परम स्तर आध्यात्मिक है जबकि भौतिक संसार द्वैत से भरा है.

यह भौतिक संसार द्वैत का संसार है, और हम दुख के बिना प्रसन्नता और प्रसन्नता बिना दुख को नहीं समझ सकते. इसलिए इसे सापेक्ष संसार कहते हैं. उदाहरण के लिए, कहीं आतिशबाजी चल रही हो सकती है, और यह किसी के लिए खुशी हो सकती है लेकिन हमारे लिए संकट. कुछ लोग सोच रहे हैं कि ये: आतिशबाजी बहुत सुखद है, और हम सोच रहे हैं कि वह बहुत असुविधाजनक है. यही भौतिक संसार है. एक ओर सुख है, और दूसरी ओर दुख है. सुख और दुख दोनों वास्तव में भ्रम हैं. गर्मियों में, पानी सुख है, लेकिन शीतकाल में यह संकट है. पानी समान है, लेकिन एक समय में यह सुख लाता है और एक अन्य समय में यह संकट लाता है. जब एक पुत्र पैदा होता है, तो वह सुख लाता है, लेकिन जब वह मर जाता है, तो वह संकट लाता है. दोनों प्रसंगों में, बेटा समान है. आध्यात्मिक आनंद इन द्वंद्वों से ऊपर होता है. भौतिक संसार में, एक ऋण एक का मान शून्य होता है, लेकिन आध्यात्मिक संसार में, एक ऋण एक का मान एक होता है. उसे अद्वय-ज्ञान कहते हैं. आध्यात्मिक संसार में कोई द्वैत नहीं है. एक धन एक का मान एक, और एख ऋण एक का मान एक होता है. यदि हम कृष्ण को प्रेम करते हैं, तो वह प्रेम भौतिक संसार के प्रेम की तरह नष्ट नहीं होगा. भौतिक संसार में, एक सेवक तब तक स्वामी की सेवा करता है, जब तक कि सेवक प्रसन्न रहता है और जब तक स्वामी प्रसन्न रहता है. सेवक तब तक प्रसन्न रहता है जब तक स्वामी धन देता है, और स्वामी तब तक प्रसन्न रहता है जब तक सेवक अच्छी तरह से सेवा करे. यद्यपि, आध्यात्मिक संसार में, यदि सेवक कुछ विशेष परिस्थितियों में सेवा न कर सके, तो भी स्वामी संतुष्ट रहता है. और यदि स्वामी भुगतान न करे, तो सेवक भी संतुष्ट रहता है. इसे ऐक्य, परम संपूर्ण कहते हैं. किसी गुरु के सैकड़ों शिष्य हो सकते हैं, लेकिन उसे उन्हें वेतन नहीं देना होता. वे आध्यात्मिक प्रेम के कारण सेवा कर रहे हैं, औऱ गुरु बिना वेतन के शिक्षा दे रहा है. यह एक आध्यात्मिक संबंध है. ऐसे संबंध में कोई छल करने वाला और छल खाने वाला नहीं होता. समान रूप से, भौतिक संसार में लड़ाई करना प्रेम करने के विपरीत है, लेकिन भगवान में लड़ाई करने और प्रेम करने की प्रवृत्ति समान और एक ही होती हैं. यही “परम पूर्ण” का अर्थ है. हम वैदिक शास्त्रों से सीखते हैं कि जब भगवान के तथाकथित दुश्मनों को भगवान द्वारा मार दिया जाता है, तो वे मुक्ति प्राप्त करते हैं.

स्रोत: अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2007, अंग्रेजी संस्करण). “देवाहुति पुत्र, भगवान कपिल की शिक्षाएँ”, पृ. 84 व 231 अभय चरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014, अंग्रेजी संस्करण), “आत्म साक्षात्कार का विज्ञान” पृ. 341