संतुष्टि के बिना व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता भले ही उसके पास संसार भर की संपत्ति हो.

वैदिक संस्कृति या ब्राम्हण संस्कृति व्यक्ति को न्यूनतम जीवनोपयोगी वस्तुओं के साथ संतुष्ट रहने की विधि सिखाती है. इस उच्चतम संस्कृति की शिक्षा देने के लिए, वर्णाश्रम-धर्म का अनुमोदन किया गया है. वर्णाश्रण वर्गीकरण– ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास– का उद्देश्य व्यक्ति को इंद्रियों को नियंत्रित करना और न्यूनतम वस्तुओं के साथ संतुष्ट होना सिखाना है. एक आदर्श ब्रम्हचारी के रूप में, भगवान वामनदेव बाली महाराज द्वारा उन्हें मनचाही वस्तु देने के प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं. वे कहते हैं कि बिना संतुष्टि के व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता भले ही उसके पास समस्त संसार या समस्त ब्रम्हांड की संपत्ति हो. इसलिए मानव समाज में, ब्राम्हण संस्कृति, क्षत्रिय संस्कृति और वैश्य संस्कृति बनाए रखना चाहिए, और लोगों को केवल उन वस्तुओं से संतुष्ट रहना सिखाया जाना चाहिए जिसकी उन्हें आवश्यकता हो. आधुनिक सभ्यता में ऐसी कोई शिक्षा नहीं है; हर व्यक्ति अधिकधिक वस्तुएँ चाहता है, और हर कोई असंतुष्ट और अप्रसन्न है. इसलिए कृष्ण चेतना आंदोलन विभिन्न आश्रम स्थापित कर रहा है, विशेष रूप से अमेरिका में, जहाँ जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ संतुष्ट रहना और आत्म-ज्ञान के लिए समय बचाना दिखाया जाए, जिसे व्यक्ति महामंत्र–हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे. हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का जाप करके बहुत सरलता से प्राप्त कर सकता है.

स्रोत – अभय चरणारविंद स्वामी प्रभुपाद (2014 संस्करण, अंग्रेज़ी), “श्रीमद् भागवतम्” , आठवाँ सर्ग, अध्याय 19 – पाठ 21