रहता है. यह कम बुद्धिमानों के लिए भौतिकवादी सभ्य जीवन का कार्यक्रम होता है. इसलिए वे यहाँ आलसी, हतभागी और अल्प जीवन के रूप में नियुक्त हैं.
स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “श्रीमद्-भागवतम” प्रथम सर्ग, अध्याय 16- पाठ 9