भौतिक मन को उसके विषयों से अलग करना सबसे कठिन होता है।
“भौतिक मन को उसकी विषयों से अलग करना सबसे कठिन होता है क्योंकि परिभाषा से ही भौतिक मन स्वयं को सभी वस्तुओं का कर्ता और उपभोक्ता मानता है। यह समझना आवश्यक है कि भौतिक चित्त को त्याग देने का अर्थ सभी मानसिक गतिविधियों को त्याग देना नहीं होता है, बल्कि उसका अर्थ चित्त को शुद्ध करना और व्यक्ति की प्रबुद्ध मानसिकता को भगवान की भक्ति सेवा में लगाना होता है। अनादि काल से भौतिक मन और इन्द्रियाँ ऐन्द्रिक विषयों के संपर्क में रही हैं; इसलिए, भौतिक मन के लिए अपने विषयों को छोड़ना कैसे संभव है, जो उसके अस्तित्व का आधार होते हैं? और न केवल मन भौतिक वस्तुओं तक जाता है, बल्कि मन की इच्छाओं के कारण, भौतिक विषय हर पल असहाय रूप से प्रवेश करते हुए मन से बाहर नहीं रह सकते हैं। इस प्रकार, मन और इन्द्रिय विषयों के बीच अलगाव वास्तव में संभव नहीं है, और न ही यह किसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। यदि व्यक्ति स्वयं को सर्वोच्च मानकर भौतिक मानसिकता बनाए रखता है, तो वह यह मानते हुए इन्द्रियतृप्ति का त्याग सकता है, कि वह अंततः दुख का कारण होती है, किंतु व्यक्ति ऐसे कृत्रिम धरातल पर टिके रहने में समर्थ नहीं होगा और न ही इस प्रकार के त्याग से कोई वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सकेगा। भगवान के चरण कमलों में समर्पण के बिना, मात्र त्याग इस भौतिक संसार से बाहर नहीं ले जा सकता है।
जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य का अंश होती हैं, जीवात्माएँ भगवान के परम व्यक्तित्व का अंश हैं। जब जीव भगवान के व्यक्तित्व के अंश के रूप में अपनी पहचान में पूरी तरह से लीन हो जाता है, तो वह वास्तव में बुद्धिमान बन जाता है और भौतिक मन और इन्द्रिय विषयों को सरलता से त्याग देता है। इस श्लोक में मद-रूपः शब्द भगवान के परम व्यक्तित्व के रूप, गुणों, लीलाओं और सहयोगियों में मन के लीन हो जाने को इंगित करता है। ऐसे आनंदमय ध्यान में डूबे हुए व्यक्ति को भगवान की भक्तिमय सेवा करनी चाहिए, और उससे इन्द्रियतृप्ति का प्रभाव स्वत: ही दूर हो जाएगा। स्वयं के स्तर पर, जीव में भौतिक मन और इन्द्रिय विषयों के साथ अपनी झूठी पहचान को छोड़ने की क्षमता नहीं होती है, किंतु भगवान के शाश्वत अंश और सेवक होने की भावना के साथ उनकी उपासना करने से, व्यक्ति में भगवान की शक्ति का संचार होता है, जो सरलता से अज्ञानता के अंधेरे को दूर कर देती है।”
स्रोत: अभय चरणारविंद. भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद्भागवतम”, ग्यारहवाँ सर्ग, अध्याय 13 – पाठ 26.